ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 67/ मन्त्र 12
इन्द्रो॑ म॒ह्ना म॑ह॒तो अ॑र्ण॒वस्य॒ वि मू॒र्धान॑मभिनदर्बु॒दस्य॑ । अह॒न्नहि॒मरि॑णात्स॒प्त सिन्धू॑न्दे॒वैर्द्या॑वापृथिवी॒ प्राव॑तं नः ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रः॑ । म॒ह्ना । म॒ह॒तः । अ॒र्ण॒वस्य॑ । वि । मू॒र्धान॑म् । अ॒भि॒न॒त् । अ॒र्बु॒दस्य॑ । अह॑न् । अहि॑म् । अरि॑णात् । स॒प्त । सिन्धू॑न् । दे॒वैः । द्या॒वा॒पृ॒थि॒वी॒ इति॑ । प्र । अ॒व॒त॒म् । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रो मह्ना महतो अर्णवस्य वि मूर्धानमभिनदर्बुदस्य । अहन्नहिमरिणात्सप्त सिन्धून्देवैर्द्यावापृथिवी प्रावतं नः ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रः । मह्ना । महतः । अर्णवस्य । वि । मूर्धानम् । अभिनत् । अर्बुदस्य । अहन् । अहिम् । अरिणात् । सप्त । सिन्धून् । देवैः । द्यावापृथिवी इति । प्र । अवतम् । नः ॥ १०.६७.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 67; मन्त्र » 12
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 16; मन्त्र » 6
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अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 16; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमात्मा या राजा (मह्ना) अपने महत्त्व से (महतः-अर्णवस्य-अर्बुदस्य) महान् ज्ञान समुद्र या वाग्विषय के (मूर्धानं वि-अभिनत्) सर्वोपरि विराजमान वेद को विशेषरूप से उद्घाटित करता है (अहिम्-अहन्) मेघ के समान ज्ञान के आच्छादक अज्ञानान्धकार का हनन करता है (सप्त सिन्धून्-अरिणात्) सात स्यन्दमान छन्दोरूप मन्त्रों को प्रवाहित-प्रचारित करता है (देवैः-द्यावापृथिवी नः प्रावतम्) विद्वानों के साथ सभा और प्रजा हमारी रक्षा करें ॥१२॥
भावार्थ
परमात्मा अपनी महती शक्ति से विज्ञानसागर, वाग्विद्या के मूर्द्धारूप वेद को प्रकट करता है। उसका प्रचार राजा को करना चाहिए। वेद अज्ञानान्धकार को दूर करते हैं, वे सात छन्दों से युक्त प्रवाहित होते हैं, राजसभा और प्रजागण को सब प्रकार से सुखप्रद सिद्ध होते हैं ॥१२॥
विषय
सूर्य का मेघ-भेदनवत् आत्मा के देह में प्राण-मार्गों के भेदन का वर्णन। राष्ट्र में राजा-प्रजावर्गों का कर्त्तव्य। सप्त-सिन्धुओं के भेदन का रहस्य।
भावार्थ
(इन्द्रः) विद्युत् वा सूर्य वा वायु जिस प्रकार (महतः) बड़े भारी (अर्णवस्य) जल से भरे (अर्बुदस्य) मेघ के (मूर्धानं) शिर के तुल्य उच्च भाग को भी (वि अभिनत्) विशेष रूप से के छिन्न भिन्न करता है, और (अहिम् अहन्) मेघ को आघात करता है (सप्त सिन्धून् अरिणात्) सर्पणशील जलधाराओं को चला देता है, वे भूमि पर बह कर आती हैं। इसी प्रकार (इन्द्रः) आत्मा (मह्ना) अपने महान् सामर्थ्य से (महतः) महान् (अर्णवस्य) ज्ञान से पूर्ण (अर्बुदस्य) ज्ञान के देने वाले, अन्यों को ज्ञान देने वाले इस देह के (मूर्धानम्) शिर भाग को (अभिनत्) भेदन करता है और (अहिम् अहन्) अज्ञान का नाश करता है, (सप्त सिन्धून्) सात प्राणों को (अरिणात्) सञ्चालित करता है, है (द्यावा-पृथिवी) सूर्य पृथिवी के तुल्य आत्मा और देह आप दोनों (देवैः) ज्ञानप्रद प्राणों से (नः) हम