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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 71 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 71/ मन्त्र 6
    ऋषिः - पराशरः शाक्तः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स्व आ यस्तुभ्यं॒ दम॒ आ वि॒भाति॒ नमो॑ वा॒ दाशा॑दुश॒तो अनु॒ द्यून्। वर्धो॑ अग्ने॒ वयो॑ अस्य द्वि॒बर्हा॒ यास॑द्रा॒या स॒रथं॒ यं जु॒नासि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्वे । आ । यः । तुभ्य॑म् । दमे॑ । आ । वि॒ऽभाति॑ । नमः॑ । वा॒ । दाशा॑त् । उ॒श॒तः । अनु॑ । द्यून् । वर्धः॑ । अ॒ग्ने॒ । वयः॑ । अ॒स्य॒ । द्वि॒ऽबर्हाः॑ । यास॑त् । रा॒या । स॒ऽरथ॑म् । यम् । जु॒नासि॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्व आ यस्तुभ्यं दम आ विभाति नमो वा दाशादुशतो अनु द्यून्। वर्धो अग्ने वयो अस्य द्विबर्हा यासद्राया सरथं यं जुनासि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्वे। आ। यः। तुभ्यम्। दमे। आ। विऽभाति। नमः। वा। दाशात्। उशतः। अनु। द्यून्। वर्धः। अग्ने। वयः। अस्य। द्विऽबर्हाः। यासत्। राया। सऽरथम्। यम्। जुनासि ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 71; मन्त्र » 6
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने ! वर्धो द्विबर्हास्त्वं यथा सविता स्वे दमे तुभ्यं नम आदाशादाविभाति यथा वास्य जगतो वयो यासत् तथा यः स्वे दमे तुभ्यं नम आदाशादाविभात्यस्यापत्यस्य वयो यासत् राया सरथं यं जुनासि तान् सर्वाननुद्यूनुशतः सम्पादय ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (स्वे) स्वकीये (आ) समन्तात् (यः) अध्येता (तुभ्यम्) (दमे) गृहे। दम इति गृहनामसु पठितम्। (निघं॰६.४) (आ) अभितः (विभाति) प्रकाशते (नमः) अन्नम् (वा) विकल्पे (दाशात्) ददाति (उशतः) कामयमानान् (अनु) वीप्सायाम् (द्यून्) दिवसान् (वर्धो) यो वर्धयति तत्संबुद्धौ (अग्ने) विज्ञानप्रद (वयः) जीवनम् (अस्य) अपत्यस्य जगतो वा (द्विबर्हाः) यो द्वाभ्यां विद्याशिक्षाभ्यां प्रतापप्रकाशाभ्यां वा वर्धयति सः (यासत्) प्रापयन्ति (राया) विद्यादिधनेन (सरथम्) रथै रमणीयैः कर्मभिर्गुणैर्यानैर्वा सह वर्त्तमानस्तम् (यम्) मनुष्यं रथं वा (जुनासि) व्यवहारे प्रेरयसि ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! युष्माभिर्ये युष्माकं पितरो जनका आचार्याश्च युष्मभ्यं सुशिक्षया सूर्य्यवद्विद्याप्रकाशेनान्नादिदानेन वा सुखयन्ति ते नित्यं सेवनीयाः ॥ ६ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर भी अध्यापक के गुणों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) विज्ञानप्रद ! (वर्धो) (द्विबर्हाः) विद्या और शिक्षा से वार-वार बढ़ानेहारे आप जैसे सविता (स्वे) अपने (दमे) घर में (तुभ्यम्) तुमको (नमः) अन्न (आदाशात्) अच्छे प्रकार देता (आविभाति) और अत्यन्त प्रकाश को करता (वा) अथवा (अस्य) इस जगत् की (वयः) अवस्था को (यासत्) पहुँचाता है, वैसे (यः) जो शिष्य अपने घर में तुम्हारे लिये अन्न देता अर्थात् यथायोग्य सत्कार करता और आपसे गुणों को प्राप्त होता हुआ प्रकाशित होता अथवा इस अपने पुत्र आदि की अवस्था पहुँचाता अर्थात् औषधि आदि पदार्थों से नीरोगता को प्राप्त करता है और (राया) विद्यादि धन (सरथम्) मनोहर कर्म, गुण वा यानों से युक्त (यम्) जिस मनुष्य को (जुनासि) व्यवहार में चलाते हो, उन सबको (अनुद्यून्) प्रतिदिन (उशतः) अति उत्तम कीजिये ॥ ६ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! तुम लोगों को चाहिये कि जो तुम्हारे पिता अर्थात् उत्पन्न करनेवाले वा पढ़ानेवाले आचार्य्य तुम्हारे लिये उत्तम शिक्षा से सूर्य के समान विद्याप्रकाश वा अन्नादि दे कर सुखी रखते हैं, उनका निरन्तर सेवन करो ॥ ६ ॥

