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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 93 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 93/ मन्त्र 6
    ऋषिः - गोतमो राहूगणपुत्रः देवता - अग्नीषोमौ छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आन्यं दि॒वो मा॑त॒रिश्वा॑ जभा॒राम॑थ्नाद॒न्यं परि॑ श्ये॒नो अद्रे॑:। अग्नी॑षोमा॒ ब्रह्म॑णा वावृधा॒नोरुं य॒ज्ञाय॑ चक्रथुरु लो॒कम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । अ॒न्यम् । दि॒वः । मा॒त॒रिश्वा॑ । ज॒भा॒र॒ । अम॑थ्नात् । अ॒न्यम् । परि॑ । श्ये॒नः । अद्रेः॑ । अग्नी॑षोमा । ब्रह्म॑णा । व॒वृ॒धा॒ना । उ॒रुम् । य॒ज्ञाय॑ । च॒क्र॒थुः॒ । ऊँ॒ इति॑ । लो॒कम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आन्यं दिवो मातरिश्वा जभारामथ्नादन्यं परि श्येनो अद्रे:। अग्नीषोमा ब्रह्मणा वावृधानोरुं यज्ञाय चक्रथुरु लोकम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। अन्यम्। दिवः। मातरिश्वा। जभार। अमथ्नात्। अन्यम्। परि। श्येनः। अद्रेः। अग्नीषोमा। ब्रह्मणा। ववृधाना। उरुम्। यज्ञाय। चक्रथुः। ऊँ इति। लोकम् ॥ १.९३.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 93; मन्त्र » 6
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 28; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ किं कुरुत इत्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यूयं यौ ब्रह्मणा वावृधानाग्नीषोमा यज्ञायोरुं लोकं चक्रथुस्तयोर्मध्यान्मातरिश्वा दिवोऽन्यमाजभार हरति द्वितीयः श्येनोऽग्निरद्रेरन्यं पर्य्यमथ्नात्सर्वतो मथ्नाति तौ विदित्वा सम्प्रयोजयत ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (अन्यम्) भिन्नमप्रसिद्धम् (दिवः) सूर्य्यादेः (मातरिश्वा) आकाशशयानो वायुः (जभार) हरति। अत्रापि हस्य भः। (अमथ्नात्) मथ्नाति (अन्यम्) भिन्नमप्रसिद्धम् कारणाख्यम् (परि) सर्वतः (श्येनः) वेगवानश्व इव वर्त्तमानः। श्येनास इत्यश्वना०। निघं० १। १४। (अद्रेः) मेघात् (अग्नीषोमा) कारणाख्यौ वायुविद्युतौ (ब्रह्मणा) परमेश्वरेण (वावृधाना) वर्धमानौ (उरुम्) बहुविधम् (यज्ञाय) ज्ञानक्रियामयाय यागाय (चक्रथुः) कुरुतः (उ) वितर्के (लोकम्) दृश्यमानं भुवनसमूहम् ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या यूयमेतयोर्वायुविद्युतोर्द्वे स्वरूपे स्त एकं कारणभूतं द्वितीयं कार्यभूतं च तयोर्यत्कारणाख्यं तद्विज्ञानगम्यं यच्च कार्याख्यं तदिन्द्रियग्राह्यमेतेन कार्याख्येन विदितगुणोपकारकृतेन वायुनाऽग्निना वा कारणाख्ये प्रवेशं कुरुतः। अयमेव सुगमो मार्गो यत् कार्यद्वारा कारणे प्रवेश इति विजानीत ॥ ६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे क्या करते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम लोग जो (ब्रह्मणा) परमेश्वर से (वावृधाना) उन्नति को प्राप्त हुए (अग्नीषोमा) अग्नि और पवन (यज्ञाय) ज्ञान और क्रियामय यज्ञ के लिये (उरुम्) बहुत प्रकार (लोकम्) जो देखा जाता है, उस लोकसमूह को (चक्रथुः) प्रकट करते हैं, उनमें से (मातरिश्वा) पवन जो कि आकाश में सोनेवाला है, वह (दिवः) सूर्य्य आदि लोक से (अन्यम्) और दूसरा अप्रसिद्ध जो कारणलोक है, उसको (आ, जभार) धारण करता है तथा (श्येनः) वेगवान् घोड़े के समान वर्त्तनेवाला अग्नि (अद्रेः) मेघ से (अमथ्नात्) मथा करता है, उनको जानकर उपयोग में लाओ ॥ ६ ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम लोग जो पवन और बिजुली के दो रूप हैं, एक कारण और दूसरा कार्य्य, उनसे जो पहिला है वह विशेष ज्ञान से जानने योग्य और जो दूसरा है वह प्रत्यक्ष इन्द्रियों से ग्रहण करने योग्य है। जिसके गुण और उपकार जाने हैं, उस पवन वा अग्नि से कारणरूप में उक्त अग्नि और पवन प्रवेश करते हैं, यही सुगम मार्ग है जो कार्य के द्वारा कारण में प्रवेश होता है, ऐसा जानो ॥ ६ ॥

