ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 20/ मन्त्र 2
ऋषिः - गाथी कौशिकः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अग्ने॒ त्री ते॒ वाजि॑ना॒ त्री ष॒धस्था॑ ति॒स्रस्ते॑ जि॒ह्वा ऋ॑तजात पू॒र्वीः। ति॒स्र उ॑ ते त॒न्वो॑ दे॒ववा॑ता॒स्ताभि॑र्नः पाहि॒ गिरो॒ अप्र॑युच्छन्॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । त्री । ते॒ । वा॒जि॑ना॑ । त्री । ष॒धऽस्था॑ । ति॒स्रः । ते॒ । जि॒ह्वाः । ऋ॒त॒ऽजा॒त॒ । पू॒र्वीः । ति॒स्रः । ऊँ॒ इति॑ । ते॒ । त॒न्वः॑ । दे॒वऽवा॑ताः । ताभिः॑ । नः॒ । पा॒हि॒ । गिरः॑ । अप्र॑ऽयुच्छन् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने त्री ते वाजिना त्री षधस्था तिस्रस्ते जिह्वा ऋतजात पूर्वीः। तिस्र उ ते तन्वो देववातास्ताभिर्नः पाहि गिरो अप्रयुच्छन्॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने। त्री। ते। वाजिना। त्री। षधऽस्था। तिस्रः। ते। जिह्वाः। ऋतऽजात। पूर्वीः। तिस्रः। ऊँ इति। ते। तन्वः। देवऽवाताः। ताभिः। नः। पाहि। गिरः। अप्रऽयुच्छन्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 20; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे ऋतजाताग्ने ते तव त्री वाजिना त्री सधस्था ते तिस्रो जिह्वाः पूर्वी उ ते तिस्रस्तन्वो देववाता गिरः सन्ति ताभिरप्रयुच्छन् संस्त्वं नोऽस्मान् पाहि ॥२॥
पदार्थः
(अग्ने) पावक इव प्रकाशात्मन् विद्वन् (त्री) त्रीणि (ते) तव (वाजिना) ज्ञानगमनप्राप्तिरूपाणि (त्री) त्रीणि (सधस्था) समानस्थानानि (तिस्रः) त्रित्वसङ्ख्याताः (ते) तव (जिह्वाः) विविधा वाणीः (ऋतजात) सत्याचरणे प्रसिद्ध (पूर्वीः) प्राचीनाः (तिस्रः) त्रिविधाः (उ) वितर्के (ते) तव (तन्वः) शरीरस्य (देववाताः) ये देवैर्विद्वद्भिः सह वान्ति ते (ताभिः) पूर्वोक्ताभिः (नः) अस्माकम् (पाहि) (गिरः) सुशिक्षिता वाचः (अप्रयुच्छन्) प्रमादमकुर्वन् ॥२॥
भावार्थः
हे मनुष्या ब्रह्मचर्य्याध्ययनमननानि त्रीणि कर्माणि कृत्वा त्रिषु जन्मस्थाननामसु कृतकृत्या भवन्तु अध्यापनोपदेशाभ्यां सर्वेषां रक्षां कुर्वन्तु स्वयं प्रमादरहिता भूत्वाऽन्यानपि तादृशान् संपादयन्तु ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (ऋतजात) सत्य आचरण करने में प्रसिद्ध (अग्ने) अग्नि के सदृश प्रकाशस्वरूप विद्वान् पुरुष ! (ते) आपके (त्री) तीन (वाजिना) ज्ञान गमन और प्राप्तिरूप (त्री) तीन (सधस्था) तुल्य स्थानवाले जन्मादि (ते) आपकी (तिस्रः) तीन प्रकार वाली (जिह्वा) वाणियाँ (पूर्वीः) प्राचीन (उ) और (ते) आपके (तिस्रः) तीन (तन्वः) शरीर सम्बन्धी (देववाताः) विद्वानों के साथ संवाद करने में उपकारक (गिरः) वचन हैं उनसे (अप्रयुच्छन्) अहंकार त्यागी आप (नः) हम लोगों की (पाहि) रक्षा करो ॥२॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! आप लोग ब्रह्मचर्य्य अध्ययन और विचार से तीन कर्म करके तीन जन्म स्थान और नामों में कृतकृत्य अर्थात् जन्म सफल करो, पढ़ाने तथा उपदेश से सबकी रक्षा करो और आप स्वयं प्रमादरहित होकर अन्य लोगों को वैसा ही करो ॥२॥
विषय
तीन
पदार्थ
[१] प्रभु जीव से कहते हैं- हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव ! (ते) = तेरे (त्री वाजिना) = तीन अन्न हैं'ओषधि-वनस्पति, दूध और घृत'। इनद्वारा ही तूने अपने जीवन का पोषण करना है। (त्री) = तीन (सध-स्था) = तेरे मिलकर बैठने के स्थान हैं, 'समाधि- सुषुप्ति, मोक्षेषु- ब्रह्मरूपता' समाधि में सुषुप्ति में और मोक्ष में यह जीव प्रभु के साथ विचरता है । हे (ऋतजात) = ऋत द्वारा नियमित गति द्वारा अपना विकास करनेवाले जीव! (ते) = तेरी (तिस्रः) = तीन (पूर्वी:) = तेरा पालन व पूरण करनेवाली (जिह्वाः) = जिह्वायें