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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 19/ मन्त्र 5
    ऋषिः - गाथी कौशिकः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यत्त्वा॒ होता॑रम॒नज॑न्मि॒येधे॑ निषा॒दय॑न्तो य॒जथा॑य दे॒वाः। स त्वं नो॑ अग्नेऽवि॒तेह बो॒ध्यधि॒ श्रवां॑सि धेहि नस्त॒नूषु॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । त्वा॒ । होता॑रम् । अ॒नज॑न् । मि॒येधे॑ । नि॒ऽषा॒दय॑न्तः । य॒जथा॑य । दे॒वाः । सः । त्वम् । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । अ॒वि॒ता । इ॒ह । बो॒धि॒ । अधि॑ । श्रवां॑सि । धे॒हि॒ । नः॒ । त॒नूषु॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्त्वा होतारमनजन्मियेधे निषादयन्तो यजथाय देवाः। स त्वं नो अग्नेऽवितेह बोध्यधि श्रवांसि धेहि नस्तनूषु॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। त्वा। होतारम्। अनजन्। मियेधे। निऽषादयन्तः। यजथाय। देवाः। सः। त्वम्। नः। अग्ने। अविता। इह। बोधि। अधि। श्रवांसि। धेहि। नः। तनूषु॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 19; मन्त्र » 5
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे अग्ने निषादयन्तो देवा मियेधे यजथाय यद्धोतारं त्वानजन् स त्वमिह नोऽविता सन्नस्मान्बोधि नस्तनूषु श्रवांस्यधि धेहि ॥५॥

    पदार्थः

    (यत्) यः (त्वा) त्वाम् (होतारम्) विद्यादातारम् (अनजन्) कामयेरन् (मियेधे) प्रापणीये यज्ञे (निषादयन्तः) नितरां स्थापयन्तो वा विज्ञापयन्तः (यजथाय) विद्यासङ्गमनाय (देवाः) विद्वांसः (सः) (त्वम्) (नः) अस्माकमस्मान्वा (अग्ने) विद्वन् (अविता) रक्षणादिकर्त्ता (इह) अस्मिन्ससारे (बोधि) बोधय (अधि) उत्कृष्टे (श्रवांसि) प्रियाण्यन्नानीव श्रवणानि (धेहि) स्थापय (नः) अस्माकम् (तनूषु) शरीरेषु ॥५॥

    भावार्थः

    हे विद्वांसो मनुष्या येष्वधिकारेषु युष्मान्नियोजयेयुस्तेषु यथावद्वर्तित्वा सर्वान्सभ्यान्भवन्तो निष्पादयेयुर्यया शिक्षया विद्यासभ्यताऽऽरोग्यायूंषि वर्धेरंस्तथैव सततमनुतिष्ठतेति ॥५॥ अत्राग्निविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इत्येकोनविंशं सूक्तमेकोनविंशो वर्गश्च समाप्तः॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) विद्वान् पुरुष ! (निषादयन्तः) अत्यन्त अधिकार में स्थित कराने वा जनानेवाले (देवाः) विद्वान् पुरुष (मियेधे) प्राप्त होने योग्य यज्ञ में (यजथाय) विद्या में बोध कराने के लिये (यत्) जिन (होतारम्) विद्यादाता (त्वा) आपकी (अनजन्) कामना करें (सः) वह (त्वम्) आप (इह) इस संसार में (नः) हम लोगों की (अविता) रक्षा आदि के कर्ता हुए हम लोगों को (बोधि) बोध कराइये और (नः) हम लोगों के (तनूषु) शरीरों में (श्रवांसि) प्रिय अन्नों के सदृश सम्पदाओं को (अधि) उत्तम प्रकार (धेहि) स्थित करो ॥५॥

    भावार्थ

    हे विद्वान् मनुष्यो ! जिन अधिकारों में आप लोग नियुक्त किये जायें, उन अधिकारों में उत्तम प्रकार वर्त्तमान होके सर्व जनों को श्रेष्ठ बनाइये और जिस शिक्षा से विद्या सभ्यता आरोग्यता और अवस्था बढ़े, ऐसा उपाय निरन्तर करो ॥५॥ इस सूक्त में अग्नि और विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥ यह उन्नीसवाँ सूक्त और उन्नीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    उपासक के रक्षक प्रभु

