ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 57/ मन्त्र 2
ऋषिः - विश्वामित्रः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इन्द्रः॒ सु पू॒षा वृष॑णा सु॒हस्ता॑ दि॒वो न प्री॒ताः श॑श॒यं दु॑दुह्रे। विश्वे॒ यद॑स्यां र॒णय॑न्त दे॒वाः प्र वोऽत्र॑ वसवः सु॒म्नम॑श्याम्॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रः॑ । सु । पू॒षा । वृष॑णा । सु॒ऽहस्ता॑ । दि॒वः । न । प्री॒ताः । श॒श॒यम् । दु॒दु॒ह्रे॒ । विश्वे॑ । यत् । अ॒स्या॒म् । र॒णय॑न्त । दे॒वाः । प्र । वः॒ । अत्र॑ । व॒स॒वः॒ । सु॒म्नम् । अ॒श्या॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रः सु पूषा वृषणा सुहस्ता दिवो न प्रीताः शशयं दुदुह्रे। विश्वे यदस्यां रणयन्त देवाः प्र वोऽत्र वसवः सुम्नमश्याम्॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रः। सु। पूषा। वृषणा। सुऽहस्ता। दिवः। न। प्रीताः। शशयम्। दुदुह्रे। विश्वे। यत्। अस्याम्। रणयन्त। देवाः। प्र। वः। अत्र। वसवः। सुम्नम्। अश्याम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 57; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ बुद्धिविषयमाह।
अन्वयः
हे वसवो यद्यत्र विश्वे देवा अस्यां शशयमिव सुम्नं प्रदुदुह्रे रणयन्त ते दिवो न प्रीता जायन्ते ये सुहस्तैवं याविन्द्रः पूषा वृषणा दुदुह्रे ते सुप्रीता भवन्ति यथा सत्सङ्गेन वस्सकाशात्सुम्नमहमश्यां तथा यूयं प्रयतत ॥२॥
पदार्थः
(इन्द्रः) विद्युत् (सु) (पूषा) पोषकः प्राणः (वृषणा) बलकरौ (सुहस्ता) शोभनौ हस्तौ ययोस्तद्वत् (दिवः) प्रकाशाः किरणाः कमनीयाः (न) इव (प्रीताः) प्रसन्नाः (शशयम्) खशयं मेघम्। अत्र वर्णव्यत्ययेन खस्य शः। (दुदुह्रे) दुहन्ति (विश्वे) सर्वे (यत्) ये (अस्याम्) प्रज्ञायुक्तायां वाचि (रणयन्त) रणः संग्राम इवाचरन्ति (देवाः) विद्वांसः (प्र) (वः) युष्माकम् (अत्र) अस्मिन् व्यवहारे (वसवः) विद्यां जिज्ञासवः (सुम्नम्) सुखम् (अश्याम्) प्राप्नुयाम् ॥२॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये शरीरात्मबलं कामयन्ते त एव विद्वांसो भूत्वा शास्त्रेश्वरबोधान्वितायां वाचि रममाणाः सन्तो विद्युदादिविद्यां प्रसिद्धीकृत्य विजयमाना भूत्वाऽतुलमानन्दं प्राप्याऽन्यान्पूर्णाऽऽनन्दाञ्जनयन्ति त एव जगत्पूज्याः सर्वगुरवो भवन्ति ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
अब बुद्धिविषय को अगले मंत्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे (वसवः) विद्या की जिज्ञासा करनेवाले (यत्) जो (अत्र) इस व्यवहार में (विश्वे) सम्पूर्ण (देवाः) विद्वान् लोग ! (अस्याम्) बुद्धि से युक्त वाणी में (शशयम्) मेघ के सदृश (सुम्नम्) सुख को (प्र, दुदुह्रे) दुहते हैं और (रणयन्त) संग्राम के सदृश आचरण करते हैं वे (दिवः) कामना करने योग्य प्रकाशकिरणों के (न) सदृश (प्रीताः) प्रसन्न होते हैं और जो (सुहस्ता) सुन्दर हाथोंवाले दो पुरुषों के समान जो (इन्द्रः) बिजुली और (पूषा) पुष्टिकर्त्ता प्राण (वृषणा) बल करनेवाले हैं उनको पूरा करते हैं वे (सु, प्रीताः) उत्तम प्रकार प्रसन्न होते हैं और जैसे सत्सङ्ग से (वः) तुम लोगों के समीप से (सुम्नम्) सुख को मैं (अश्याम्) प्राप्त