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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 41 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 41/ मन्त्र 3
    ऋषिः - सुहस्त्यो घौषेयः देवता - अश्विनौ छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    अ॒ध्व॒र्युं वा॒ मधु॑पाणिं सु॒हस्त्य॑म॒ग्निधं॑ वा धृ॒तद॑क्षं॒ दमू॑नसम् । विप्र॑स्य वा॒ यत्सव॑नानि॒ गच्छ॒थोऽत॒ आ या॑तं मधु॒पेय॑मश्विना ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ध्व॒र्युम् । वा॒ । मधु॑ऽपाणिम् । सु॒ऽहस्त्य॑म् । अ॒ग्निध॑म् । वा॒ । धृ॒तऽद॑क्षम् । दमू॑नसम् । विप्र॑स्य । वा॒ । यत् । सव॑नानि । गच्छ॑थः । अतः॑ । आ । या॒त॒म् । म॒धु॒ऽपेय॑म् । अ॒श्वि॒न्चा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अध्वर्युं वा मधुपाणिं सुहस्त्यमग्निधं वा धृतदक्षं दमूनसम् । विप्रस्य वा यत्सवनानि गच्छथोऽत आ यातं मधुपेयमश्विना ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अध्वर्युम् । वा । मधुऽपाणिम् । सुऽहस्त्यम् । अग्निधम् । वा । धृतऽदक्षम् । दमूनसम् । विप्रस्य । वा । यत् । सवनानि । गच्छथः । अतः । आ । यातम् । मधुऽपेयम् । अश्विन्चा ॥ १०.४१.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 41; मन्त्र » 3
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अश्विना) हे प्राणापान ! (मधुपाणिम्-अध्वर्युं वा) मधुर स्तुतिकर्त्ता मन को (सुहस्त्यम्) अच्छी हस्तक्रियावाले-दानादिशील-(अग्निधम्) ज्ञानप्रकाश परमात्मा को धारण करनेवाले (घृतदक्षम्) बलयुक्त (दमूनसम्) दान्तमनवाले को अथवा उपासक को (विप्रस्य सवनानि वा गच्छथः) या मेधावी के ज्ञानकार्य को प्राप्त होओ (अतः) अत एव (मधुपेयम्-आयातम्) मधु-आनन्द पेय है जिसमें, ऐसे मोक्ष की ओर ले चलो ॥३॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य मन से परमात्मा का मनन, हाथों से यथाशक्ति दान, संयतमन होकर करता है, उस ऐसे मेधावी पुरुष के प्राण अपान जीवन के सच्चे सुख और मोक्ष को प्राप्त करने के निमित्त बनते हैं ॥३॥

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    विषय

    विप्र के सवनों में अश्विनी देवों की प्राप्ति

    पदार्थ

    [१] हे (अश्विना) = प्राणापानो! आप (वा) = निश्चय से (अध्वर्युम्) = [ अ धार] अहिंसात्मक कर्मों को अपने साथ जोड़नेवाले यज्ञशील पुरुष को (गच्छथः) = प्राप्त होते हो। (मधुपाणिम्) = जिसके हाथ में मधु [= माधुर्य] है उस माधुर्य-युक्त क्रियाओंवाले को प्राप्त होते हो । सुहस्त्यम् उत्तम हाथोंवाले, अर्थात् कार्यकुशल पुरुष को प्राप्त होते हो । [२] अग्निधं वा = अथवा आप उस पुरुष को प्राप्त होते हो जो अग्नि का आधान करनेवाला है, अग्निहोत्र करनेवाला है । अथवा जो अपने अन्दर वैश्वानर अग्नि [ = जाठराग्नि] को आहित करता है, और परिणामतः (धृतदक्षम्) = बल को धारण करनेवाला है। [दक्ष = बल] तथा (दमूनसम्) = [ दमयना वा दानमना वा दान्तमना वा नि० ४।४] दान्त मनवाला है, अथवा दान की वृत्तिवाला है । यहाँ ' धृतदक्षम् ' शब्द 'अग्निधं व दमूनसम्' के बीच में रखा गया है बल की प्राप्ति के लिये दो ही मुख्य साधन हैं [क] जाठराग्नि का ठीक होना तथा [ख] मन का दमन । जाठराग्नि के ठीक होने से शक्ति की उत्पत्ति होती है और मन के दमन से उस उत्पन्न शक्ति का रक्षण होता है। वेदों में शब्द - विन्यास का यही सौन्दर्य है । [३] हे प्राणापानो! आप (विप्रस्य वा) = निश्चय से अपना विशिष्ट पूरण करनेवाले व्यक्ति के (यत्) = क्योंकि (सवनानि) = सवनों को (गच्छथः) = प्राप्त होते हो, अतः इसलिए आप (मधुपेयम्) = सोम है पेय जिसका उस मुझ को (आयातम्) = प्राप्त होइये। मैं (सोम) = वीर्य को शरीर में ही व्याप्त करके शरीर में आ जानेवाली कमियों को दूर करता हूँ। इस प्रकार 'वि-प्र' बननेवाले मुझे आप प्राप्त होइये । वस्तुतः इस मधु को भी तो मैंने आपके द्वारा ही पीना है, इस मधु को शरीर में व्याप्त करने के लिये प्राणसाधना आवश्यक है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम 'अध्वर्यु, मधुपाणि, सुहस्त्य, धृतदक्ष व दमूनस् व विप्र' बनें । इसी उद्देश्य से प्राणसाधना करें। प्राणसाधना के द्वारा विप्र बनकर २४ वर्ष के प्रातः सवन ४४ वर्ष के मध्यन्दिन सवन ४८ वर्ष के तृतीय सवन को हम पूर्ण करनेवाले हों । सूक्त का प्रारम्भ उत्तम शरीर रूप रथ की प्राप्ति के लिये प्रार्थना से हुआ है, [१] इस शरीर रथ को प्राप्त करके हम प्रातः - प्रातः योगाभ्यास करें, सतत क्रियाशील बनें और सोम को धारण करनेवाले बनें, [२] मधुपेय के द्वारा अपना विशेषरूप से पूरण करते हुए जीवन के तीनों सवनों को करते हुए पूरे ११६ वर्ष तक चलनेवाले हों। [३] इस प्रकार इस सूक्त का ऋषि 'सुहस्त्य' सोमपान के द्वारा अपने में सब दैवी सम्पत्ति को आकृष्ट करनेवाला 'कृष्ण' बनता है, यह स्वभावतः 'आंगिरस' = शक्तिशाली होता है और सदा प्रभु का स्तवन करता है-

