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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 26 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 26/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - ब्रह्मणस्पतिः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    यो अ॑स्मै ह॒व्यैर्घृ॒तव॑द्भि॒रवि॑ध॒त्प्र तं प्रा॒चा न॑यति॒ ब्रह्म॑ण॒स्पतिः॑। उ॒रु॒ष्यती॒मंह॑सो॒ रक्ष॑ती रि॒षों॒३॒॑होश्चि॑दस्मा उरु॒चक्रि॒रद्भु॑तः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । अ॒स्मै॒ । ह॒व्यैः । घृ॒तव॑त्ऽभिः । अवि॑धत् । प्र । तम् । प्रा॒चा । न॒य॒ति॒ । ब्रह्म॑णः । पतिः॑ । उ॒रु॒ष्यती॑म् । अंह॑सः । रक्ष॑ति । रि॒षः । अं॒होः । चित् । अ॒स्मै॒ । उ॒रु॒ऽचक्रिः॑ । अद्भु॑तः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो अस्मै हव्यैर्घृतवद्भिरविधत्प्र तं प्राचा नयति ब्रह्मणस्पतिः। उरुष्यतीमंहसो रक्षती रिषों३होश्चिदस्मा उरुचक्रिरद्भुतः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। अस्मै। हव्यैः। घृतवत्ऽभिः। अविधत्। प्र। तम्। प्राचा। नयति। ब्रह्मणः। पतिः। उरुष्यतीम्। अंहसः। रक्षति। रिषः। अंहोः। चित्। अस्मै। उरुऽचक्रिः। अद्भुतः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 26; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    य उरुचक्रिरद्भुतो ब्रह्मणस्पतिरस्मै घृतवद्भिर्हव्यैरविधत्तं प्राचा प्रणयत्यंहसो रक्षतीरिषो ह त्वास्मा अंहोरुरुष्यति स ईं सुखमाप्नोति ॥४॥

    पदार्थः

    (यः) (अस्मै) विदुषे (हव्यैः) दातुमर्हैः (घृतवद्भिः) बहुभिर्घृतादिपदार्थैः सह वर्त्तमानैः (अविधत्) (विदधाति) (प्र) (तम्) (प्राचा) प्राचीनेन विज्ञानेन (नयति) प्राप्नोति (ब्रह्मणः) धननिधेः (पतिः) पालकः (उरुष्यति ) रक्षति (ईम्) (अंहसः) पापाचरणात् (रक्षति) अत्र संहितायामिति दीर्घः (रिषः) हिंसकान् (अंहोः) पापमाचरितुः (चित्) अपि (अस्मै) (उरुचक्रिः) बहुकर्त्ता (अद्भुतः) आश्चर्यगुणकर्मस्वभावः ॥४॥

    भावार्थः

    ये यथा घृतादिपुष्टसुगन्धादिद्रव्यैर्हुतैर्वायुवृष्टिजले शुद्धे भूत्वा रोगेभ्यः पृथक्कृत्य सर्वान् सुखयतः तथोपदेशका अधर्मनिषेधपुरस्सरेण धर्मग्रहणेनात्मनः शुद्धान् संपाद्याऽविद्यादिरोगात् पृथक् कुर्वन्ति ते कृतकृत्या जायन्ते ॥४॥ अस्मिन् सूक्ते विद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति षड्विंशतितमं सूक्तं पञ्चमो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    जो (उरुचक्रिः) बहुत कर्म करता (अद्भुतः) आश्चर्यरूप गुणकर्मस्वभाववाला (ब्रह्मणः,पतिः) धन कोष का रक्षक (अस्मै) इस विद्वान् के लिये (घृतवद्भिः) बहुत घृतादि पदार्थों से युक्त (हव्यैः) देने योग्य वस्तुओं से (अविधत्) शुभ कार्य साधक पदार्थ बनाता (तम्) उसको (प्राचा) प्राचीन विज्ञान से (प्र,नयति) अच्छे प्रकार प्राप्त होता (अंहसः) पाप से (रक्षति) बचाता (रिषः) हिंसकों को मारके (अस्मै) इस विद्वान् को (अंहोः) पापाचरणी से (उरुष्यति) पृथक् रखता वह (ईम्) सब ओर से सुख को प्राप्त होता है ॥४॥

    भावार्थ

    जैसे घृत आदि पुष्ट और सुगन्धित द्रव्यों के होम से वायु और वृष्टिजल शुद्ध होके रोगों से प्राणियों को पृथक् कर सबको सुखी करते हैं वैसे उपदेशक लोग अधर्म के निषेधपूर्वक धर्म के ग्रहण से आत्माओं को शुद्ध कर अविद्यादि रोगों को दूर करते हैं, वे कृतकृत्य होते हैं ॥४॥ इस सूक्त में विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्वसूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह छब्बीसवाँ सूक्त और पाँचवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    उरुचक्रिरद्भुत:

