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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 29/ मन्त्र 4
    ऋषिः - वसुक्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    कदु॑ द्यु॒म्नमि॑न्द्र॒ त्वाव॑तो॒ नॄन्कया॑ धि॒या क॑रस॒य कन्न॒ आग॑न् । मि॒त्रो न स॒त्य उ॑रुगाय भृ॒त्या अन्ने॑ समस्य॒ यदस॑न्मनी॒षाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कत् । ऊँ॒ इति॑ । द्यु॒म्नम् । इ॒न्द्र॒ । त्वाऽव॑तः । नॄन् । कया॑ । धि॒या । क॒र॒से॒ । कत् । नः॒ । आ । अ॒ग॒न् । मि॒त्रः । न । स॒त्यः । उ॒रु॒ऽगा॒य॒ । भृ॒त्यै । अन्ने॑ । स॒म॒स्य॒ । यत् । अस॑न् । म॒नी॒षाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कदु द्युम्नमिन्द्र त्वावतो नॄन्कया धिया करसय कन्न आगन् । मित्रो न सत्य उरुगाय भृत्या अन्ने समस्य यदसन्मनीषाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कत् । ऊँ इति । द्युम्नम् । इन्द्र । त्वाऽवतः । नॄन् । कया । धिया । करसे । कत् । नः । आ । अगन् । मित्रः । न । सत्यः । उरुऽगाय । भृत्यै । अन्ने । समस्य । यत् । असन् । मनीषाः ॥ १०.२९.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 29; मन्त्र » 4
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्र कत्-उ द्युम्नम्) हे ऐश्वर्यवन् ! परमात्मन् ! कब ही हमारे अन्दर वह यश होगा (त्वावतः नॄन् कया धिया करसे) तेरे जैसे मुक्त हम उपासक जनों को किस स्तुति से करेगा (कत् नः-आ-अगन्) कब मैं प्राप्त होऊँगा (उरुगाय) हे बहुत स्तुति करने योग्य या बहुत कीर्तन करने योग्य परमात्मन् ! (सत्यः-मित्रः-न) स्थिर मित्र के समान (भृत्यै) पोषण के लिये (समस्य) सब के (अन्ने) अन्न प्रदान करने के निमित्त-भोगप्रदान करने के निमित्त (मनीषाः-यत्-असन्) स्तुतियाँ जिससे सफल होवें ॥४॥

    भावार्थ

    परमात्मा उपासक जनों का मित्र है, उसकी विशेष स्तुति करनी चाहिये, जिससे संसार में रहते हुए ऊँचा यशस्वी बने और मुक्ति में उसके सङ्ग का आनन्दलाभ ले सके ॥४॥

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    विषय

    प्रभु जैसे बनकर प्रभु को पाना

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (कद् उ) = कब निश्चय से (द्युम्नम्) = ज्योति को (करसे) = आप करते हैं। कब आपकी कृपा से मेरा जीवन ज्योतिर्मय होगा ? और कब (कया) = आनन्द को देनेवाली (धिया) = ज्ञानपूर्विका क्रियाओं से (नॄन्) = हम मनुष्यों को (त्वावतः) = अपने जैसा [ त्वत्सदृशान् सा० ] करसे करते हैं ? अर्थात् कब वह समय मेरे जीवन में आयेगा जब कि मैं ज्ञानपूर्वक क्रियाओं में एक आनन्द का अनुभव करूँगा और इन क्रियाओं के द्वारा मैं आप जैसा बनने के लिये यत्नशील होऊँगा ? प्रभु के समान दयालु व न्यायकारी बनता हुआ ही तो मैं प्रभु का सच्चा उपासक होता हूँ। (कत्) = कब (नः) = हम उपासकों को (आगन्) = आप प्राप्त होंगे ? वस्तुतः आप जैसा बनकर ही तो मैं आपको प्राप्त होने का अधिकारी होता हूँ। [२] हे (उरुगाय) = खूब ही स्तवन करने के योग्य प्रभो! आप (मित्रः न) = मित्र के समान हैं। हमारे साथ स्नेह करनेवाले [मिद् स्नेहने] तथा हमें 'प्रमीतेः जायते'-रोगों व पापों से बचानेवाले हैं । (सत्यः) = आप सत्यस्वरूप हैं। आप ही (भृत्ये) = हमारे भरण- पोषण के लिये होते हैं । आपने ही अन्नों के द्वारा हमारे भरण की व्यवस्था की है। [३] (यद्) = जो आपने यह भी अद्भुत व्यवस्था की है कि (समस्य) = सब की (मनीषा:) = बुद्धियाँ अन्ने अन्न में (असन्) = हैं। जैसा अन्न कोई खाता है वैसा ही उसकी बुद्धि बन जाती है, 'आहारशुद्धौ सत्वशुद्धिः ' आहार की शुद्धि पर ही अन्तःकरण की शुद्धि निर्भर करती है। इस बुद्धि के द्वारा आप हमारा रक्षण करते हैं। इस प्रकार प्रभु ने अन्न के द्वारा ही हमारे 'अन्नमय, प्राणमय, मनोमय व विज्ञानमय' कोशों के निर्माण की व्यवस्था करके हमारे पालन का सुन्दर प्रबन्ध किया है।

