ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 25/ मन्त्र 5
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्राग्नी
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अग्ने॑ अ॒पां समि॑ध्यसे दुरो॒णे नित्यः॑ सूनो सहसो जातवेदः। स॒धस्था॑नि म॒हय॑मान ऊ॒ती॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । अ॒पाम् । सम् । इ॒ध्य॒से॒ । दु॒रो॒णे । नित्यः॑ । सू॒नो॒ इति॑ । स॒ह॒सः॒ । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ । स॒धऽस्था॑नि । म॒हय॑मानः । ऊ॒ती ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने अपां समिध्यसे दुरोणे नित्यः सूनो सहसो जातवेदः। सधस्थानि महयमान ऊती॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने। अपाम्। सम्। इध्यसे। दुरोणे। नित्यः। सूनो इति। सहसः। जातऽवेदः। सधऽस्थानि। महयमानः। ऊती॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 25; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 25; मन्त्र » 5
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अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 25; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
विद्वद्भिः परमात्मवज्जगदानन्दनीयमित्याह।
अन्वयः
हे सहसस्सूनो जातवेदोऽग्ने नित्यो महयमानो यस्त्वमूती अपां मध्ये सूर्य्य इव दुरोणे समिध्यसे तेन भवता सर्वेषां मनुष्याणां सधस्थान्यात्मानश्च विद्याधर्मविनयैः प्रकाशनीयाः ॥५॥
पदार्थः
(अग्ने) वह्निरिव वर्त्तमान (अपाम्) प्राणानां मध्ये (सम्) (इध्यसे) प्रकाश्यसे (दुरोणे) निवासस्थाने गृहे (नित्यः) स्वस्वरूपेणाऽविनाशी (सूनो) अपत्यमिव वर्त्तमान अविद्याहिंसक वा (सहसः) बलवतः (जातवेदः) जातप्रज्ञान (सधस्थानि) समानस्थानानि (मह्यमानः) पूज्यमानः (ऊती) ऊत्या रक्षणाद्यया क्रियया ॥५॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावः सच्चिदानन्दादिलक्षणः परमात्मा सर्वं जगदुत्पाद्य संरक्ष्यानन्दयति तथैवाप्तैर्विद्वद्भिस्सर्वमिदं जगदानन्दयितव्यमिति ॥५॥ अत्राग्निविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति पञ्चविंशतितमं सूक्तं स एव वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
विद्वानों को परमात्मा के तुल्य जगत् को आनन्दित करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (सहसः) बलवान् के (सूनो) पुत्र के तुल्य वर्त्तमान वा अविद्या के नाशकारक (जातवेदः) सम्पूर्ण उत्पन्न पदार्थों के ज्ञाता (अग्ने) अग्नि के सदृश तेजस्वी (नित्यः) अपने स्वरूप से नाशरहित (महयमानः) पूजने अर्थात् आदर करने योग्य ! जो आप (ऊती) रक्षण आदि क्रिया से (अपाम्) प्राणों के मध्य में सूर्य के सदृश (दुरोणे) रहने के स्थान गृह में (सम्) (इध्यसे) प्रकाशित होते उन आपको चाहिये कि सम्पूर्ण मनुष्यों के (सधस्थानि) तुल्य स्थानों और आत्माओं को विद्या धर्म्म विनय से प्रकाशित करें ॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त स्वभावयुक्त और सच्चित् आनन्द आदि लक्षण विशिष्ट परमात्मा सम्पूर्ण जगत् को उत्पन्न और रक्षित कर आनन्दित करता है, वैसे ही सत्यवक्ता विद्वान् पुरुषों को चाहिये कि सम्पूर्ण इस संसार को आनन्दयुक्त करें ॥५॥ इस सूक्त में अग्नि और विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह पच्चीसवाँ सूक्त और पच्चीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
उन्नति, शक्ति व ज्ञान
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = अग्रणी (सहसः सूनो) = बल के पुञ्ज [पुत्र पुतले] (जातवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो ! आप (अपां दुरोणे) = कर्मों के घर में अथवा रेतःकणों से सम्बद्ध गृह में (समिध्यसे) = दीप्त होते हैं । वैसे तो आप (नित्यः) = [नि=In] सब के अन्दर होनेवाले हैं, परन्तु आपका दर्शन उसी व्यक्ति को होता है जो कि कर्मशील है, तथा रेतः कणों का शरीर में ही रक्षण करनेवाला है। [२] आप (ऊती) = रक्षण द्वारा (सधस्थानि) = आप के साथ मिलकर बैठने के स्थानभूत हृदय देशों को (महयमानः) = महिमायुक्त करते हैं। ये हृदय देश आपके उपासन से दीप्त हो उठते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- कर्मशील व सोमरक्षण करनेवाले बनकर हम प्रभु का दर्शन करते हैं। प्रभु हमें उन्नत करते हैं, शक्ति प्राप्त कराते हैं व प्रकाश हमारे ज्ञान को बढ़ाते हैं । सम्पूर्ण सूक्त इस भाव को व्यक्त कर रहा है कि प्रभु उपासक को बल व प्रकाश प्राप्त कराके उन्नतिपथ पर ले चलते हैं। अगले सूक्त में प्रभु को 'वैश्वानर' रूप में उपासित करते हैं -