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    विषय

    शरीररूप रथ व धन

    पदार्थ

    १. (यः) = जो भी व्यक्ति (तुभ्यम्) = आपकी प्राप्ति के लिए (स्वे दमे) = अपने इस शरीररूप गृह में (आविभाति) = सब ओर चमकता है, अर्थात् अपने एक - एक कोश को अत्युत्तम बनाता है । प्रभु - प्राप्ति उसी को तो होती है जो अपने इस शरीररूप गृह को सचमुच दम - दमन से युक्त बनाता है जो इन्द्रियों, मन व बुद्धि को ठीक से वश में रखता है । २. (वा) = या जो (अनुद्यून्) = प्रतिदिन (उशतः) = हित की कामनावाले आपके प्रति (नमः दाशत्) = नमन को प्राप्त कराता है । प्रातः सायं प्रभु के चरणों में नतमस्तक होनेवाला व्यक्ति प्रभु - प्राप्ति के योग्य बनता ही है । ३. हे (अग्ने) = सब उन्नतियों के साधक प्रभो ! (द्विबर्हा) = आप शारीरिक व आत्मिक उभयविध वर्धन के कारण हैं । आप (अस्य) = इस नमन करनेवाले के (वयः) = जीवन को (वर्धा उ) = बढ़ाते ही हैं । प्रभुकृपा से यह उन्नति - पथ पर आगे बढ़ता ही है । शारीरिक व आध्यात्मिक - दोनों प्रकार की उन्नतियों का प्रभु कारण बनते हैं । ४. हे प्रभो ! (यं जुनासि) = जिसको भी आप प्रेरित करते हैं वह (सरथम्) = शरीररूप रथ के साथ (राया) = ऐश्वर्य के साथ (यासत्) = [संगच्छते] संगत होता है । वह उत्तम शरीररूप रथ और धन को प्राप्त होनेवाला होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु - प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि हम इस शरीररूप रथ को दीप्त बनाएँ, प्रतिदिन प्रभु के प्रति नमनवाले हों । प्रभु हमारे जीवन को बढ़ाएँगे, हमें उत्तम शरीररूप रथ व धन प्राप्त होगा ।

