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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 122 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 122/ मन्त्र 2
    ऋषिः - चित्रमहा वासिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    जु॒षा॒णो अ॑ग्ने॒ प्रति॑ हर्य मे॒ वचो॒ विश्वा॑नि वि॒द्वान्व॒युना॑नि सुक्रतो । घृत॑निर्णि॒ग्ब्रह्म॑णे गा॒तुमेर॑य॒ तव॑ दे॒वा अ॑जनय॒न्ननु॑ व्र॒तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जु॒षा॒णः । अ॒ग्ने॒ । प्रति॑ । ह॒र्य॒ । मे॒ । वचः॑ । विश्वा॑नि । वि॒द्वान् । व॒युना॑नि । सु॒क्र॒तो॒ इति॑ सुऽक्रतो । घृत॑ऽनिर्निक् । ब्रह्म॑णे । गा॒तुम् । आ । ई॒र॒य॒ । तव॑ । दे॒वाः । अ॒ज॒न॒य॒न् । अनु॑ । व्र॒तम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जुषाणो अग्ने प्रति हर्य मे वचो विश्वानि विद्वान्वयुनानि सुक्रतो । घृतनिर्णिग्ब्रह्मणे गातुमेरय तव देवा अजनयन्ननु व्रतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जुषाणः । अग्ने । प्रति । हर्य । मे । वचः । विश्वानि । विद्वान् । वयुनानि । सुक्रतो इति सुऽक्रतो । घृतऽनिर्निक् । ब्रह्मणे । गातुम् । आ । ईरय । तव । देवाः । अजनयन् । अनु । व्रतम् ॥ १०.१२२.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 122; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (घृतनिर्णिक्) अपने तेज से स्तोता को शोधन करनेवाले (अग्ने) अग्रणायक परमात्मन् ! (जुषाणः) तू प्रसन्न हुआ (मे-वचः) मेरे प्रार्थनावचन को (प्रति हर्य) प्रतिपूरण कर (सुक्रतो) हे सुप्रज्ञान ! (विश्वानि वयुनानि) सर्व प्रज्ञातव्य को (विद्वान्) जानता हुआ वर्तमान है (ब्रह्मणे) ब्राह्मण अपने उपासक के लिये (गातुम्) सन्मार्ग को (एरय) प्रेरित करता है (तव) तेरे (व्रतम्-अनु) नियम के अनुसार (देवाः) विद्वान् (अजनयन्) स्वात्मा को सफल बनाते हैं ॥२॥

    भावार्थ

    परमात्मा अपने तेज से स्तुति करनेवाले को निर्मल-निर्दोष बनाता है, उसके प्रार्थनावचन को प्रसन्न हुआ स्वीकारता है और सत्यमार्ग पर प्रेरित करता है, विद्वान् जन उसके सङ्ग से अपने को सफल बनाते हैं ॥२॥

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    विषय

    प्रभु के अनुरूप

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो ! (जुषाणः) = प्रीतिपूर्वक सेवन किये जाते हुए आप (मे वचः) = मेरे स्तुति-वचन की (प्रतिहर्य) = कामना कीजिए। मेरे स्तुति-वचन आपको प्रीणित करनेवाले हों। [२] हे (सुक्रतो) = शोभन प्रज्ञावाले प्रभो ! आप (विश्वानि वयुनानि) = सब प्रज्ञानों को विद्वान् जानते हैं । और सर्वज्ञ होने के कारण ही (घृतनिर्णिक्) = इस ज्ञानदीप्ति के द्वारा शोधन को करनेवाले हैं। आप (ब्रह्मणे) = इस ज्ञान को प्राप्त करनेवाले के लिए (गातुम्) = मार्ग को एरय प्रेरित करिये। आप से ज्ञान को प्राप्त करके यह ज्ञानी मार्ग पर चलनेवाला हो। [३] वस्तुत:, हे अग्ने! (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष (तव अनु) = आपके अनुसार ही (व्रतम्) = [नियमः पुण्यकं व्रतम् ] पुण्य कर्मों को (अजनयन्) = उत्पन्न करते हैं । आपके गुण कर्मों के अनुसार अपने गुण कर्मों को बनाते हुए ये आप जैसा बनने का प्रयत्न करते हैं । आप दयालु हैं, ये भी दया को अपनाते हैं। आप न्यायकारी हैं, ये भी न्यायवृत्ति से चलने का प्रयत्न करते हैं । वस्तुतः इसीलिए ये आपका स्तवन करते हैं कि उन गुणों को अपने में भी धारण करने का यत्न करें। वस्तुतः ऐसा करने से ही यह स्तुति 'काव्य' न रहकर 'दृश्य' हो जाती है। यह दृश्य भक्ति ही प्रभु को प्रिय है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु का स्तवन करें, प्रभु हमारा मार्गदर्शन करें। प्रभु के गुण-कर्मानुसार हम अपने गुण-कर्म साधने का यत्न करें।

