ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 26/ मन्त्र 8
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - अग्निरात्मा वा
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
त्रि॒भिः प॒वित्रै॒रपु॑पो॒द्ध्य१॒॑र्कं हृ॒दा म॒तिं ज्योति॒रनु॑ प्रजा॒नन्। वर्षि॑ष्ठं॒ रत्न॑मकृत स्व॒धाभि॒रादिद्द्यावा॑पृथि॒वी पर्य॑पश्यत्॥
स्वर सहित पद पाठत्रि॒ऽभिः । प॒वित्रैः॑ । अपु॑पोत् । हि । अ॒र्कम् । हृ॒दा । म॒तिम् । ज्योतिः॑ । अनु॑ । प्र॒ऽजा॒नन् । वर्षि॑ष्ठम् । रत्न॑म् । अ॒कृ॒त॒ । स्व॒धाभिः॑ । आत् । इत् । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । परि॑ । अ॒प॒श्य॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रिभिः पवित्रैरपुपोद्ध्य१र्कं हृदा मतिं ज्योतिरनु प्रजानन्। वर्षिष्ठं रत्नमकृत स्वधाभिरादिद्द्यावापृथिवी पर्यपश्यत्॥
स्वर रहित पद पाठत्रिऽभिः। पवित्रैः। अपुपोत्। हि। अर्कम्। हृदा। मतिम्। ज्योतिः। अनु। प्रऽजानन्। वर्षिष्ठम्। रत्नम्। अकृत। स्वधाभिः। आत्। इत्। द्यावापृथिवी इति। परि। अपश्यत्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 26; मन्त्र » 8
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ के शुद्धा जना इत्याह।
अन्वयः
हे मनुष्या यस्त्रिभिः पवित्रैर्हृदा अर्कमपुपोद्धि ज्योतिर्मतिमनु प्रजानन्स्वधाभिर्वर्षिष्ठं रत्नमकृत स आदिद् द्यावापृथिवी पर्य्यपश्यत् तमेव यूयं सेवध्वम् ॥८॥
पदार्थः
(त्रिभिः) शरीरवाङ्यनोभिः (पवित्रैः) (अपुपोत्) पवित्रं कुर्य्यात् (हि) (अर्कम्) सुसंस्कृतमन्नम्। अर्क इत्यन्नना०। निघं० २। ७। (हृदा) हृदयेन (मतिम्) प्रज्ञाम् (ज्योतिः) प्रकाशम् (अनु) (प्रजानन्) प्रकर्षेण बुद्ध्यमानः (वर्षिष्ठम्) अतिशयेन वृद्धम् (रत्नम्) रमणीयं धनम् (अकृत) कुर्य्यात् (स्वधाभिः) अन्नादिभिः (आत्) (इत्) एव (द्यावापृथिवी) प्रकाशान्तरिक्षे (परि) सर्वतः (अपश्यत्) पश्येत् ॥८॥
भावार्थः
त एव शुद्धा मनुष्या ये पवित्रां प्रज्ञां प्राप्यान्यान् मनुष्यान् विद्याविनयाभ्यां सन्तोष्य श्रियाद्युन्नतिं संसाध्नुयुः ॥८॥
हिन्दी (4)
विषय
अब शुद्ध मनुष्य कौन हैं? इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (त्रिभिः) शरीर वाणी और मन से (पवित्रैः) पवित्र करने में कारण तेजों और (हृदा) हृदय से (अर्कम्) उत्तम प्रकार संस्कार किये अन्न को (अपुपोत्) पवित्र करे (हि) जिससे (ज्योतिः) प्रकाश तथा (मतिम्) बुद्धि को (अनु) (प्रजानन्) अनुकूल जानता हुआ (स्वधाभिः) अन्न आदिकों से (वर्षिष्ठम्) अतिशय वृद्धियुक्त (रत्नम्) सुन्दर धन को (अकृत) करे वह (आत्) (इत्) अनन्तर ही (द्यावापृथिवी) प्रकाश और अन्तरिक्ष को (परि) सब प्रकार (अपश्यत्) देखे ॥८॥
भावार्थ
वे ही शुद्ध मनुष्य हैं, जो कि उत्तम बुद्धि को प्राप्त होकर अन्य मनुष्यों को विद्या और विनयों से सन्तुष्ट करके लक्ष्मी आदि की उन्नति सिद्ध करें ॥८॥
विषय
आत्मोद्धार के साधन
शब्दार्थ
(हृदा) हृदय से (मतिम्) ज्ञान तथा (ज्योति:) प्रकाश को (अनुप्रजानन्) उत्तमतापूर्वक प्रकट करता हुआ (त्रिभिः) तीन (पवित्रैः) पवित्रकारक साधनों से (हि) निस्सन्देह (अर्कम्) पूजनीय आत्मा को (अपुपोत्) निरन्तर पवित्र करता है । (स्वधाभि:) अपनी शक्तियो से (वर्षिष्ठम्) सर्वश्रेष्ठ (रत्नम्) आत्मरूपी रत्न को (अकृत) बनाता है (आत् इत्) तत्पश्चात् वह (द्यावापृथिवी) समस्त संसार को (परि अपश्यत्) तिरस्कारपूर्ण दृष्टि से देखता है ।