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    विषय

    प्राण और ज्ञान, अपान और स्वास्थ्य

    पदार्थ

    १. 'स्तुता मया वरदा वेदमाता' इस अथर्वमन्त्र में वेद को माता नाम से स्मरण किया गया है । इस वेदमाता में गति करनेवाला व वृद्धि को प्राप्त करनेवाला यहाँ 'मातरिश्वा' है [श्वि गतिवृद्धयोः] । यह (मातरिश्वा) = वेद में गति व बुद्धिवाला जीव (दिवः) = ज्ञान के हेतु से (अन्यम्) = अग्नि और सोम में से एक अग्नि को (आजभार) = सब प्रकार से प्राप्त करता है । 'अग्नि' यहाँ प्राण का वाचक है । प्राणशक्ति के ठीक होने पर ही ज्ञान की दीप्ति होती है । २. (श्येनः) = [श्यैङ् गतौ] गतिशील व क्रियाशील व्यक्ति (अद्रेः) = [अदॄ] स्वास्थ्य के अविदारण के हेतु से (अन्यम्) = अग्नि व सोम में से दूसरे सोम को - अपान को (परि अमथ्नात्) = सब प्रकार से मथित करता है [tums up and down] सारे शरीर में ऊपर - नीचे उसके कार्य के लिए यत्न करता है । अपान का कार्य ठीक से चलने पर स्वास्थ्य की विकृति नहीं होती, क्योंकि मलशोधन का कार्य ठीक से होता रहता है । ३. (अग्नीषोमा) = ये अग्नि और सोम - तत्त्व (ब्रह्मणा) = ज्ञान से (वावृधाना) = वृद्धि को प्राप्त होते हुए (उ) = निश्चय से (यज्ञाय) = यज्ञ के लिए उस (लोकम्) = विशाल लोक को (चक्रथुः) = बनाते हैं । ज्ञान से प्राणापान की वृद्धि होती है । ये प्राणापान दीर्घ व यज्ञीय जीवन के कारण बनते हैं । यही प्राणापान का यज्ञ के लिए 'उरुलोक' को बनाना है ।

    भावार्थ

    भावार्थ = प्राणशक्ति की वृद्धि से ज्ञान बढ़ता है, अपान की स्वस्थता से स्वास्थ्य प्राप्त होता है । प्राणापान के ठीक होने पर जीवन दीर्घ व यज्ञमय बनता है ।

