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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 46 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 46/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वत्सप्रिः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिगार्चीत्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    नि प॒स्त्या॑सु त्रि॒तः स्त॑भू॒यन्परि॑वीतो॒ योनौ॑ सीदद॒न्तः । अत॑: सं॒गृभ्या॑ वि॒शां दमू॑ना॒ विध॑र्मणाय॒न्त्रैरी॑यते॒ नॄन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि । प॒स्त्या॑सु । त्रि॒तः । स्त॒भु॒ऽयन् । परि॑ऽवीतः । योनौ॑ । सी॒द॒त् । अ॒न्तरिति॑ । अतः॑ । स॒म्ऽगृभ्य॑ । वि॒शाम् । दमू॑ना । विऽध॑र्मणा । अ॒य॒न्त्रैः । ई॒य॒ते॒ । नॄन् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नि पस्त्यासु त्रितः स्तभूयन्परिवीतो योनौ सीददन्तः । अत: संगृभ्या विशां दमूना विधर्मणायन्त्रैरीयते नॄन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नि । पस्त्यासु । त्रितः । स्तभुऽयन् । परिऽवीतः । योनौ । सीदत् । अन्तरिति । अतः । सम्ऽगृभ्य । विशाम् । दमूना । विऽधर्मणा । अयन्त्रैः । ईयते । नॄन् ॥ १०.४६.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 46; मन्त्र » 6
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (पस्त्यासु) मनुष्यप्रजाओं के अन्दर (त्रितः) शरीर-आत्मा-मन सम्बन्धी तीनों सुखों का विस्तार करनेवाला परमात्मा (परिवीतः) परिप्राप्त-व्याप्त (स्तभुयन्) उन मनुष्यादि प्रजाओं को स्थिर करता हुआ-नियत करता हुआ (योनौ-अन्तः-निसीदत्) हृदयों के अन्दर विराजमान है (अतः) इससे (विशां सङ्गृभ्य दमूनाः) मनुष्यप्रजाओं के कर्मों को लेकर उनके कर्मफल देने के मनवाला होकर (विधर्मणा) अपने न्यायकर्म से (नॄन्-अयन्त्रैः-ईयते) मुमुक्षुओं को किन्हीं गमनसाधनों के बिना प्राप्त होता है-साक्षात् होता है ॥६॥

    भावार्थ

    मनुष्यों के शारीरिक मानसिक तथा आत्मिक सुखों का विस्तार करनेवाला परमात्मा है। वह उनके कर्मानुसार फल देता है। मुमुक्षु उपासकों के हृदय में स्वतः साक्षात् होता है। उसे किसी यानादि साधन की आवश्यकता नहीं है ॥६॥

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    विषय

    त्रित व त्रिदण्डी

    पदार्थ

    [१] (त्रितः) = 'त्रीन् तरति वा त्रीन् तनोति' काम-क्रोध-लोभ को जो तैर जाता है अथवा ज्ञान, कर्म व उपासना का जो विस्तार करता है अथवा शरीर, मन व बुद्धि का जो विकास करता है, (स्तभूयन्) = जो उत्पन्न सोमरूप शक्ति को शरीर में ही रोकने के लिये इच्छा करता है, (योनौ) = सब के मूल उत्पत्ति - स्थान प्रभु में (परिवीतः) = चारों ओर से व्याप्त हुआ है, प्रभु के गोद में ही मानो बैठा हुआ है, यह त्रित पस्त्यासु अन्तः प्रजाओं के अन्दर नि सीदत् निषपक्ष होता है। प्रजाओं के हित के लिये उन्हीं में विचरण करनेवाला होता है । [२] (अतः) = इस प्रभु से (संगृभ्या) = ज्ञान को ग्रहण करके, यह (दमूना) = दान्त मनवाला अथवा दान के मनवाला (त्रित विशाम्) = प्रजाओं के (विधर्मणा) = विशेषरूप से धारण के हेतु से (यन्त्रैः) = नियमनों के साथ, शरीर, वाणी व मन के दमन के साथ, अर्थात् इन तीनों का नियमन करता हुआ (नॄन्) = मनुष्यों को (ईयते) = प्राप्त होता है । उसका नियमित जीवन लोगों के लिये उत्तम उदाहरण को उपस्थित करता है । [३] यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि जिसने लोकहित के कार्यों में प्रवृत्त होना ही उसे [क] 'त्रित' होना चाहिए, काम-क्रोध-लोभ से ऊपर तथा ज्ञान-कर्म-उपासना तीनों को अपनानेवाला, [ख] यह स्तभूयन् हो, शक्ति का शरीर में ही स्तम्भन करे । अशक्त शक्ति ने क्या लोकहित करना, [ग] (योनौ परिवीत:) = यह प्रभु के आश्रय से रहनेवाला हो । यह प्रभु का सान्निध्य उसे निर्भीक बनाता है। [घ] (दमूना:) = यह दान्त मनवाला व दान की वृत्तिवाला हो । लोभ लोकहित का विरोधी है। [ङ] (यन्त्रैः) = यह शरीर, वाणी व मन तीनों का नियमन करे, त्रिदण्डी हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम हित बनकर लोकहित के कार्यों में व्यापृत हों ।