भावार्थ
प्रत्येक मनुष्य को अपने आत्मा का उद्धार करना ही चाहिए । इस मन्त्र में आत्मोद्धार के साधनों का वर्णन है- १. मनुष्य अपने हृदय से ज्ञान-ज्योति को उत्तमता से प्रकट करे । ज्ञान से कर्म होता है और ज्ञानपूर्वक कर्म करने का नाम ही उपासना है। २. ज्ञान, कर्म और उपासना - इन तीन साधनों से आत्मा पवित्र होता है । ३. यह आत्मारूपी रत्न ऐसे ही पवित्र नहीं हो जाता, इस रत्न को बनाने के लिए स्वधा = शक्ति लगानी पड़ती है। पुरुषार्थ करना पड़ता है, जी-जान से जुटना पड़ता है । ४. जब मनुष्य इस आत्मारूपी रत्न को पा लेता है तब इसके समक्ष उसे संसार के सभी पदार्थ हेय और तुच्छ दीखते हैं जैसे हीरा पानेवाले को मिट्टी का ढेला हेय लगता है । आओ ! इस आत्मारूपी रत्न को पाने का प्रयत्न करें ।
विषय
'श्रद्धा, मनन व ज्ञान' से प्रभुदर्शन
पदार्थ
[१] गतमन्त्र का उपासक (त्रिभिः पवित्रैः) = पवित्र शरीर, पवित्र मन व पवित्र बुद्धि द्वारा (हि) = निश्चय से (अपुपोत्) = अपने को पूर्ण पवित्र बनाता है। शरीर को रोगों से आक्रान्त नहीं होने देता, मन को वासनाओं से वासित नहीं होने देता तथा मस्तिष्क को कुविचारों से मलिन नहीं करता। (हि) = निश्चय से (हृदा) = हृदय से हृदयस्थ श्रद्धा से (मतिम्) = मनन व (ज्योतिः) = ज्ञानप्रकाश के (अनु) = अनुसार (अर्कम्) = उस उपासनीय परमात्मा को (प्रजानन्) = यह जानता है। [२] परमात्मा को जानता हुआ यह (वर्षिष्ठम्) = अत्यन्त उत्कृष्ट (रत्नम्) = रमणीय धातुओं को (अकृतः) = शरीर में उत्पन्न करता है इसका आहार-विहार इतना उत्तम होता है कि उससे इसके शरीर में सात्त्विक ही रस रुधिर आदि धातुओं का निर्माण होता है। (आत् इत्) = अब यह शीघ्र ही (स्वधाभिः) = आत्मधारण शक्तियों से (द्यावापृथिवीः) = मस्तिष्क व शरीर का (पर्यपश्यत्) = पूरा ध्यान करता है [look after] । शरीर को दृढ़ बनाता है और मस्तिष्क को ज्ञान से उज्ज्वल करनेवाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ- उपासक 'शरीर, मन व बुद्धि' तीनों को पवित्र बनाता है। श्रद्धा, मनन व ज्ञान से परमात्मा को जानने का प्रयत्न करता है। शरीर में युक्ताहार-विहार से रमणीय धातुओं को उत्पन्न करता है और शरीर को दृढ़ तथा मस्तिष्क को ज्ञान से उज्ज्वल बनाता है।
विषय
तीन पावन साधनों से पवित्रः होकर ब्रह्म की साधना
भावार्थ
(त्रिभिः पवित्रः अर्क) जिस प्रकार तीन प्रकार के पवित्र करने के साधन प्रकाश, वायु और छाज से अन्न को पवित्र किया जाता है उसी प्रकार विद्वान् मनुष्य (अर्कं) अर्चना वा ज्ञान करने योग्य अपने आत्मा को भी (त्रिभिः) तीन (पवित्रैः) पवित्र करने वाले साधनों, पवित्र आचरण, पवित्र वचन और पवित्र विचार वा मनन इनसे (अपुपोत् हि) अवश्य पवित्र करे। वह (प्रजानन्) उत्कृष्ट ज्ञान से युक्त होकर (ज्योतिः अनु) परम ज्योतिःस्वरूप अर्थात् प्रकाशस्वरूप आत्मा के अधीन रहने वाली (मतिं) मननशील बुद्धि या वाणी को या (ज्योतिः अनु मतिम्) ज्ञानप्रकाश के अनुकूल प्रज्ञा को भी (हृदा) अन्तःकरण, हृदय के सहित (अपुपोत् हि) पवित्र