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    विषय

    दीर्घायु प्राप्त करने का वैज्ञानिक उपाय ।

    भावार्थ

    ( अन्यं ) अग्नि और सोम इन दोनों में से एक अग्नि को जिस प्रकार ( मातरिश्वा ) वायु ( दिवः ) सूर्य के बल से ( आजभार ) धारण करता है और ( अन्यं ) दूसरे आकाशस्थ ( सोमम् ) मेघ को जिस प्रकार ( श्येनः ) वेगवान् प्रबल वायु का झकोरा ( अद्रे परि ) पर्वत पर ( आमथ्नात् ) जा टकराता है और वे दोनों ही ( अग्निषोमा) अग्नि और सोम ( ब्रह्मणा ) बड़े भारी बल से ( वावृधाना ) बढ़ती हुई ( उरु लोकम् ) इस महान् दृश्य जगत् को ( यज्ञाय ) परस्पर लेन देन, तथा सुसंम्बद्ध रहने के लिये ( उरुं ) बहुत बढ़ा (चक्राथः) बना लेते हैं। उसी प्रकार (मातरिश्वा) पृथ्वी माता के विजय के निमित्त वेग से जाने हारा पुरुष ( दिवः ) ज्ञानवान् पुरुषों के बीच में एक अग्नि अर्थात् अग्रणी, ज्ञानवान् पुरुष ( जहार ) प्राप्त होता है । और दूसरा ( श्येनः ) वाज़ के समान शत्रु पर आक्रमण करने हारा ( अद्रेः ) दृढ़ अभेद्य जन समूह में से (अन्यम्) दूसरे सोम, ऐश्वर्यवान् आज्ञापक श्रेष्ठ पुरुष को दूध से मखन के समान मथ कर प्राप्त करे। वे दोनों विद्वान् और ऐश्वर्यवान् ब्राह्मण और क्षत्रिय जन ( ब्रह्मणा ) वेद ज्ञान और बड़े ऐश्वर्य से ( वावृधाना ) वृद्धि को प्राप्त होते हुए ( उरुं ) इस महान् ( लोकम् ) लोक को ( यज्ञाय ) महान् राष्ट्र के बनाने के लिये ( चक्रथुः ) तैयार करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो रहूगणपुत्र ऋषिः ॥ अग्नीषोमौ देवते ॥ छन्दः–१ अनुष्टुप् । २ विराड् नुष्टुप् । ३ भुरिगुष्णिक् । ४ स्वराट् पंक्तिः । ५, ७ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ विराट् त्रिष्टुप् । ८ स्वराट् त्रिष्टुप् । १२ त्रिष्टुप् । ९, १०, ११ गायत्री ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! वायू व विद्युतची जी दोन रूपे आहेत, त्यापैकी एक कारण व दुसरे कार्य. त्यापैकी जे पहिले आहे ते विशेष ज्ञानाने जाणण्यायोग्य आहे. दुसरे कार्य जे इंद्रियांद्वारे ग्रहण करण्यायोग्य आहे व ज्याचे गुण व उपयोग जाणलेले आहेत, त्या वायू व अग्नीद्वारे कारणरूपात वरील अग्नी व विद्युत प्रवेश करतात. हाच सुगम मार्ग आहे. ज्याचा कार्याद्वारे कारणात प्रवेश असतो, हे जाणा. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni and Soma growing by the energy and power of Brahman extend and expand the universe wider and wider for the divine yajna of creation. Of these, Matarishva, electric energy that rolls in space, derives from and holds another, i.e., the subtle energy from the sun in heaven. And Agni, moving like a celestial horse at the speed of light, holds the other, that is, the subtle Soma, from the sun and the cloud.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What do they (Agni and Soma) do is taught further in the sixth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men, You should know and apply Agni and Soma (electricity and wind in causal form) which are multiplied by God and which are instruments in the creation of various worlds for the Yajna consisting of knowledge and action. One of them (Agni or electricity) takes its subtle element from the sun and the other Soma (wind) which is like speedy horse takes its element from the cloud.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (मातरिश्वा) आकाशशयानो वायुः = Wind lying in the sky. (अद्रे:) मेघात् = From the cloud. (अग्नीषोमा) कारणाख्यौ वायुविद्युतौ = Wind and electricity in causal form. (यज्ञाय) ज्ञानक्रियामयाय यागाय = For the Yajna consisting of knowledge and action.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men, you should know that these wind and electricity I have two natures. One of them is their causal form and the other gross from which is the effect. The causal form being very subtle can only be grasped by subtle knowledge and intellect, the gross form only can be grasped through the senses. It is through the effect that one can slowly grasp the nature of the cause. This is an easy path.

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