ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 127/ मन्त्र 6
ऋषिः - कुशिकः सौभरो, रात्रिर्वा भारद्वाजी
देवता - रात्रिस्तवः
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
या॒वया॑ वृ॒क्यं१॒॑ वृकं॑ य॒वय॑ स्ते॒नमू॑र्म्ये । अथा॑ नः सु॒तरा॑ भव ॥
स्वर सहित पद पाठय॒वय॑ । वृ॒क्य॑म् । वृक॑म् । य॒वय॑ । स्ते॒नम् । ऊ॒र्म्ये॒ । अथ॑ । नः॒ । सु॒ऽतरा॑ । भ॒व॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यावया वृक्यं१ वृकं यवय स्तेनमूर्म्ये । अथा नः सुतरा भव ॥
स्वर रहित पद पाठयवय । वृक्यम् । वृकम् । यवय । स्तेनम् । ऊर्म्ये । अथ । नः । सुऽतरा । भव ॥ १०.१२७.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 127; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 6
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अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ऊर्म्ये) हे रात्रि ! (वृक्यं वृकं यवय) भेड़ियन भेड़िये घातक पशु को हमारे से पृथक् कर सुला दे (स्तेनं यवय) चोर को हमसे पृथक् कर सुला दे (अथ न सुतरा भव) हमारे लिए सुख से बीतनेवाली हो ॥६॥
भावार्थ
रात्रि में मनुष्य सो जाते हैं। सो जाने पर भेड़िये आदि जङ्गली पशु एवं चोरों के आक्रमण की सम्भावना रहती है। मानव की भावना है कि वे हमारे ऊपर आक्रमण न करें और सो जावें, या हम ऐसे गहरे न सोएँ, जिससे वे सता सकें ॥६॥
विषय
निर्भय - निद्रा
पदार्थ
[१] गत मन्त्र के अनुसार रात्रि विश्राम काल तो है, परन्तु यदि उस समय हिंस्र पशुओं का भय बना हुआ हो अथवा चोरों का भय हो तो नींद सम्भव नहीं। सो कहते हैं कि हे (ऊर्म्ये) = रात्रि ! सारे संसार को अन्धकार से आच्छादित करनेवाली रात्रि ! [ऊर्णुञ् आच्छादने] (वृक्यं वृकम्) = वृकी और वृक-भेड़ियों को (यावया) = हमारे से दूर करो। राजा इस प्रकार व्यवस्था करे कि बस्तियों के समीप इन हिंसक पशुओं के आने का सम्भव न हो। इसी प्रकार (स्तेनम्) = चोर को (यवय) = हमारे से पृथक् करो। रात्रि में रक्षा-पुरुषों की ठीक व्यवस्था के कारण चोरों का भी भय न हो। [२] इस प्रकार हिंस्र पशुओं व चोरों के भय से रहित होकर उत्तम नींद को देती हुई तू (नः) = हमारे लिए (सुतराभव) = शरीरों के रोगों व मानस ईर्ष्या-द्वेष-क्रोध आदि विकारों से ठीक प्रकार से तरानेवाली, दूर करनेवाली हो। रोगी सो जाए तो उसका आधा रोग ही दूर हो जाता है और क्रोध से तमतमाता हुआ पुरुष सो जाए तो अगले दिन बिलकुल क्रोध से शून्य होता है । एवं यह रात्रि हमें आधि-व्याधियों से तरानेवाली है।
भावार्थ
भावार्थ- हिंसक पशुओं व चोरों के भय से रहित होकर हम ठीक नींद को प्राप्त करें और आधि-व्याधियों से ऊपर उठें।
विषय
प्रभुशक्ति का वर्णन।
भावार्थ
हे (ऊर्भ्ये) रात्रिवत् उत्तम मान, शासन से युक्त ! प्रभु शक्ते ! (वृक्यं यवय) चोर स्वभाव की स्त्री को वा विविध प्रकार से काटने वाली सेना को और (स्तेनं वृकं) चोर स्वभाव के हिंसक शत्रु को (यवय यवय) तू सदा दूर कर। (अथ नः सुतरा भव) और हमें सुख से तार देने वाली, उद्देश्य तक पहुंचा देने वाली हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः कुशिकः सौभरोः रात्रिर्वा भारद्वाजी। देवता—रात्रिस्तवः॥ छन्द:—१, ३, ६ विराड् गायत्री। पादनिचृद् गायत्री। ४, ५, ८ गायत्री। ७ निचृद् गायत्री॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(ऊर्म्ये) हे रात्रे ! “ऊर्म्या रात्रिनाम” [निघ० १।७] (वृक्यं वृकं यवय) वृकभार्यां वृकं च घातकं जाङ्गलपशुमस्मत्तो निवारय स्वापय (स्तेनं-यवय) चोरञ्च यवयास्मत्तः पृथक्कुरु तं स्वापय (अथ न-सुतरा भव) अथ चास्मभ्यं सुखप्रदा भव ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O peaceful night, keep away the wolf and the wolfish deeds. Keep away the thief. Fold them in sleep. Be peaceable, soothing and refreshing for us.
मराठी (1)
भावार्थ
रात्री माणसे झोपतात. झोपल्यावर लांडगे इत्यादी जंगली पशू व चोरांच्या आक्रमणाची शक्यता असते. मानवाची ही इच्छा असते, की त्यांनी आमच्यावर आक्रमण करता कामा नये व झोपून जावे. आम्ही गाढ झोपावे. परंतु असेही गाढ झोपू नये, की त्यांच्याकडून आम्हाला त्रास व्हावा. ॥६॥
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