    पदार्थ

    [१] (यत्) = जब (होतारं त्वा) सब कुछ देनेवाले आपको (मियेधे) = जीवनयज्ञ में (अनजन्) = प्राप्त होते हैं [अञ्जु गतौ] तो (देवा:) = ये देववृत्ति के पुरुष (यजथाय) = उपासना के लिए (निषादयन्तः) = आपको अपने हृदयासन पर बिठाते हैं। [२] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (स त्वम्) = वे आप (इह) = इस जीवनयज्ञ में (नः) = हमारे (अविता) = रक्षक होते हुए (बोधि) = हमारा ध्यान करिए । (नः तनूषु) = हमारे शरीरों में (श्रवांसि) = ज्ञानों को (अधिधेहि) = आधिक्येन धारण करिए। इन ज्ञानों द्वारा ही वस्तुतः आप हमारा रक्षण करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ – हम प्रभु की उपासना करते हैं- प्रभु हमारा रक्षण करते हैं । हम प्रभु की उपासना करते हैं तो प्रभु हमें दान व शक्ति प्राप्ति के लिये धन देते हैं, (१) प्रभु हमारे में दिव्यगुणों का विस्तार करते हैं, (२) हमारे मनों को तेजस्वी बनाते हैं, (३) दिव्यशक्ति को देते हैं, (४) और ज्ञान द्वारा हमारा रक्षण करते हैं। इस रक्षण के परिणामस्वरूप हमारे जीवनों में सब देवताओं का वास होता है । भी इसी सम्पूर्ण सूक्त उपासक को दिव्यगुणों से पूर्ण करने की प्रेरणा दे रहा है। अग्रिम सूक्त विषय से सम्बन्धित है

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    विषय

    प्रजा को शिक्षित करने का कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे आचार्य (अग्ने) विद्वन् ! (देवाः) ज्ञानों के अभिलाषी शिष्यजन (यजथा) विद्यादान करने एवं तेरी सत्संगति लाभ करने के लिये ही (मियेधे) मेध अर्थात् ज्ञानरूप पवित्र यज्ञ में (निषादयन्तः) अपने आप तेरे अधीन समीप बसते हुए (होतारम्) विद्या के देने वाले (त्वा) तुझको (अनजन्) प्राप्त होते, तुझको प्रकाशित करते या उत्तम पद पर अभिषिक्त करते हैं। (अग्ने) ज्ञानवन् ! (सः त्वं) वह तू (इह) इस आश्रम में (नः) हमारा (अविता) रक्षक, ज्ञानदाता होकर (बोधि) हमें ज्ञानोपदेश कर और (नः तनूषु) हमारे शरीरों में (श्रवांसि) अन्नों के समान (तनूषु श्रवांसि) विस्तृत आत्माओं में या तेरे पुत्र समान शिष्य में श्रवण करने योग्य वेद ज्ञानों को (धेहि) धारण करा। (२) राजा के पक्ष में—(देवाः) विजिगीषु लोग (मियेधे) संग्राम में परस्पर संगति या मैत्रीभाव के लिये तुझ दानशील और वशीकर्त्ता को ही आसन पर बिठलाते हुए तेरा अभिषेक करें। तू हम प्रजाजनों का रक्षक होकर सब कर्त्तव्य जान। हमारे पुत्रादि को भी (श्रवांसि) ऐश्वर्य, अन्नादि धारण करा। इत्येकोनविंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुशिकपुत्रो गाथी ऋषिः॥ अग्निर्देवता। छन्दः- १ त्रिष्टुप्। २, ४, ५ विराट् त्रिष्टुप्। ३ स्वराट् पङ्क्तिः॥ स्वरः–१, २, ४, ५ धैवतः। ३ पञ्चमः॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे विद्वान माणसांनो! ज्या पदावर तुम्हाला नेमलेले आहे त्या अधिकारानुसार सर्व लोकांना सभ्य बनवा व ज्या शिक्षणाने विद्या, सभ्यता, आरोग्य, दीर्घायू वाढेल असा उपाय निरंतर करा. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Devas, noble people, consecrate you in your rightful seat for the conduct of yajna and celebrate you as the highpriest and chief performer. So you, Agni, lord of light and knowledge, leader of the people, guide and protector, lead us to light and awakening, and bless us and our descendants with food, energy and channels of progress for our body, mind and soul.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties are further told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O highly learned person ! the enlightened men who teach others, desire you in this worthy Yajna to be the giver of knowledge for uniting people with wisdom. Be our protector and instruct us. Vouchsafe the gift of glory to ourselves or to our bodies.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons ! on whatever posts you are appointed, yau should discharge your duties well and make all civilized. Expand that education far and wide so that there is development of knowledge, civilization, health and long life.

    Foot Notes

    (अनजन् ) कामयेरन् = Desire. (मियेधे ) प्रापणीये यज्ञे = In the worthy Yajna to be attained by all. ( यजथाय ) विद्यासंगमनाय। = For nniting with true knowledge,

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