होऊँ, वैसे आप लोग प्रयत्न करिये ॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमावाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो शरीर और आत्मा के बल की कामना करते हैं, वे ही विद्वान् हो शास्त्र और ईश्वर के बोध से युक्त वाणी में रमते हुए बिजुली आदि की विद्या को प्रसिद्ध कर और विजयमान हो अतुल आनन्द को पाय अन्य जनों को पूर्ण आनन्द उत्पन्न करते, वे ही जगत् के पूज्य सबके गुरु होते हैं ॥२॥
विषय
वेदवाणी में सब दिव्यगुणों का विकास
पदार्थ
[१] (इन्द्रः) = इन्द्रियों का विजेता और अतएव (सु-पूषा) = अपना उत्तम पोषण करनेवाला, (सुहस्ता) = उत्तम हाथोंवाले-सदा उत्तम कार्यों को करनेवाले, (वृषणा) = शक्तिशाली प्राणापान [अश्विना] अर्थात् प्राणापान की साधना करनेवाले पुरुष, (दिवः न) = [दीव्यन्ति इति] ज्ञान से दीप्त होनेवालों के समान (प्रीताः) = (मनः) = प्रसाद का अनुभव करनेवाले लोग (शशयम्) = हृदयगुहा में शयन करनेवाले इस ज्ञानदुग्ध को (दुदुहे) = दोहते हैं । वेदवाणी का दोहन इन्द्र आदि ही कर पाते हैं। वेद-ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमें 'इन्द्रत्व' आदि को अपने जीवन में उत्पन्न करना है। [२] (यत्) = चूँकि (विश्वेदेवाः) = सब देव (अस्याम्) = इस वेदवाणी में रणयन्त रमण करते हैं, अर्थात् चूँकि इस वेदवाणी के होने पर सब दिव्यगुणों का विकास होता है, इसलिए हे (वसवः) = उत्तम निवासवाले देवो! मैं भी (अत्र) = यहाँ इस जीवन में (वः) = आपके (सुम्नम्) = सुख को (अश्याम्) = प्राप्त करूँ । वेदवाणी की प्राप्ति से दिव्यगुणों के विकास द्वारा, मेरा जीवन सुखी हो ।
भावार्थ
भावार्थ- जितेन्द्रिय बनकर मैं वेदज्ञान प्राप्त करूँ। इससे मेरे जीवन में दिव्यगुणों का विकास हो और परिणामतः मेरा जीवन उत्तम व सुखी हो ।
विषय
इन्द्र पूषा आदि विद्वानों और राष्ट्रशासकों का वर्णन।
भावार्थ
(विश्वे देवाः) समस्त प्रकाशमान किरण जिस प्रकार (अस्यां) इस पृथिवी पर (रणयन्त) रमण या क्रीड़ा करते हैं वे (दिवः न) सूर्य प्रकाशों के समान (प्रीताः) प्रिय, एवं जल द्वारा आकाश को पूर्ण करने वाले होकर ही (शशयं) आकाश में व्यापक मेघ को उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार (इन्द्रः) सूर्य, विद्युत् और (पूषा) सर्व पोषक पृथिवी (वृषणा) जल वृष्टि करने वाले और (सुहस्ता) सुखपूर्वक, एक दूसरे से प्रसन्न हो (शशयं दुदुह्रे) मेघ और अन्न को उत्पन्न करते हैं। (वसवः) सब प्राणिगण उन किरणों का सुख प्राप्त करते हैं इसी प्रकार (यत् देवाः) जो विद्वान् पुरुष (अस्यां) इस वाणी में (रणयन्त) रमण करते हैं वे (दिवः न प्रीताः) सूर्य के प्रकाशों के समान प्रसन्न होकर वा (दिवः न) सूर्य के समान तेजस्वी गुरु से (प्रीताः) ज्ञान तृप्त होकर (शशयं सुम्नम् सु दुदुह्रे) अन्तर्हृदयाकाश में व्याप्त सुख को प्रदान करते हैं। और (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् ज्ञानवान् विद्वान् वा परमेवर और (पूषा) सर्व पोषक, आचार्य दोनों (वृषणा) ज्ञान के वृष्टि करने वाले (सुहस्ता) उत्तम दानशील हाथों से युक्त वा सुप्रसन्न होकर (शशयं सुम्नं दुदुह्रे) सूर्य पृथिवी के समान ही अन्तर्व्याप्त