करले। (स्वधाभिः वर्षिष्ठं रत्नम् अकृत) जिस प्रकार जलों से ही प्रचुर वृष्टि से युक्त रमण करने योग्य रमणीय दृश्य हो जाता है और जिस प्रकार (स्वधाभिः वर्षिष्ठं रत्नम् अकृत) अन्नों द्वारा वृद्धियुक्त चिरकालिक रमणणीय जीवन का प्रचुर सुखदायक बल वीर्य उत्पन्न किया जाता है। उसी प्रकार (स्वधाभिः) आत्मा की धारण-पोषणकारिणी शक्तियों द्वारा (रत्नम्) उस अतिशय रमण करने योग्य (वर्षिष्ठम्) चिरकाल में विद्यमान पुराण पुरुष ब्रह्म तत्त्व को (अकृत) साधे, (आत् इत्) उसके अनन्तर ही वह (द्यावा पृथिवी) सूर्य पृथिवी के समान परस्पर सम्बद्ध, परमेश्वर और जीव, प्रकाशमान् और प्रकाश रहित, ज्ञानी अज्ञानी और उपकारक और उपकार्य ब्रह्म और प्रकृति इनको (परि अपश्यत्) सब प्रकार से पृथक् २ साक्षात् करता है। (२) तीन पवनों से, अन्न को प्रकाश से, हृदय को ज्ञान से अपने धारक बलों से प्रचुर ऐश्वर्य को पवित्र करे और फिर हृदय से, ज्ञान से आकाश और पृथिवी के सब पदार्थों का ज्ञान करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्रः। ७ आत्मा ऋषिः॥ १-३ वैश्वानरः। ४-६ मरुतः। ७, ८ अग्निरात्मा वा। ९ विश्वामित्रोपाध्यायो देवता॥ छन्दः- १—६ जगती। ७—९ त्रिष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
तीच माणसे शुद्ध असतात. जी उत्तम बुद्धी प्राप्त करून इतर माणसांना विद्या व विनय यांनी संतुष्ट करून लक्ष्मीची वाढ करतात. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
With threefold cleansing of body, mind and soul, through the purity of thought, word and deed, by inculcation of right knowledge (jnana), right conduct (karma) and right prayer and meditation (upasana), I purify the holy light of the self, thereby lighting the flame of the spirit in the intelligence with honesty and sincerity of the heart, and with these foods and fortifications of the spirit, I redeem the diamond purity and generosity of the soul, and then watch the immensity of heaven and earth participating in the Infinity of the Supreme Self.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Who are pure men is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! you must always serve a noble person who is pure in body, speech and mind and his heart is the refined, It eats well-cooked food. Such a person knows well the light and good intellect, acquires abundant wealth with food and other things. He visualizes well the heaven and firmament i.e. knows their real nature.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
A person who is pure in body, speech and mind, and takes pure food (no meat eggs etc.), he acquires wealth and learns about the real heaven after death.
Foot Notes
(त्रिभि:) शरीरवाङनोभिः। = With body, speech and mind. (अर्कम्) सुसंस्कृतमन्नम् । अर्क इत्यन्ननाम । (N. G. 2, 7) = Well-cooked food. (स्वधाभि:) अन्नादिभिः । स्वधा इत्यन्ननाम । (N. G. 2, 7) = With food and other things.
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