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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 15/ मन्त्र 14
    ऋषिः - शङ्खो यामायनः देवता - पितरः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ये अ॑ग्निद॒ग्धा ये अन॑ग्निदग्धा॒ मध्ये॑ दि॒वः स्व॒धया॑ मा॒दय॑न्ते । तेभि॑: स्व॒राळसु॑नीतिमे॒तां य॑थाव॒शं त॒न्वं॑ कल्पयस्व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । अ॒ग्नि॒ऽद॒ग्धाः । ये । अन॑ग्निऽदग्धाः । मध्ये॑ । दि॒वः । स्व॒धया॑ । मा॒दय॑न्ते । तेभिः॑ । स्व॒ऽराट् । असु॑ऽनीतिम् । ए॒ताम् । य॒था॒ऽव॒शम् । त॒न्व॑म् । क॒ल्प॒य॒स्व॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये अग्निदग्धा ये अनग्निदग्धा मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते । तेभि: स्वराळसुनीतिमेतां यथावशं तन्वं कल्पयस्व ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । अग्निऽदग्धाः । ये । अनग्निऽदग्धाः । मध्ये । दिवः । स्वधया । मादयन्ते । तेभिः । स्वऽराट् । असुऽनीतिम् । एताम् । यथाऽवशम् । तन्वम् । कल्पयस्व ॥ १०.१५.१४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 15; मन्त्र » 14
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (ये-अग्निदग्धाः-ये अनग्निदग्धाः-दिवः मध्ये स्वधया मादयन्ते) अग्नितेज या ताप जिन किरणों से बढ़ जाता है, वे ग्रीष्मकाल अर्थात् उत्तरायण के अन्त की तथा उनसे विपरीत शीतकाल अर्थात् दक्षिणायन के अन्त की सूर्यरश्मियाँ, जो आकाश के मध्य में विचरती हुई जलवृष्टि से प्राणियों को जीवन देती हैं (स्वराट् तेभिः-एताम्-असुनीतिं तन्वं यथावशं कल्पयस्व) हे यज्ञ में प्रकाशमानाग्ने ! उन किरणों के द्वारा प्राणसञ्चार के स्थान जीवशरीर को यथायोग्य समर्थ बना ॥१४॥

    भावार्थ

    उत्तरायण और दक्षिणायन के अन्त में होनेवाली वर्षा की कारणभूत सूर्यकिरणों को आकाश से सुवृष्टि के लिये यज्ञाग्नि प्रेरित करती है, जिस से जीवशरीर यथायोग्य प्राणशक्ति को धारण कर सकता है ॥१४॥

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    विषय

    'असुनीति' का अध्ययन

    पदार्थ

    [१] (ये) = जो पितर (अग्निदग्धा) = अग्निदग्ध हैं, अर्थात् अग्निविद्या में परिपक्व ज्ञान वाले व निपुण हैं, जिन्होंने अग्नि आदि देवों का ज्ञान प्राप्त किया है। (ये) = अथवा जो (अनग्निदग्धाः) = अग्निविद्या में निपुण नहीं भी हैं, अर्थात् जिन्होंने इन अग्नि आदि देवों का ज्ञान प्राप्त नहीं किया । आत्मचिन्तन में व समाज-स्वभाव के अध्ययन में लगे रहकर जो विज्ञान की शिक्षा को बहुत महत्त्व नहीं दे पाये। ये सब पितर जो कि (दिवः मध्ये) = ज्ञान के प्रकाश में (स्वधया) = [ स्व + धा] आत्मतत्त्व के धारण से (मादयन्ते) = अत्यन्त हर्ष का अनुभव करते हैं। (तेभिः) = उन पितरों से (स्वराट्) = आत्मशासन करनेवाला तू (एतां असुनीतिम्) = इस प्राण विद्या को (कल्पयस्व) = सिद्ध कर । प्राणविद्या को सिद्ध करके (यथावशम्) = इच्छा के अनुसार अर्थात् जैसा चाहिए वैसा (तन्वम्) = शरीर को कल्पयस्व - शक्तिशाली बना । [२] पितरों को यहाँ दो भागों में बाँटा है- [क] एक तो वे हैं जिन्होंने प्रकृतिविद्या का खूब अध्ययन किया है। उन्हें ही यहाँ 'अग्निदग्ध' कहा गया है, [ख] दूसरे वे हैं जिन्होंने समाजशास्त्र व अध्यात्मशास्त्र [sociology व metaphysics] पर प्रयत्न किया है। वे यहाँ 'अनग्निदग्ध' कहलाये हैं। ये सब के सब ज्ञान के प्रकाश में विचरण करते हैं, ज्ञान में ही उन्हें आनन्द का अनुभव होता है। [३] इन पितरों से प्राणविद्या को, जीवन की नीति को सीखने का हमें प्रयत्न करना चाहिए। इस असुनीति को सीख कर हम स्वराट् = आत्मशासन करनेवाले बनेंगे तो अपने शरीरों को उचित प्रकार से शक्तिशाली बना सकेंगे।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम ज्ञानी पितरों से प्राणविद्या को सीखें, और अपने शरीरों को सुन्दर व शक्तिशाली बनायें । सूक्त का प्रारम्भ इन शब्दों से हुआ है कि पितर 'प्राणविद्या को प्राप्त, हृत को जाननेवाले व निर्लोभ ' हैं, [१] इन पितरों के लिये हमें नमस्कार करना चाहिए, [२] हमें ये 'ज्ञान के द्वारा रक्षण करनेवाले, यज्ञशील' पितर प्राप्त हों, [३] ये पितर हमें 'शान्ति निर्भयता व निर्दोषता' प्राप्त कराते हैं, [४] वे पितर हमारे आमन्त्रण को स्वीकार करते हुए अवश्य घरों पर आयें, [५] हमें यज्ञों का उपदेश दें, [६] अपने सत्परामर्श से ये हमारे में 'वसु व अर्क' का स्थापन करें, [७] पितरों के साथ आनन्द को अनुभव करते हुए हम आवश्यकतानुसार ही भोजन को करनेवाले बनें, [८] ये पितर लोकहित के लिये प्रबल कामना वाले होते हैं, [९] ये प्रभु के उपासक व यज्ञशील होते हैं, [१०] अग्नि आदि देवों का इन्होंने खूब ज्ञान प्राप्त किया है, [११] इनके सम्पर्क में हम भी 'उपासना, स्वाध्याय व अग्निहोत्र' को अपनानेवाले बनते हैं, [१२] जो भी पितर हमारे घरों पर आयें, हम उनका सत्कार करें, [१३] उनसे प्राणविद्या को सीखकर अपने शरीरों को सुन्दर बनायें, [१४] आचार्य उचित तप व दण्ड के द्वारा हमें ज्ञान परिपक्व करें-