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    विषय

    त्रित अग्नि का वर्णन। आचार्य गृह में ब्रह्मचारी के तुल्य आत्मा का देह में आगमन। कलाकौशल पक्ष में—अग्नि विद्युत् का वर्णन।

    भावार्थ

    (त्रितः) जिस प्रकार तीनों ऋणों से बद्ध माता पिता और गुरु इन के बीच स्थित, शिष्य (पस्त्यासु) गृहों के बीच, (स्तभूयन्) अपने बल, वीर्य और इन्द्रियों का स्तम्भन अर्थात् ब्रह्मचर्य का पालन करने की इच्छा करता हुआ (योनौ) आचार्य गृह में, योनि अर्थात् मातृगर्भ में बालक के समान (परि-वीतः) सुरक्षित, यज्ञोपवीत से युक्त वा मेखला, अजिन से उपवीत होकर (अन्तः सीदन्) विद्या-गृह या गुरुगृह में रहता और (अतः संगृभ्य) वहां से ज्ञान को भली प्रकार सञ्चय कर के, (दमूनाः) इन्द्रिय और चित्त को वश करके, (विशाम् वि-धर्मणा) प्रजाओं के बीच विशेष धर्म से (अयन्त्रैः) विशेष यन्त्रणा और नियन्त्रणों के विना ही (नॄन्) पूर्व नेता, माता पिता आदि के प्रति ले जाया जाता है, उसी प्रकार यह जीव रूप अग्नि, (पस्त्यासु) प्राणों के बीच या गृहवत् इन देहों में (स्तभूयन्) अपने को स्थिर करने की इच्छा करता हुआ, (योनौ परिवीतः सीदत्) मातृगर्भ में चारों ओर से जेर से आवृत होकर नगर या कोट आदि से घिरे राजा के समान घिर जाता है। वह चित्त वा इन्द्रिय-सामर्थ्यों को एकत्र कर (वि-धर्मणा) विशेष धारक प्रयत्न से (अयन्त्रैः) विना पीड़ा के ही (नॄन् ईयते) प्राणों को प्राप्त कर लेता है। कला कौशल पक्ष में—‘त्रित नाम’ अग्नि तीन स्थानों पर है सूर्य, विद्युत् और अग्नि। वह अपने (योनौ) मूलकारण या आश्रय रूप विद्युद्-घट आदि में सुरक्षित होकर भीतर रहता है। वह विशेष धारण-प्रयत्न से जलों से संग्रह किया जाकर (यन्त्रैः) यन्त्रों द्वारा चालक साधनों को प्राप्त करता है।

    टिप्पणी

    ‘यन्त्रैः’ इति पदपाठः सायणाभिमतः॥ ‘अयन्त्रैः’ इति पदपाठः शाकलाभिमतः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वत्सप्रिर्ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, २ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ३,५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ४, ८, १० त्रिष्टुप्। ६ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ७ विराट् त्रिष्टुप्। निचृत् त्रिष्टुप्। ९ निचृत् त्रिष्टुप्। दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (पस्त्यासु) विक्षु मनुष्यादिप्रजासु “विशो वै पस्त्याः” [श० ५।३।५।११] (त्रितः) सुखत्रयस्य विस्तारकः परमात्मा, “यस्त्रीणि शरीरात्ममनस्सम्बन्धीनि सुखानि तनोति सः” [ऋ० २।३४।१४ दयानन्दः] (परिवीतः) परिप्राप्तः (स्तभुयन्) ता विशः प्रजाः स्थिरीकुर्वन् (योनौ-अन्तः-निसीदत्) हृदयेऽन्तर्निषीदति (अतः) अत एव (विशां सङ्गृभ्य दमूनाः) मनुष्यप्रजानां कर्माणि सङ्गृह्य तत्कर्मफलाय दानमनाः सन् (विधर्मणा) स्वकीयन्यायकर्मणा “विधर्मधर्मस्य विधृत्यै” [ताण्ड्य० १५।५।३१] (नॄन्-अयन्त्रैः-ईहते) मुमुक्षून् “नरो ह वै देवविशः” [जै० १।८९] कैश्चिद् गमनसाधनैर्विना प्राप्नोति साक्षाद् भवति ॥६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, the light of three worlds, all supportive and sustaining, enveloped in light and flames, sits in the vedi in the homes as in the midst of regions of the universe, and from there, having received the homage of yajnic oblations, the generous Agni reaches the leading divinities of nature and humanity in various ways according to different laws of nature.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांच्या शारीरिक, मानसिक व आत्मिक सुखांचा विस्तार करणारा परमात्मा आहे. तो त्यांना त्यांच्या कर्मानुसार फळ देतो. मुमुक्षू उपासकांच्या हृदयात स्वत: साक्षात होतो. त्याला कोणत्या यान इत्यादीची आवश्यकता नाही. ॥६॥

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