हैं- वाणियाँ हैं-'ऋग्, यजुः और साम'। ऋचाओं द्वारा तू प्रकृति का ज्ञान प्राप्त करता है। यजुः द्वारा अपने यज्ञात्मक कर्त्तव्यों का ज्ञान प्राप्त करता है तथा साम द्वारा प्रभु का तू उपासन करता है । [२] (ते) = तेरी (तिस्रः तन्व:) = तीनों शरीर-'स्थूल, सूक्ष्म व कारण शरीर' (उ) = निश्चय से (देववाता:) = दिव्यगुणों को अपने में प्रेरित करनेवाले हैं अथवा देवों से प्रेरणा प्राप्त करते हैं। स्थूल शरीर अग्नि से प्रेरित होकर गतिशील होता है, सूक्ष्म शरीर वायु से प्रेरित होकर वासनाओं का गन्धन व हिंसन करनेवाला होता है, कारण शरीर आदित्य से प्रेरित होकर सूर्यसम ज्योतिवाला होता है। [३] हे जीव ! (ताभिः) = उन शरीरों से (अप्रयुच्छन्) = प्रमाद न करते हुए (नः) = हमारी (गिरः) = ज्ञानवाणियों का पाहि रक्षण कर । यदि जीव इन वेदवाणियों को अपनाएगा, तो ये वाणियाँ उसी प्रकार इसका कल्याण करेंगी, जैसे कि माता पुत्र का ।
भावार्थ
भावार्थ- हम सात्त्विक अन्नों के सेवन से प्रभु को पानेवाले बनें । ज्ञानवाणियों को अपनाएँ और तीनों शरीरों में 'अग्नि, वायु व आदित्य' आदि देवों से प्रेरणा प्राप्त करें।
विषय
राजा के तीन बल, तीन स्थान, तीन जिह्वा, तीन तनु। परमेश्वर की तीन शक्तियां।
भावार्थ
हे (अग्ने) ज्ञानवन् पुरुष ! (ते) तेरे (त्री) तीन प्रकार के (वाजिना) ज्ञान, बल और अन्न हैं। तीन प्रकार के शास्त्रकृत, परानुभववेद्य और स्वानुभव वेद्य, और तीन प्रकार का बल आत्मिक, वाचिक, शारीरिक, तीन प्रकार का अन्न खाद्य, लेह्य, चोष्य, अथवा, ओषधियों से उत्पन्न धान्य बीजादि, लता वृक्षादि से प्रसूत कन्द मूल फल पुष्पादि और पशु जीवों से उत्पन्न दूध और दूध से बने पदार्थ और (त्री सधस्था) तेरे तीन एकत्र होकर रहने के स्थान हैं। एक ब्रह्मचर्य, दूसरा गृहस्थ और तीसरा वानप्रस्थ ये तीन आश्रम हैं। चतुर्थ आश्रम में एकान्त विचरता है तब वह किसी के साथ नहीं होता। राजा की तीन ‘सधस्थ’ अर्थात् सभाभवन राजसभा, धर्मसभा, विद्वत्-सभा। (ते तिस्रः पूर्वीः जिह्वा) तेरी तीन पूर्व आचार्यों द्वारा उपदिष्ट सनातन जीभें अर्थात् बाणियां हैं। स्तुति रूप ऋग्, गान रूप साम और कर्म-निदर्शक गद्यरूप यजुः। राजा की तीन जिह्वाएं तीन वाणियें अपने शासकों के प्रति, प्रजा के प्रति और परपक्ष के प्रति। हे (ऋतजात) वेद, सत्य व्यवहार और न्याय में प्रसिद्ध पुरुष ! (ते) तेरे (तिस्रः उ तन्वः) तीन ही तनु अर्थात् देह हैं अपना देह, यश और राष्ट्र। ये तीनों देह (देववाताः) देवों द्वारा सञ्चालित हैं। स्वदेह को देव अर्थात् प्राण चलाते हैं यशःकाय को विजिगीषु सैन्य स्थिर रखते हैं और राष्ट्र देह को ऐश्वर्य के इच्छुक एवं दानशील शासक और प्रजावर्ग चलाते हैं। (ताभिः) उन तीनों देहों द्वारा तू (अप्रपुच्छन्) बिना प्रमाद के ही (नः) हमारी (गिरः) वाणियों को (पाहि) रक्षा कर। अर्थात् उन द्वारा तू हमारे साथ की हुई वाणियों अर्थात् व्यवस्थाओं और दिये वचनों को पालन कर। ‘देववाताः’ यह विशेषण वाजिन, जिह्वा, तनु और गिरः सबका समान है। अन्नादि विद्वान् पुरुषों से उपदिष्ट हों, वेद वाणियें विद्वानों से ज्ञान कराई जावें, वाणियों या व्यवस्थाओं को विद्वान् बनावें। (२) परमेश्वर के तीन बल अग्नि, जल, वायु जीवों के एकत्र वास के लिये तीन लोक पृथिवी अन्तरिक्ष, द्यौ, तीन वाणी, ऋक्, साम, यजुः, ज्ञान, गान, कर्म, तीन तनु, सत् चित् आनन्द, उनसे वह (नः गिरः) हम स्तुतिकर्ता जनों की रक्षा करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गाथी ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवता॥ छन्दः– १ विराट् त्रिष्टुप्। २ निचृत् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक त्रिष्टुप्। ४, ५ त्रिष्टुप्॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! तुम्ही ब्रह्मचर्य पालन, अध्ययन व मनन हे तीन कर्म करून जन्म, स्थान व नाम कृतकृत्य करा. अध्यापन व उपदेश करून सर्वांचे रक्षण करा. स्वतः प्रमादरहित बनून इतरांनाही तसेच करा. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, divine energy of the cosmos, three are your media: radiation, conduction and gravitation; three your seats: solar region, middle region and the earthly region (dyu loka, antariksha loka and prthivi loka); three your tongues: light, thunder and greenery; O power eternal, risen from the cosmic law of Rtam. Three are your forms: day, lightning and night, energised by nature; and three your sacred fuels: solar particles of energy, vapours and fertility of the earth. Agni, divine fire, protect and nourish our tongue and speech seriously without relent or reserve.$Note: The allegory of cosmic fire energy is beautifully explained in Chhandogya Upanishad 5, 4- 8, and in Brhadaranyaka Upanishad 6, 9-13.$Swami Dayananda also interprets Agni as the sagely scholar whose three media of existence are jnana, gamana and prapti, i.e., knowledge, expression and movement, and attainment and acquisition. We might add in the same vein that his three seats of origin are the parental home of natural birth, the teacher’s home of educational and cultural birth and the family home of professional birth. Of course, after retirement his life is lived in an open social and universal home of no dimensions and no boundaries.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The enlightened person's duties are indicated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O enlightened persons ! you purify others like the fire. O reputed for truthful conduct! there are several trios, one of them is knowledge, movement and attainment of foods; then number two is the places of birth etc.; the third one of speeches of three kinds; and then the fourth is the ancient three types of dialogues the concerning the physical soundness. They denote your prideless character. You verily protect us. There are three kinds of enteral speeches in the form of the Rig, Yajur and Sāma (music) and three earlier Ashram stages of Brahmacharya, Grihastha and Vanaprastha. There are three kinds of bodies belonging to you-they own body, your glory and your State or motherland. They are guided by the highly learned and truthful persons. With these you take protect our speeches and care incessantly, because you are alert and awakened.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! you should be gratified by doing noble deeds of Brahmacharya, (continence) study and reflection by knowledge and the nature of birth, place and name of all objects. You should protect all by teaching and preaching. Be ever alert and awake and make others likewise.
Foot Notes
(वाजिना) ज्ञानगमनप्राप्तिरूपाणि | वाज इति बल नाम (N. G. 2, 9 ) वाज इति अन्न नाम (N. G. 2, 7) वाज शब्दः । वज-गतौ इति धातोः निष्पद्यते। = Knowledge, movement and achievement. (अप्रयुचछन्) प्रमादमकुर्वन् = Alert and awake.
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