ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 29/ मन्त्र 3
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
श्रा॒वयेद॑स्य॒ कर्णा॑ वाज॒यध्यै॒ जुष्टा॒मनु॒ प्र दिशं॑ मन्द॒यध्यै॑। उ॒द्वा॒वृ॒षा॒णो राध॑से॒ तुवि॑ष्मा॒न्कर॑न्न॒ इन्द्रः॑ सुती॒र्थाभ॑यं च ॥३॥
स्वर सहित पद पाठश्रा॒वय॑ । इत् । अ॒स्य॒ । कर्णा॑ । वा॒ज॒यध्यै॑ । जुष्टा॑म् । अनु॑ । प्र । दिश॑म् । म॒न्द॒यध्यै॑ । उ॒त्ऽव॒वृ॒षा॒णः । राध॑से । तुवि॑ष्मान् । कर॑त् । नः॒ । इन्द्रः॑ । सु॒ऽती॒र्था । अभ॑यम् । च॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
श्रावयेदस्य कर्णा वाजयध्यै जुष्टामनु प्र दिशं मन्दयध्यै। उद्वावृषाणो राधसे तुविष्मान्करन्न इन्द्रः सुतीर्थाभयं च ॥३॥
स्वर रहित पद पाठश्रवय। इत्। अस्य। कर्णा। वाजयध्यै। जुष्टाम्। अनु। प्र। दिशम्। मन्दयध्यै। उत्ऽववृषाणः। राधसे। तुविष्मान्। करत्। नः। इन्द्रः। सुऽतीर्था। अभयम्। च ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 29; मन्त्र » 3
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे सत्योपदेशकाचार्योपदेशक ! त्वमस्य कर्णा वाजयध्यै जुष्टामनु श्रावय येनाऽयं दिशं मन्दयध्यै उद्वावृषाणस्तुविष्मानिन्द्रो राधसे नः सुतीर्थाभयञ्चेदेव प्र करत् ॥३॥
पदार्थः
(श्रावय) (इत्) एव (अस्य) (कर्णा) श्रोत्रौ (वाजयध्यै) विज्ञापयितुम् (जुष्टाम्) सद्भी राजभिस्सेवितां नीतिम् (अनु) (प्र) (दिशम्) (मन्दयध्यै) आनन्दयितुम् (उद्वावृषाणः) उत्कृष्टतया बलिष्ठः सन् (राधसे) धनाय (तुविष्मान्) प्रशंसितबलः (करत्) कुर्यात् (नः) अस्माकम् (इन्द्रः) सत्यन्यायधर्त्ता (सुतीर्था) शोभनानि तीर्थानि दुःखतारकाण्याचार्यब्रह्मचर्यसत्यभाषणादीनि येषान्तान् (अभयम्) भयरहितम् (च) ॥३॥
भावार्थः
यस्य राज्ञः सत्यन्यायोपदेशका धार्मिका विद्वांसः स्युस्स विद्याविनयादिशुभैर्गुणैः सहितः सन् सर्वानभयान् कृत्वा सततं प्रसादयितुं शक्नुयात् ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे सत्य के उपदेशक करनेवाले आचार्य्य और उपदेशक ! आप (अस्य) इसके (कर्णा) कानों को (वाजयध्यै) जनाने के लिये (जुष्टाम्) श्रेष्ठ राजाओं से सेवन की गई नीति को (अनु, श्रावय) अनुकूल सुनाइये जिससे यह (दिशम्) दिशा को (मन्दयध्यै) प्रसन्न करने को (उद्वावृषाणः) अति बलिष्ठ (तुविष्मान्) प्रशंसित बलयुक्त (इन्द्रः) सत्य-न्याय को धारण करनेवाला (राधसे) धन के लिये (नः) हमारे (सुतीर्था) सुन्दर दुःखों को दूर करनेवाले आचार्य्य, ब्रह्मचर्य्य और सत्यभाषण आदि जिनमें उनको (च) और (अभयम्) भय रहित को (इत्) ही (प्र, करत्) करे ॥३॥
भावार्थ
जिस राजा के सत्य और न्याय के उपदेश करनेवाले धार्मिक विद्वान् होवें, वह राजा विद्या और विनय आदि उत्तम गुणों के सहित होता हुआ सब को भयरहित करके निरन्तर प्रसन्न कर सके ॥३॥
विषय
सुतीर्थ व अभय
पदार्थ