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    विषय

    योगी, गृहपति, सूर्य और राजा का समान वर्णन

    भावार्थ

    हे परमेश्वर ! हे आचार्य ! ( तुभ्यमे ) तेरे लिये, तुझे प्राप्त प्रसन्न करने के लिये ( यः ) जो पुरुष ( स्वे दमे ) अपने घर में या अपने इन्द्रियों के दमन कार्य या देह में (आ विभाति) सब प्रकार विशेष तेजस्वी होकर सूर्य के समान चमकता है। (अनु द्यून्) प्रति दिन ( उषतः ) कान्तिमय देव और प्रिय आचार्य के लिये ( नमः ) नमस्कार आदर और अन्नादि पदार्थ (वा) भी ( दाशात् ) प्रदान करता है हे (अग्ने ) ज्ञानवन् ! आचार्य ! परमेश्वर ! तू (द्विबर्हाः) विद्या और शिक्षा से तथा ज्ञान और कर्म दोनों से बढ़ाने हारा होकर (अस्य) इस शिष्य या साधक के ( वयः ) ज्ञान, बल और आयु को (वर्धः) बढ़ा और तू (यं) जिस ( सरथम् ) रथवान्, देहवान् या आत्मवान् या आनन्द रस से युक्त पुरुष को ( जुनासि ) सन्मार्ग पर चलाता है वह ( राया यासत् ) ऐश्वर्य से युक्त हो जाता है । राजा के पक्ष में—(यः तुभ्यं दमे आविभाति) जो तेरे शासन में चमक जाता है और जो सब दिनों तेरा आदर करता और तुझे इच्छानुसार अन्नादि देता है, हे (अग्ने) अग्रणी राजन् ! तू ( द्विबर्हः ) राजा प्रजा दोनों को बढ़ाने हारा होकर ( अस्य वयः वर्धः ) उसके बल को बढ़ा और जिस रथरोही, महारथी शासक को तू अपनी आज्ञा में चलावे वह ऐश्वर्य से युक्त हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पराशर ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, ६, ७ त्रिष्टुप् । २, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ४, ८, १० विराट् त्रिष्टुप् । भूरिक् पंक्तिः ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर भी अध्यापक के गुणों का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे अग्ने ! वर्धः द्विबर्हाः त्वं यथा सविता स्वे दमे तुभ्यं नमः आ दाशात् आ विभाति यथा वास्य जगतः वयः यासत् तथा यः स्वे दमे तुभ्यं नमः आ दाशात् आ विभाति अस्य अपत्यस्य वयः यासत् राया सरथं यं जुनासि तान् सर्वान् अनु द्यून् उशतः सम्पादय ॥६॥

    पदार्थ

    पदार्थः-हे (अग्ने) विज्ञानप्रद=विशेश ज्ञान के प्रदान करनेवाले ! (वर्धो) यो वर्धयति तत्संबुद्धौ=बढ़ानेवाले, (द्विबर्हाः) यो द्वाभ्यां विद्याशिक्षाभ्यां प्रतापप्रकाशाभ्यां वा वर्धयति सः= विद्या व शिक्षा से या तेज व प्रकाश दोनों से, (त्वम्)=तुम, (यथा)=जिस प्रकार से, (सविता)=सूर्य, (स्वे) स्वकीये=अपने, (दमे) गृहे=घर में, (तुभ्यम्)=तुम्हारे लिये, (नमः) अन्नम्=अन्न को, (आ) समन्तात्=हर ओर से, (दाशात्) ददाति= देता है। (आ) अभितः= हर ओर से, (विभाति) प्रकाशते= प्रकाशित करता है, (यथा)= जिस प्रकार से, (वा) विकल्पे=अथवा, (अस्य) अपत्यस्य जगतो वा =सन्तान या संसार के, (वयः) जीवनम्=जीवन को, (यासत्) प्रापयन्ति=प्राप्त कराते हैं, (तथा)=वैसे ही, (यः) अध्येता=अध्ययन करनेवाले, (स्वे) स्वकीये=अपने, (दमे) गृहे=घर में, (तुभ्यम्)=तुम्हारे लिये, (नमः) अन्नम्=अन्न को, (आ) समन्तात्=हर ओर से, (दाशात्) ददाति=देता है। (आ) समन्तात्= हर ओर से, (विभाति) प्रकाशते= प्रकाशित करता है, (अस्य) अपत्यस्य जगतो वा= सन्तान या संसार के, (वयः) जीवनम्= जीवन को, (यासत्) प्रापयन्ति= प्राप्त कराते हैं, (राया) विद्यादिधनेन=विद्या आदि धन से, (सरथम्) रथै रमणीयैः कर्मभिर्गुणैर्यानैर्वा सह वर्त्तमानस्तम्=आनन्ददायक रथों से या कर्म और गुणों से यानों के साथ वर्त्तमान उस, (यम्) मनुष्यं रथं वा= मनुष्य या रथ को, (जुनासि) व्यवहारे प्रेरयसि= व्यवहार में प्रेरित करते हो, (तान्)=उन, (सर्वान्)=सबको, (अनु) वीप्सायाम्=प्रत्येक, (द्यून्) दिवसान्=दिनों में, (उशतः) कामयमानान्=इच्छा करनेवालों के द्वारा, (सम्पादय)=सिद्ध किया जाना चाहिए ॥६॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! तुम लोगों को चाहिये कि जो तुम्हारे पिता अर्थात् उत्पन्न करनेवाले वा पढ़ानेवाले आचार्य्य तुम्हारे लिये उत्तम शिक्षा से सूर्य के समान विद्याप्रकाश वा अन्नादि दे कर सुखी रखते हैं, उनका निरन्तर सेवन करो ॥६॥