सुख उत्पन्न करते हैं। और हे (वसवः) आचार्य के अधीन निवास करने वाले विद्वान् जनों और घरों में बसे गृहस्थ जनो ! (वः) आप लोगों के (सुम्नम्) उत्तम मननयोग्य ज्ञान और सुख को मैं (अत्र) यहां (अश्याम्) उपभोग करूं। (२) राष्ट्रपक्ष में—इन्द्र राजा, पूषा पृथिवी निवासी प्रजागण दोनों ‘सुहस्त’ हैं एक युद्ध विद्या में, दूसरे कृषि व्यापार आदि में और कर आदि देने में कुशल वे दोनों और ‘वसु’ अर्थात् राष्ट्र को बसाने, उसमें बसने वाले सभी सुख, समृद्धि पूर्ण करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ विश्वे देवा देवताः॥ छन्द:- १, ३, ४ त्रिष्टुप् । २, ५, ६ निचृत्त्रिष्टुप॥ धैवतः स्वरः॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे शरीर व आत्मबलाची कामना करतात तेच विद्वान बनून शास्त्र व ईश्वराच्या बोधाने युक्त वाणीत रमून, विद्युत विद्या प्रसिद्ध करून विजयी होतात व अतुल आनंद प्राप्त करून इतरांना पूर्ण आनंद देतात तेच जगाचे पूजनीय गुरू असतात. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra and Pusha, the power and the pranic energy of divine nature, generous and inexhaustible with open hands like happy friends, shower the gifts of the light of heaven and reveal it in the language of divinity. Brilliancies of the world rejoice in the acquisition of this light of knowledge and language. O Vasus, scholars of the first order, I wish and pray I may benefit from the pleasure and peace of your gifts of light, knowledge and the language of divinity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
About the intellect is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O desirous of acquiring knowledge ! all learned persons take delight in this noble speech endowed with intellect like the cloud. They fight against all evils, and enjoy happiness like the rays (light) of the sun. Those who have good (artistic) hands, uphold all like the nourishing Prana (vital energy) and energy and are mighty. Milk this noble speech which is like a cow, and become full of happiness. As I get delight by association with you, so you should also attempt to do.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The persons desirous to get physical and spiritual strength, are delighted in the use of the speech endowed with the knowledge of the Shastras and of God. They instruct others regarding the science and technology of the energy and other sciences, are victorious, enjoy themselves as well as make others full of perfect Bliss. They become world teachers and worthy of reverence.
Foot Notes
(शशयम् ) खशयं मेघम् । अन्न वर्णव्यत्ययेन खस्य श:। = Nourishing Prana. (पूषा) पोषकः प्राणः । अयं वे पूषा यो यं (वातः) पवते एष हीदं सर्वं पुष्यति (Stph 14, 2, 1, 9 ) = Light and charming rays of the sun.
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