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    विषय

    सर्वज्ञ प्रभु से ज्ञान की याचना।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) ज्ञान के प्रकाशक ! सर्वाग्रणी, सबको सन्मार्ग में लेजाने हारे प्रभो ! विद्वन् ! तू (जुषाणः) सबको प्रेम करता हुआ (मे वचः प्रति हर्य) मेरे वचन को भी प्रेम से स्वीकार कर। हे (सु-क्रतो) उत्तम कर्म करने हारे ! उत्तम ज्ञान के दाता ! तू (विश्वानि वयुनानि विद्वान्) समस्त ज्ञानों वा समस्त लोकों का जानने वाला है। हे (घृत-निर्निक्) जल और तेज से समस्त जगत् को मेघवत् पोषण और सूर्यवत् पवित्र करने वाले ! तू (ब्रह्मणे) ब्रह्म, वेद के (गातुम्) ज्ञान-मार्ग का (आ ईरय) उपदेश कर। (तव अनु) तेरा अनुकरण करके (देवाः व्रतम् अजनयन्) समस्त मनुष्य कर्म करें। समस्त विद्वान् गण तेरे को लक्ष्य कर समस्त व्रत दीक्षा आदि प्रकट करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिश्चित्रमहा वासिष्ठः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १ त्रिष्टुप्। ५ निचृत् त्रिष्टुप्। २ जगती। ३, ८ पादनिचृज्जगती। ४, ६ निचृज्जगती। ७ आर्ची स्वराड जगती।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (घृतनिर्णिक्-अग्ने) स्वतेजसा स्तोतारं निर्णेक्ति शोधयति तत्सम्बुद्धौ तथाभूताग्रणेतः परमात्मन् ! (जुषाणः) प्रीयमाणस्त्वं (मे वचः प्रति हर्य) मम प्रार्थनावचनं प्रतिकामयस्व-प्रतिपूरय (सुक्रतो विश्वानि वयुनानि विद्वान्) हे सुप्रज्ञान ! “क्रतुः प्रज्ञानाम” [निघ० ३।१] सर्वाणि प्रज्ञातव्यानि जानन् सन् वर्तसे (ब्रह्मणे-गातुम्-एरय) ब्राह्मणाय स्वोपासकाय सन्मार्गे प्रेरयसि (तव व्रतम् अनु देवाः-अजनयन्) तव नियममनुसरन्तो विद्वांसः स्वात्मानं-सफलं जनयन्ति-कुर्वन्ति ॥२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Loving and adorable Agni, universal knower of the laws and ways of life, presiding power of all holy works, pray listen to my words and accept my prayer : Rising and refulgent with ghrta, inspire the sage and open up the paths of progress for him. Divinities and noble souls raising you in yajna adore you, join you and raise themselves in pursuance of your laws of life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा आपल्या तेजाने स्तुती करणाऱ्यांना निर्मल-निर्दोष बनवितो. त्याचे प्रार्थनावचन प्रसन्न होऊन स्वीकारतो व सत्य मार्गावर चालण्यास प्रेरित करतो. विद्वान लोक त्याच्या संगतीने आपल्याला सफल बनवितात. ॥२॥

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