    विशेष

    स्वे । आ । यः । तुभ्य॑म् । दमे॑ । आ । वि॒ऽभाति॑ । नमः॑ । वा॒ । दाशा॑त् । उ॒श॒तः । अनु॑ । द्यून् । वर्धः॑ । अ॒ग्ने॒ । वयः॑ । अ॒स्य॒ । द्वि॒ऽबर्हाः॑ । यास॑त् । रा॒या । स॒ऽरथ॑म् । यम् । जु॒नासि॑ ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (अग्ने) विशेष ज्ञान को प्रदान करनेवाले ! (वर्धो) बढ़ानेवाले, (द्विबर्हाः) विद्या व शिक्षा से या तेज व प्रकाश से, इन दोनों से (त्वम्) तुम (यथा) जिस प्रकार से (सविता) सूर्य, (स्वे) अपने (दमे) घर में (तुभ्यम्) तुम्हारे लिये (नमः) अन्न को (आ) हर ओर से (दाशात्) देता है और (आ) हर ओर से (विभाति) प्रकाशित करता है। (वा) अथवा, (यथा) जिस प्रकार से (अस्य) सन्तान या संसार के (वयः) जीवन को (यासत्) प्राप्त कराता है, (तथा) वैसे ही (यः) अध्ययन करनेवाला (स्वे) अपने (दमे) घर में (तुभ्यम्) तुम्हारे लिये (नमः) अन्न को (आ) हर ओर से (दाशात्) देता है और (आ) हर ओर से (विभाति) प्रकाशित करता है। [वह] (अस्य) सन्तान या संसार के (वयः) जीवन को (यासत्) प्राप्त कराता है। (राया) विद्या आदि धन से (सरथम्) आनन्ददायक रथों से या कर्म और गुणों से यानों के साथ उपलब्ध उस (यम्) मनुष्य या रथ को (जुनासि) तुम व्यवहार में प्रेरित करते हो। (तान्) उन (सर्वान्) सबको (अनु) प्रत्येक (द्यून्) दिनों में (उशतः) इच्छा करनेवालों के द्वारा (सम्पादय) सिद्ध किया जाना चाहिए ॥६॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! युष्माभिर्ये युष्माकं पितरो जनका आचार्याश्च युष्मभ्यं सुशिक्षया सूर्य्यवद्विद्याप्रकाशेनान्नादिदानेन वा सुखयन्ति ते नित्यं सेवनीयाः॥६॥