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    विषय

    उनके सत्संग से शक्ति प्राप्त करने का उपदेश। अनेक प्रकार के पूज्य जन।

    भावार्थ

    ये (अग्नि-दग्धाः) जो लोग अग्नि, ज्ञानवान् प्रभु या गुरु द्वारा अपने अज्ञान पापादि को भस्म कर देने वाले, वा अग्नि को प्रज्वलित करने वाले, और (ये अनग्नि-दग्धाः) अग्नि, यज्ञ, गुरु आचार्यादि द्वारा अभी कर्मों को भस्म नहीं कर पाये वा जो संन्यासी अग्निहोत्र नहीं करते और (मध्ये दिवः) भूमि में वा ज्ञान-ज्योति वा प्रकाश के बीच ही (स्वधया) अन्न वा जल, वा स्वशरीर की धारणा शक्ति के बल से (मादयन्ते) सदा तृप्त, वा सुखी रहते हैं (तेभिः) उनके साथ तू (स्वाराट्) स्वयं देदीप्यमान होता हुआ (एताम्) इस (असु-नीतिं) प्राण वा बल प्राप्त करने वाले (तन्वं) देह को (यथावशं) यथाशक्ति (कल्पयस्व) समर्थ बना। इत्येकोनविंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंखो यामायन ऋषिः। पितरो देवताः॥ छन्द:- १, २, ७, १२–१४ विराट् त्रिष्टुप्। ३,९,१० त्रिष्टुप्। ४, ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ६ निचृत् त्रिष्टुप्। ५ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ११ निचृज्जगती॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (ये अग्निदग्धाः-ये-अनग्निदग्धाः-दिवः-मध्ये स्वधया मादयन्ते) ये अग्निदग्धाः अग्निर्दग्धो दीपितो यैस्ते ग्रैष्मा उत्तरायणान्ते भवाः सूर्यरश्मयः, “जातिकालसुखादिभ्योऽनाच्छादनात् क्तोऽकृतमित-प्रतिपन्नाः” [अष्टा०६।२।१७०] इति सूत्रेण बहुव्रीहावन्तोदात्तः, दह धातुर्दीप्तौ “दहिक् दीप्तौ” [कविकल्पद्रुमः] येऽनग्निदग्धास्तद्विपरीता हैमन्तिका दक्षिणायनान्ते भवाः सूर्यरश्मयस्ते सर्वे दिवोऽन्तरिक्षस्य मध्ये स्वधयोदकेनोदकवृष्ट्या मादयन्ते प्राणिनो जीवयन्ति (स्वराट् तेभिः-एताम्-असुनीतिं तन्वं यथावशं कल्पयस्व) स्वराट्-हे प्रकाशमानाग्ने ! तेभिः सूर्यरश्मिभिरेतां तन्वमेतं जीवशरीरमसुनीतिं प्राणसञ्चारस्थानं यथावश्यकं यथायोग्यं समर्थयस्व ॥१४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Those rays of the sun which carry the heat of fire, in summer, and those which do not carry the heat of fire, in winter, all these which radiate in the spaces between the solar region and the earth and bring joy to people by showers of rain, by all these, O self-refulgent Agni, strengthen to the utmost, energise and refine this body which is the seat of life energy.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    उत्तरायण व दक्षिणायनाच्या शेवटी होणाऱ्या वृष्टीला कारणीभूत होणाऱ्या सूर्यकिरणांना आकाशाद्वारे सुवृष्टीसाठी यज्ञाग्नी प्रेरित करतो. ज्याद्वारे जीवशरीर व यथायोग्य प्राणशक्ती धारण करू शकतो. ॥१४॥

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