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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 181 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 181/ मन्त्र 3
    ऋषिः - धर्मः सौर्यः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ते॑ऽविन्द॒न्मन॑सा॒ दीध्या॑ना॒ यजु॑: ष्क॒न्नं प्र॑थ॒मं दे॑व॒यान॑म् । धा॒तुर्द्युता॑नात्सवि॒तुश्च॒ विष्णो॒रा सूर्या॑दभरन्घ॒र्ममे॒ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ते । अ॒वि॒न्द॒न् । मन॑सा । दीध्या॑नाः । यजुः॑ । स्क॒न्नम् । प्र॒थ॒मम् । दे॒व॒ऽयान॑म् । धा॒तुः । द्युता॑नात् । स॒वि॒तुः । च॒ । विष्णोः॑ । आ । सूर्या॑त् । अ॒भ॒र॒न् । घ॒र्मम् । ए॒ते ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तेऽविन्दन्मनसा दीध्याना यजु: ष्कन्नं प्रथमं देवयानम् । धातुर्द्युतानात्सवितुश्च विष्णोरा सूर्यादभरन्घर्ममेते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ते । अविन्दन् । मनसा । दीध्यानाः । यजुः । स्कन्नम् । प्रथमम् । देवऽयानम् । धातुः । द्युतानात् । सवितुः । च । विष्णोः । आ । सूर्यात् । अभरन् । घर्मम् । एते ॥ १०.१८१.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 181; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 39; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (ते) वे पूर्वोक्त अग्नि आदि ऋषि (मनसा) बुद्धि से (दीध्यानाः) प्रकाशमान (अविन्दन्) प्राप्त करते हैं (यजुः स्कन्नम्) यजुर्वेद से साधित (प्रथमं देवयानम्) जीवन्मुक्तों के गमनयोग्य अध्यात्मयज्ञ को प्राप्त करते हैं (धातुः-द्युतानात् सवितुः-विष्णोः) इन अग्नि, वायु, सूर्य, अङ्गिरा से ब्रह्मा ने अध्ययन किया, (एते सूर्यात्) ये सूर्योदय से (घर्मम्-आभरन्) अध्यात्मयज्ञ को अपने अन्दर आभरित करते हैं ॥३॥

    भावार्थ

    अग्नि आदि ऋषि बुद्धि से प्रकाशमान थे, यजुर्वेद-परमात्मा से संगतिकरणपद्धति से अध्यात्मयज्ञ किया, सूर्योदय के समय वेदज्ञान को प्राप्त किया ॥३॥

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    विषय

    घर्म सौर्य

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र के अनुसार अपने में शक्ति को भरनेवाले (एते) = ये पुरुष (धातुः) = उस धारण करनेवाले, (द्युतानात्) = ज्योति का विस्तार करनेवाले, (सवितुः) = प्रेरक, (विष्णोः) = व्यापक प्रभु से (च) = और (सूर्यात्) = प्रभु की सर्वमहान् विभूति इस सूर्य से (घर्मम्) = शक्ति की उष्णता व दीप्ति को [घृ=to shine] (आभरन्) = अपने में भरते हैं। प्रभु का स्मरण तो वासनाओं से बचाकर हमें शक्ति- सम्पन्न बनाता है और सूर्य हमारे में प्राणशक्ति का सञ्चार करता ही है 'प्राणः प्रजानामुदयत्येष सूर्यः '। [२] (ते) = वे शक्ति से चमकनेवाले 'घर्म' और सूर्य से प्राणशक्ति को प्राप्त करनेवाले 'सौर्य' (मनसा) = मन से (दीध्यानाः) = दीप्त होते हुए (यजुः) = यजु को अविन्दन् प्राप्त करते हैं । 'यज देव- पूजासंगतिकरणदानेषु' से बना हुआ यजु शब्द 'बड़ों के आदर, परस्पर मेल तथा दान' के भाव का प्रतिपादन कर रहा है। यह सब यजु (स्कन्नम्) = गति है [स्कन्द् गतौ, भावे क्तः ] सब यज्ञ कर्म से ही साध्य होते हैं। यह यज्ञ ही (प्रथमं देवयानम्) = सर्वमुख्य देवयान मार्ग है। देवता यज्ञों को अपनाते हैं, असुर उनमें विघ्न करते हैं। इन यज्ञों से ही तो देव उस यज्ञ [रूप] परमात्मा की उपासना करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- सूर्य के सम्पर्क में रहते हुए हम अपने को सशक्त बनाकर यज्ञात्मक कर्मों में प्रवृत्त हों । यही देवों का मार्ग है। इस प्रकार वसिष्ठ, भरद्वाज व सौर्य बनकर हम जीवन में उन्नत होते हैं । तपस्वियों के मूर्धन्य 'तपुर्मूर्धा' बनते हैं और खूब ज्ञानी होकर 'बार्हस्पत्य' कहलाने लगते हैं। इस 'तपूर्मूर्धा बार्हस्पत्य' का ही अगला सूक्त है-