    संस्कृत भाग

    स्वे । आ । यः । तुभ्य॑म् । दमे॑ । आ । वि॒ऽभाति॑ । नमः॑ । वा॒ । दाशा॑त् । उ॒श॒तः । अनु॑ । द्यून् । वर्धः॑ । अ॒ग्ने॒ । वयः॑ । अ॒स्य॒ । द्वि॒ऽबर्हाः॑ । यास॑त् । रा॒या । स॒ऽरथ॑म् । यम् । जु॒नासि॑ ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! तुम्हाला जन्म देणारा पिता व शिकविणारा आचार्य उत्तम शिक्षण देऊन सूर्याप्रमाणे विद्येचा प्रकाश व अन्न इत्यादी देऊन सुखी करतात त्यांचा सतत स्वीकार करा. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, lord of light and life, who ever lights the fire in the home in the vedi, whoever in fervent love and faith offers food and reverence in yajna every day, you, giver of twofold advancement in knowledge and valour, grant him full age of honour and glory. Who ever you inspire and send up to battle of the chariot, you bless with the all-round wealth of life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is Agni is taught further in the 6th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Agni (Learned preceptor, giver of knowledge) you who develop your pupil by wisdom and education, as the sun does by strength and light, he who honours you in his own dwelling with giving food and other presents, getting inner light by your company, you augment his life. He whom you prompt to do noble deeds being endowed with wealth (material and spiritual in the form of wisdom) and with good virtues and vehicles, make him desirous of doing noble deeds on all days or for ever.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( दमे ) गृहे दम इति गृहनाम (निघ० ६.४) (अग्ने) विज्ञानप्रद = O preceptor giver of various scientific and other knowledge. (द्विव:) यः द्वाभ्यां विद्या शिक्षाभ्यां प्रतापप्रकाशाभ्यांवा वर्धयति सः = He who augments or develops by giving wisdom and education or in the case of the sun, by strength and light. (सरथम्) रथै रमणीयैः कर्मभिर्गुणैर्यानैर्वा सह वर्तमानः तम् । Endowed with noble virtues, deeds or vehicles.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men, you should always serve your parents and preceptors who make you happy by giving good education and by the light of wisdom and proper nourishing food etc. like the sun which gives light and causes food to grow.

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    Subject of the mantra

    Still, the qualities of a preceptor have been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (agne)=provider of special knowledge, (vardho)=the one who enhances, (dvibarhāḥ)=by knowledge and education or by brilliance and light, by both, (tvam) =you, (yathā) =by which light, (savitā) =Sun, (sve) =own, (dame) =in house, (tubhyam) =for you, (namaḥ) =to food, (ā) =from every side, (dāśāt) =provides and, (ā) =from every side, (vibhāti) =illuminates, (vā) =or, (yathā) =by which light, (asya) =of children or the world, (vayaḥ) =to life, (yāsat) =gets obtained (tathā) =similarly, (yaḥ) =those studying, (sve) =own, (dame) =in house, (tubhyam) =for you, (namaḥ) =to food, (ā) =from every side, (dāśāt) =provides and, (ā) =from every side, (vibhāti) =illuminates, [vaha]=he, (asya) =of children or world, (vayaḥ) =to life, (yāsat) =gets obtained, (rāyā) =by knowledge etc. wealth, (saratham) =with the joyous chariots or with the vehicles through actions and virtues, (yam) =to man or chariot, (junāsi)= you inspire in practice, (tān) =those, (sarvān) =all, (anu) =every, (dyūn) =in days, (uśataḥ) =by those dsiring, (sampādaya)= should be accomplished.

    English Translation (K.K.V.)

    He=O! (agne)=provider of special knowledge, (vardho)=the one who enhances, (dvibarhāḥ)=by knowledge and education or by brilliance and light, by both, (tvam) =you, (yathā) =by which light, (savitā) =Sun, (sve) =own, (dame) =in house, (tubhyam) =for you, (namaḥ) =to food, (ā) =from every side, (dāśāt) =provides and, (ā) =from every side, (vibhāti) =illuminates, (vā) =or, (yathā) =by which light, (asya) =of children or the world, (vayaḥ) =to life, (yāsat) =gets obtained (tathā) =similarly, (yaḥ) =those studying, (sve) =own, (dame) =in house, (tubhyam) =for you, (namaḥ) =to food, (ā) =from every side, (dāśāt) =provides and, (ā) =from every side, (vibhāti) =illuminates, [vaha]=he, (asya) =of children or world, (vayaḥ) =to life, (yāsat) =gets obtThere is silent vocal simile as a figurative in this mantra. O humans! The fathers and preceptors who make you happy with good education, with the light of knowledge like the Sun and by giving you food etc., are reverend daily.ained, (rāyā) =by knowledge etc. wealth, (saratham) =with the joyous chariots or with the vehicles through actions and virtues, (yam) =to man or chariot, (junāsi)= you inspire in practice, (tān) =those, (sarvān) =all, (anu) =every, (dyūn) =in days, (uśataḥ) =by those dsiring, (sampādaya)= should be accomplished.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. O humans! The fathers and preceptors who make you happy with good education, with the light of knowledge like the Sun and by giving you food etc., are reverend daily.

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