जीवों की (प्र अवतम्) रक्षा करते हो। (२) राष्ट्र में द्यौ और पृथिवी, राजा प्रजा वर्ग हैं। उनकी सम्मिलित शक्तियां सब प्रजाओं की रक्षा करती हैं। वह महान् राजा हिंसक शत्रु के महान् सैन्य के शिरोनायक का नाश करता है, (अहिम्) सन्मुख आये शत्रु पर प्रहार करता और परसैन्यों को भगा देता है। (सप्त सिन्धून्) नदी-वेग से आगे बढ़ने वाले शत्रुसैन्यों को पराजित करे। इस प्रकार वे आकाश भूमि के समान आश्रय और रक्षक रूप से राजा और उसकी राज्यशासन व्यवस्था हमारी रक्षा करें। इति षोडशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अयास्य आंगिरस ऋषिः॥ बृहस्पतिर्देवता॥ छन्दः– १ विराट् त्रिष्टुप्। २–७, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। ८–१०,१२ त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्।
विषय
राजा प्रजावर्गों का कर्त्तव्य
पदार्थ
राष्ट्र में राजा और प्रजावर्ग की सम्मिलित शक्तियाँ सब प्रजाओं की रक्षा करती हैं। वह राजा, हिंसक शत्रु के सैन्य के शिरोनायक का नाश करता है, महान् (अहिम्) = सन्मुख आये पर प्रहार करता और परसैन्यों को भगा देता है। (सप्त सिन्धून) = नदीवेग से आगे बढ़नेवाले शत्रुसैन्यों को पराजित करता है। आकाश और भूमि के समान आश्रय रूप और रक्षकरूप राजा और उसकी राज्यशासनव्यवस्था हमारी रक्षा करें।
भावार्थ
भावार्थ - राजा और प्रजा मिलकर राष्ट्र को शत्रु रहित व शक्तिशाली बनायें।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमात्मा राजा वा (मह्ना) स्वकीयमहत्त्वेन (महतः-अर्णवस्य-अर्बुदस्य) ज्ञानार्णवस्य “अर्णं विज्ञानम्” [यजु० १२।४९ दयानन्दः] वाग्विषयस्य “वाग्वा अर्बुदम्” [तै० ३।८।१६।३] (मूर्धानं वि-अभिनत्) सर्वोपरि विराजमानं वेदम् “मूर्धा सर्वोपरि विराजमानः” [यजु० ३।१२ दयानन्दः] विशिष्टतया-उद्धारयति (अहिम्-अहन्) मेघमिव ज्ञानावरकम् अज्ञानान्धकारम् “अहि मेघनाम” [निघ० १।१०] हन्ति नष्टं करोति (सप्त सिन्धून्-अरिणात्) सप्तस्यन्दमानान् छन्दोरूपान् मन्त्रान् प्रवाहत “सिन्धुश्छन्दः” [श० ८।५।२।४] “रिणाति गतिकर्मा” [निघ० २।१४] (देवैः-द्यावापृथिवी नः-प्रावतम्) विद्वद्भिः सह सभाप्रजेऽस्मान् रक्षतम् ॥१२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra with his might breaks the top of the great ocean of waters in space and, breaking the dark cloud, releases the seven seas and sets the rivers aflow. May the heaven and earth protect us by the divinities.$(The metaphor has been explained also as revelation of the Vedas in seven metres at the time of the creation of humanity. The revelation breaks through the darkness of ignorance and releases the light of knowledge to radiate in seven chhandas of the Vedas.)
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा आपल्या महान शक्तीने विज्ञानसागर, वाग्विद्येचे मूर्द्धारूप वेद प्रकट करतो. त्याचा प्रचार राजाने केला पाहिजे. वेद अज्ञानांधकार दूर करतो. तो सात छंदांनी युक्त प्रवाहित होतो. राजसभा व प्रजेला सर्व प्रकारे सुखप्रद सिद्ध होतो. ॥१२॥
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