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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 109 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 109/ मन्त्र 7
    ऋषिः - जुहूर्ब्रह्मजाया, ऊर्ध्वनाभा वा ब्राह्मः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    पु॒न॒र्दाय॑ ब्रह्मजा॒यां कृ॒त्वी दे॒वैर्नि॑किल्बि॒षम् । ऊर्जं॑ पृथि॒व्या भ॒क्त्वायो॑रुगा॒यमुपा॑सते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पु॒नः॒ऽदाय॑ । ब्र॒ह्म॒ऽजा॒याम् । कृ॒त्वी । दे॒वैः । नि॒ऽकि॒ल्बि॒षम् । ऊर्ज॑म् । पृ॒थि॒व्याः । भ॒क्त्वाय॑ । उ॒रु॒ऽगा॒यम् । उप॑ । आ॒स॒ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुनर्दाय ब्रह्मजायां कृत्वी देवैर्निकिल्बिषम् । ऊर्जं पृथिव्या भक्त्वायोरुगायमुपासते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पुनःऽदाय । ब्रह्मऽजायाम् । कृत्वी । देवैः । निऽकिल्बिषम् । ऊर्जम् । पृथिव्याः । भक्त्वाय । उरुऽगायम् । उप । आसते ॥ १०.१०९.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 109; मन्त्र » 7
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 7; मन्त्र » 7
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (देवैः) विद्वान् जन (ब्रह्मजायाम्) वेदवाणी को (पुनर्दाय) स्वयं ग्रहण करके फिर अन्यों के लिए देकर (निकिल्बिषम्) अपने आत्मा को निष्पाप अथवा परमात्मा के क्रीडारूप वेदज्ञान में अपने को निविष्ट (कृत्वी) करके (पृथिव्याः) प्रथित-फैली हुई सृष्टि में (ऊर्जं भक्त्वाय) अन्न रस भाग का सेवन करके (उरुगायम्) बहुत स्तुति करने योग्य परमात्मा की (उप आसते) उपासना करते हैं ॥७॥

    भावार्थ

    विद्वान् जन वेदवाणी को ग्रहण करके दूसरों को ग्रहण कराया करते हैं, इससे वह-अपने  को निष्पाप अथवा परमात्मा के वेदज्ञान में अपने को निविष्ट करके सृष्टि के अन्नरस का सेवन करते हैं और महान् स्तोतव्य परमात्मा की उपासना करते हैं ॥७॥

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    विषय

    संन्यस्त

    पदार्थ

    [१] वानप्रस्थ में, गत मन्त्र के अनुसार (ब्रह्मजायां पुनः दाय) = ब्रह्मजाया, अर्थात् वेदवाणी को फिर से औरों के लिए देकर तथा देवैः - दिव्य गुणों के धारण से (निकिल्बिषं कृत्वी) = अपने जीवन को पापरहित करके और (पृथिव्या:) = इस पृथिवीरूप शरीर को (ऊर्जम्) = बल व प्राणशक्ति को (भक्त्वाय) = सेवन करके (उरुगायम्) = खूब ही गायन के योग्य प्रभु को उपासते ये उपासन करते हैं । [२] संन्यासी के लिए आवश्यक है कि [क] वह अपने जीवन को दिव्य बनाए, पापशून्य उसका जीवन हो। इसके जीवन का ही तो औरों ने अनुकरण करना है। [ख] इसका शरीर स्वस्थ व सबल हो। बिना स्वास्थ्य व सबलता के यह भ्रमण क्या कर पाएगा ? परिव्राजकत्व की सिद्धि के लिए शक्ति आवश्यक है, [ग] इस शक्ति को बनाये रखने के लिए ही यह निरन्तर उस 'उरुगाय' प्रभु का गायन करता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- शुद्ध तथा सशक्त जीवनवाले बनकर हम संन्यस्त हों। उस उरुगाय प्रभु का गायन करते हुए उसी की ओर लोगों को अभिमुख करें। प्रस्तुत सूक्त में सर्वत्र प्रभु की महिमा को देखते हुए ब्रह्मजाया के [वेदवाणी के] आराधन का उल्लेख है प्रसंगवश 'ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ व संन्यासी' के मौलिक कर्त्तव्यों का प्रतिपादन हुआ है। यह 'जमदग्नि' बनता है, खानेवाली जाठराग्निवाला, अर्थात् ठीक पाचनशक्तिवाला, नीरोग तथा 'राम' होता है, रमण करनेवाला, क्रीड़ा की मनोवृत्ति से व्यवहारों को करनेवाला । यह निम्न प्रकार से आराधना करता है-