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    विषय

    प्रभु और गुरुओं से ज्ञान-प्राप्ति।

    भावार्थ

    (ते) वे (दीध्यानाः) तेजस्वी लोग (प्रथमं) सर्वश्रेष्ठ, (देव-यानम्) विद्वानों के प्राप्त करने योग्य (स्कन्नं) परम प्राप्य, ज्ञान (यजुः) उपास्य को (मनसा अविन्दन्) मन से, ज्ञान से प्राप्त करते हैं। (ऐते) वे (द्युतानात् धातुः) चमकने वाले परिपोषक तत्त्व विद्युत् से, (विष्णोः च सवितुः च सूर्यात्) व्यापक और प्रेरक सूर्य से (धर्मम्) प्रकाश को (उत् अभरन) प्राप्त करते हैं। इसी प्रकार पूर्वोक्त गुण वाले विद्वान् जनों वा प्रभु से लोग ज्ञान का प्रकाश प्राप्त करते हैं। इत्येकोनचत्वारिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः प्रथो वासिष्ठः। २ संप्रथो भारद्वाजः॥ ३ धर्मः सौर्यः॥ विश्वेदेवा देवताः। छन्दः- १ निचृत् त्रिष्टुप्। २ त्रिष्टुप्। ३ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ तृचं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (ते मनसा दीध्यानाः-अविन्दन्) ते पूर्वोक्ता ऋषयो मनसा बुद्ध्या प्रकाशमानः लभन्ते (यजुः-स्कन्नं प्रथमं देवयानम्) यजुर्भिः साधितं प्रथमं देवा यस्मिन् यान्ति तमध्यात्मं यज्ञं लभन्ते-इत्यर्थः (धातुः द्युतानात्-सवितुः-विष्णोः) इत्येषां सकाशात् (एते सूर्यात्- घर्मम्-आभरन्) एते पूर्वोक्ता-ऋषयः सूर्योदयात् सूर्योदये सति यज्ञम् “घर्मः-यज्ञनाम” [निघ० ३।१७] समन्तात्-कुर्वन्ति ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    They, brilliant in mind and vision, vibrant at heart and burning with passion, received the knowledge for life and living, revealed and released in incessant flow, first and final for men on the path to divinity. And all these, Agni, Vayu, Aditya and Angira, Brahma, Bharadvaja and others that follow ultimately receive the knowledge, light and warmth of life, from the Supreme Sun, self-refulgent sustainer, giver of light, giver of life, omniscient, omnipresent Divinity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    अग्नी इत्यादी ऋषी बुद्धीने प्रकाशमान होते. यजुर्वेदाद्वारे साधित - परमात्म्याच्या संगतीकरणाने अध्यात्म यज्ञ केला, सूर्योदयाच्या वेळी त्यांनी वेदज्ञान प्राप्त केले. ॥३॥

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