    भावार्थ

    भावार्थ- बुद्धि-वर्धक अन्नों का प्रयोग करते हुए हम ज्ञानपूर्वक कर्मों से प्रभु जैसा बनकर, प्रभु को प्राप्त करें।

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    विषय

    प्रभु के लिये भक्त की उत्सुकता-पूर्वक अनुग्रह की याचना।

    भावार्थ

    हे ऐश्वर्यवन् ! प्रभो ! (कत् उ घुम्नम्) वह तेजोमय ऐश्वर्य कब होगा ? और तू (कया धिया) किस प्रकार के कर्म और बुद्धि से (नन् त्वावतः करसे) सब मनुष्यों, नायकों वा जीवों को अपने जैसा सुखी करता है। और तू (नः कत् आगन्) हमें कब प्राप्त होगा ? हे (उरु-गाय) बहुत कीर्त्ति वाले ! (समस्य भृत्यै) समस्त जगत् के भरण पोषण के लिये (अन्ने) अन्न उत्पन्न करने और देने में (यत्) जो तेरी (मनीषाः असन्) चेष्टाएं हैं इससे प्रतीत होता है कि (सत्यः मित्रः न) तू सब का सच्चा, स्नेही मित्र के समान है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसुक्र ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ५, ७ विराट् त्रिष्टुप् । २, ४, ६ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्र कत्-उ द्युम्नम्) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! कदा हि खल्वस्मासु तद्यशो भविष्यति ‘द्युम्नं द्योततेर्यशो वाऽन्नं वा” [निरु० ५।५] येन (त्वावतः नॄन् कया धिया करसे) त्वत्सदृशान् मुक्तान्-अस्मान् जनान् कया च स्तुत्या करिष्यसि (कत्-नः-आ-अगन्) कदाऽस्मान् प्राप्तो भविष्यसि (उरुगाय) हे बहुस्तुतियोग्य वा बहुकीर्तनीय परमात्मन् ! (सत्यः-मित्रः-न) स्थिरसखेव (भृत्यै) भरणाय पोषणाय (समस्य) सर्वस्य (अन्ने) अन्नप्रदाननिमित्तम् (मनीषाः-यत्-असन्) स्तुतयो याः सन्ति यतः सफला भवेयुः ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, when shall we have the light, power and honour of prosperity in life? What is that order of intelligence by which you transform humans to divine consciousness of your presence? When would you reveal your presence to us in direct experience? O lord adorable ever true as friend, when would our thoughts and actions be fruitful and win your favour of food, sustenance and stability for all mankind in peace and prosperity?

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा उपासक लोकांचा मित्र आहे. त्याची विशेष स्तुती केली पाहिजे. त्यामुळे तो जगात उच्च व यशस्वी बनेल व मुक्तीमध्ये त्याच्या संगतीचा आनंद भोगू शकेल. ॥४॥

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