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    विषय

    पुनः पुनः निष्पाप हो प्रभु की उपासना कर पुनः पुनः मोक्षप्राप्ति। पक्षान्तर में—आश्रमान्तर ग्रहण की ध्वनि।

    भावार्थ

    इस प्रकार (देवैः = देवाः) विद्वान् जन (ब्रह्म-जायां) जगत्-उत्पादक प्रकृति को (पुनर्दाय) पुनः पुनः त्याग कर और अपने को (किल्विषं कृत्वी) निष्पाप करके (पृथिव्याः) इस पृथिवी, के विस्तृत प्रकृतिमय देह वा (ऊर्जं) अन्नवत् फल को (भक्त्वाय) सेवन करके (उरुगायम्) उस महान् स्तुत्य ज्ञानमय प्रभु की (उपासते) उपासना करते, उसी को प्राप्त कर उस ही में रमते हैं।

    टिप्पणी

    इसी प्रकार ५ वें मन्त्र में कहे प्रकार से, विद्वान् जन ब्रह्मचर्य के अनन्तर गृहस्थ करते हैं। और गृहस्थ-जाल से मुक्त होकर देव, ब्राह्मण, मनुष्य, वैश्य, राजा, क्षत्रिय, तीनों वर्ण वनस्थ होकर गृहस्थ को त्यागते हैं। फिर निष्पाप होकर मुक्त हो जाते हैं। यह तत्त्व भी वेद ने कहा है। इति सप्तमो वर्गः॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्जुहूर्ब्रह्मजायोर्ध्वनाभा वा ब्राह्मः। विश्वेदेवा देवताः। छन्दः-१ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ४, ५ त्रिष्टुप्। ६, ७ अनुष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (देवैः) देवाः ‘व्यत्ययेन तृतीया प्रथमायाः स्थाने’ (ब्रह्मजाया पुनर्दाय) वेद्वाचं स्वयं गृहीत्वा पुनरन्येभ्यो दत्त्वा ‘पुनर्दाय’ इति “पुनश्चनसोश्छन्दसि गतिसंज्ञा वक्तव्या” [अष्टा० १।४।६० इत्यत्र वार्तिकेन] (निकिल्बिषं कृत्वी) स्वात्मानं निष्पापं यद्वा परमात्मनः क्रीडारूपे वेदज्ञाने निगतं-निविष्टं कृत्वा-“स्नात्व्यादयश्च” [अष्टा० ७।१।४९] (पृथिव्याः-ऊर्जं भक्त्वाय) प्रथितायां सृष्टावन्नरसं भागं सेवित्वा “क्त्वो यक्” [अष्टा० ७।१।४७] इति छन्दसि यक् स चान्ते “आद्यन्तौ टकितौ” [अष्टा० १।१।४५] (उरुगायम्-उप आसते) बहुस्तोतव्यं परमात्मानमुपासते ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Thus do sages, scholars and noble people, serving and spreading the light of divine knowledge and the Vedic Word, sanctified and energised for life’s purity, excellence and joy by Devas, serve Brahma, Lord Supreme in order that they may enjoy and extend the wealth and creativity of mother earth and the environment.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्वान लोक वेदवाणी स्वत: ग्रहण करून इतरांना ग्रहण करवितात. यामुळे ते स्वत:ला निष्पाप किंवा परमात्म्याच्या वेदज्ञानात आपल्याला अनुभूत करून सृष्टीच्या अन्नरसाचे सेवन करतात व महान स्तुती करण्यायोग्य परमात्म्याची उपासना करतात. ॥७॥

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