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    विषय

    उत्तम ज्ञानी आचार्य का सत्संग करें, वेद ज्ञान का रस प्राप्त करें।

    भावार्थ

    हे (अश्विना) उत्तम अश्वों, इन्द्रियों के स्वामी, जितेन्द्रिय एवं विद्यादि में व्याप्त विद्वान् पुरुषो ! आप दोनों (मधुपाणिं) मधुर मधु, ब्रह्मविद्या, वेद का प्रवचन वा उपदेश करने वाले,(अध्वर्युं) यज्ञ करने, कराने में श्रेष्ठ (सु-हस्त्यम्) उत्तम हस्त क्रिया में कुशल, (अग्निधम्) अग्नि को धारण करने वाले, वा अग्नि को प्रज्वलित करने वाले, विनीत शिष्यों को धारण करने में समर्थ (धृत-दक्षम्) उत्तम बल को धारण करने वाले, (दमूनसं) चित्त को दमन करने वाले, जितेन्द्रिय, पुरुष के पास (आ-यातम्) आओ। और (यत्) जो आप दोनों (विप्रस्य) विद्वान् पुरुष के (सवनानि) आज्ञा और अनुशासनों को (गच्छथः) प्राप्त होवोगे तभी (अतः) इससे (मधु-पेयम् आयतम्) वेद ज्ञान के उत्तम रस का पान भी प्राप्त कर सकोगे। इत्येकोनविंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ३ सुहस्त्या धौषेयः ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १ पादनिचृज्जगती। २ निचृज्जगती। ३ विराड् जगती ॥ तृचं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अश्विना) हे प्राणापानौ ! (मधुपाणिम्-अध्वर्युं वा) मधुरस्तुतिकर्तृ मनस् तद्वन्तमात्मानम् “मनो वा अध्वर्युः” [श० १।५।१।२१] (सुहस्त्यम्) सुहस्तक्रियायुक्तं दानादिकार्यशीलम् (अग्निधम्) ज्ञानप्रकाशकपरमात्मनः धारकम् (घृतदक्षम्) घृतं बलं येन तमात्मबलवन्तम् (दमूनसम्) दान्तमनसम् “दमूना दान्तमनाः” [४।५] यद्वोपासकम् (विप्रस्य सवनानि वा गच्छथः) मेधाविनः मेधया कार्यविधातुर्ज्ञानकार्याणि वा प्राप्नुथः (अतः) अतएव (मधुपेयम्-आयातम्) आनन्दः पेयो यस्मिन् तं मोक्षं समन्ताद् गमयतम् ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Ashvins, harbingers of the light of knowledge and practical power and energy through yajna, whether you go to the dexterous organiser of yajna, bearing honeyed offerings, or you go to the initiator of yajna and fire kindler, expert in the science and power of yajna and at the same time generous and socially oriented, or whether you go to the yajnas of the vibrant scholar specialist, you would have a taste of the honey sweets of life for achievement.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो माणूस मनाने परमात्म्याचे मनन, हातांनी यथाशक्ती दान संयमी मनाने करतो. त्या अशा मेधावी पुरुषाचे प्राण अपान जीवनाचे खरे सुख व मोक्ष प्राप्त करण्याचे निमित्त बनतात. ॥३॥

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