    पदार्थ

    १. (यः) = जो (अस्मै) = इस प्रभु के लिए (घृतवद्भिः) = मलों के क्षरण व ज्ञानदीप्तिवाले (हव्यैः) = दानपूर्वक अदन से (अविधत्) = पूजा करता है । वस्तुतः प्रभु का पूजन इसी प्रकार होता है कि हम [क] मलों को अपने से दूर करें [ख] ज्ञान को दीप्त करें [ग] दानपूर्वक अदन करनेवाले हों । (तम्) = उस व्यक्ति को (ब्रह्मणस्पतिः) = ज्ञान का स्वामी प्रभु (प्राचा) = आगे बढ़ने के मार्ग से [प्र अञ्च्] (प्रणयति) = लेचलता है। २. (अद्भुत:) = वह आश्चर्यभूत प्रभु (ईम्) = निश्चय से इसे (अंहसः) = पाप से (उरुष्यति) = बचाता है। (रिषः) = हिंसक (अंहोः) = दारिद्र्य व कुटिलता से रक्षति रक्षित करता है और (चित्) = निश्चय से (अस्मै) = इसके लिए (उरुचक्रि:) = महान् उपकार को करनेवाला होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु की उपासना 'मलों के क्षरण, ज्ञानदीप्ति तथा यज्ञशेष के सेवन' से होती है । प्रभु उपासक को पाप से बचाते हैं-दारिद्र्य से रक्षित करते हैं। -सूक्त की मूल भावना यह है कि हम प्रभु का उपासन करें, प्रभु हमारा रक्षण करेंगे। प्रभु से रक्षित होकर हम दिव्यभावों को प्राप्त करेंगे ।

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    विषय

    विद्वान् और वीर तथा प्रभु का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( यः ) जो मनुष्य ( ब्रह्मणस्पतिः ) धन का उत्तम स्वामी होकर ( घृतवद्भिः हव्यैः ) घृतों से युक्त अन्नों से ( अस्मै अविधत् ) उस विद्वान् या प्रभु, की सेवा शुश्रूषा करता है वह ( ब्रह्मणस्पतिः ) महान् ज्ञान, ब्रह्माण्ड का पालक होकर ( तं ) उसको ( प्राचा ) उत्तम पद को जाने वाले या प्राचीन मार्ग में ( प्र नयति ) ले जाता है । उसको ( अंहसः ) पाप से बचाता, ( रिषः ) हिंसक पुरुष ( अहोः ) महा पातक या दारिद्र्य आदि कष्ट, से भी ( अस्मै रक्षति ) उसको बचाता है । वह परमेश्वर भी ( उरुचक्रिः ) बड़ा भारी कारीगर, (अद्भुतः) अद्भुत, आश्चर्यजनक है। इति पञ्चमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः॥ ब्रह्मणस्पतिर्देवता॥ छन्दः- १, ३ जगती । २, ४ निचृज्जगती॥ चतुर्ऋचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे घृत इत्यादी पुष्ट व सुगंधित द्रव्याच्या होमाने वायू व जल शुद्ध होऊन रोगापासून पृथक करून सर्वांना सुखी करतात तसे उपदेशक लोक अधर्माचा निषेध व धर्माचे ग्रहण करून आत्म्याला शुद्ध करून अविद्या इत्यादी रोग दूर करून कृतकृत्य होतात. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Who ever worships and honours the lord with oblations of fragrant materials seasoned with ghrta, Brahmanaspati advances him far ahead and high. He saves him from sin, protects him from the violent and safeguards him against the perpetrators of evil. Wondrous are the ways of Brahmanaspati, mighty and awful are his deeds on earth.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The previous theme of ideal persons further moves.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    A superbly active, endowed with wonderful virtues acts and nature, keeper of treasury always serves the scholars with materials like Ghee etc., and offerings. Through it, he accomplishes useful articles with his excellent knowledge and leads a noble life by giving up sins and by killing the wickeds and marauders. He also keeps away learned men from sinful acts and because of it achieves happiness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The powerful and fragrant substances like Ghee etc. when put into oblations, they purify the rain water. It keeps away all the beings from diseases and make all happy. The preachers debar people from sinful acts and ask them to become pious. Thus with their pure souls, free from all their evils, diseases, ignorances etc. Verily, they are fine people.

    Foot Notes

    (घृतवद्भिः) बहुभिर्घृतादिपदार्घेंः सह वर्तमानैः = With substances like Ghee for oblations. (ब्रह्मण:) धननिधे: = Keeper of the treasures. (अहसः) पापाचरणात् = From the sinful acts of the one who commits sins. (उरुचक्रि:) बहुकर्ता = A superbly active person.

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