विषय
अध्यात्म में आत्मा।
भावार्थ
हे (अग्ने) ज्ञानवन् ! हे तेजस्विन् ! हे (सहसः सूनो) बलवान् पुरुष के पुत्र के समान ! एवं बल के उत्पादक, सैन्य के प्रेरक ! नेतः ! हे (जातवेदः) प्रज्ञान और ऐश्वर्य के स्वामिन् ! (अपां दुरोणे) तू जलों के बीच सूर्य या विद्युत् के समान (अपां दुरोणे) आप्त प्रजाजनों के गृह वा राष्ट्र के बीच में (नित्यः) सदा वर्त्तमान रहकर भी (सधस्थानि) एकत्र होकर रहने योग्य गृहों और लोकों को अपनी (ऊती) रक्षा और ज्ञान से (महयमानः) अलंकृत करता हुआ (समिध्यसे) अच्छी प्रकार प्रकाशित होता है। सूर्य, विद्युत् दोनों पृथिवी के स्थानों को (ऊती) अन्न से समृद्ध करते हैं। विद्वान् ज्ञान से, वीर पुरुष रक्षा से। (२) अध्यात्म में—(अपां दुरोणे) प्राणों के गृह इस देह में यह (नित्यः) अविनाशी आत्मा नाना देह के स्थानों को, केन्द्रों को विशेष रूप से अधिष्ठित कर विराजता है इसी प्रकार नित्य परमेश्वर प्रकृति के परमाणुओं वां लोकों के बीच में। इति पञ्चविंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ १, २, ३, ४ अग्निः। ५ इन्द्राग्नी देवते॥ छन्दः- ९, निचृद्नुष्टुप्। २ अनुष्टुप्। ३, ४, ५ भुरिक् त्रिष्टुप्॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा शुद्ध, बुद्ध, मुक्त स्वभावयुक्त व सच्चिदानंद इत्यादी लक्षणविशिष्ट परमात्मा संपूर्ण जगाला उत्पन्न करून व रक्षण करून आनंदित करतो, तसेच सत्यवक्ते असणाऱ्या विद्वान पुरुषांनी संपूर्ण जगाला आनंदित करावे. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, lord of light, fire and power, child of omnipotence, destroyer of darkness, all wise and knower of things in existence, immortal immanent spirit, you shine and blaze in the midst of the oceans of space and currents of pranic energies adding light and grandeur to the homes of earth’s children.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The enlightened persons should make the world happy as dictated by God.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O son or pupil or of the mighty learned person ! you destroy ignorance. You shine in the Pranas like the sun in the sky with your protective power, are immortal (by the nature of your soul) and respected by all. You should illuminate the homes and souls of all by true knowledge, Dharma (righteousness) and humility.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
God is Eternal and ever-pure, ever-existent, possesses the consciousness and Bliss. He creates, protects and gladdens the whole world. In the same way, absolutely truthful and enlightened persons should make all the world happy.
Translator's Notes
(अपाम् ) प्राणानां मध्ये | आपो वै प्राणः (भेषजम् ) (Stph. 3, 8, 2, 4) जैमिनियोपनिषद् ब्रह्मणे 3, 10,9) = Of the Prānas (vital airs). (सूनो ) अपत्यमिव वर्तमान अविद्याहिन्सको वा। = Pupil dear like the son or destroyer of ignorance.
Foot Notes
(अपाम् ) प्राणानां मध्ये | आपो वै प्राणः (भेषजम् ) (Stph. 3, 8, 2, 4) जैमिनियोपनिषद् ब्रह्मणे 3, 10,9) = Of the Pranas (vital airs). (सूनो ) अपत्यमिव वर्तमान अविद्याहिन्सको वा। = Pupil dear like the son or destroyer of ignorance.
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