[१] हे जीव! तू (वाजयध्यै) = शक्ति प्राप्त करने के लिए (कर्णा) = अपने कानों को (अस्य प्रदिशम्) = इस प्रभु के प्रकृष्ट निर्देशों को (इत्) = निश्चय से (श्रावय) = सुन । यदि तेरे कान प्रभु के निर्देशों को सुनेंगे, तो तू अवश्य शक्ति सम्पन्न बनेगा । उस निर्देश को तू अपने को सुनानेवाला बन, जो कि (जुष्टां अनु) = सेवित होने के अनुपात में (मन्दयध्यै) = हर्षप्राप्ति के लिए होता है। जितना जितना हम प्रभु के निर्देशों को सुनते हैं और पालते हैं [जुष्टां] उतना उतना हमारा जीवन आनन्दमय बनता है। [२] (उद्वावृषाण:) = अत्यन्त सुखों का हमारे पर वर्षण करता हुआ प्रभु (नः) = हमें (राधसे करत्) = सफलता के लिए करते हैं। (तुविष्मान्) = वे बलवान् [शक्तिशाली] (इन्द्रः) = प्रभु हमारे लिए (सुतीर्था) = 'उत्तम माता-पिता- आचार्य' रूप तीर्थों को प्राप्त कराते हैं (च) = और इनके द्वारा (अभयम्) = निर्भयता को प्राप्त कराते हैं। माता हमारे चरित्र का निर्माण करती है, पिता आचार का तथा आचार्य ज्ञान का निर्माण करता है। इस प्रकार सच्चरित्रता, सदाचार व ज्ञान हमारे जीवन को निर्भय बनाते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु के निर्देशों को सुनें, उन्हें पालें। प्रभु हमें उत्तम माता-पिता आचार्य रूप तीर्थों द्वारा सच्चरित्र, सदाचारी व ज्ञानी बनाकर निर्भयता प्राप्त कराते हैं ।
विषय
विद्वान् आचार्य, उपदेशक और राजा का कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे विद्वन् ! आचार्य ! उपदेशक ! तू (अस्य) इस वीर पुरुष के (कर्णा) दोनों कानों को (वाजयध्यै) ज्ञान सम्पन्न करने के लिये (मन्दयध्यै) और खूब हर्षित करने के लिये (जुष्टां) विद्वान् सत्पुरुषों से सेवित, प्रजा द्वारा प्रेम युक्त (दिशम्) ज्ञान दिशा को अनुगमन करके लिये (अनु श्रावय प्र श्रावय) अनुकूल और उत्तम उपदेश कर । (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् राजा (उद् वावृषाणः) ऊर्ध्व स्थित मेघ के समान प्रजा पर सुखों की वर्षा करता हुआ एवं उत्तम पद पर स्थित बलवान् प्रबन्धक, (तुविष्मान्) बलवान् पुरुष (नः) हमारे (राधसे) धन और आराध्य सुख के प्राप्त करने और बढ़ाने के लिये, हमारे राष्ट्र में (सुतीर्था) दुःखों से पार उतारने वाले आचार्य, ब्रह्मचर्य, सत्य भाषणादि युक्त विद्वानों, विद्यामठों और सेतु आदि (करत्) बनावे और (अभयं च) प्रजा को चौर, व्याघ्रादि भय से रहित (करत्) करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः– १ विराट् त्रिष्टुप् । ३ निचृत्त्रिष्टुप । ४, २ त्रिष्टुप्। ५ स्वराट् पंक्तिः॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
ज्या राजाजवळ सत्य व न्यायाचा उपदेश करणारे धार्मिक विद्वान असतील तो विद्या व विनय इत्यादी गुणांनी युक्त असतो. तो सर्वांना भयरहित करून निरंतर प्रसन्न ठेवू इच्छितो. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Speak to him, let him hear, he loves to hear of the cherished policy and direction for the sake of speed and success in action so that he may be happy and rejoice with you all. And then he, Indra, ruler of all and creator of honour and excellence, generous as showers and blazing brave in action, would create paths of progress into a state of freedom from fear and success, and thence would flow the ultimate release.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties and attributes of a ruler are described.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O preacher of truth (Acharya or preceptor or teacher)! in order to give the kingdom of knowledge into his ears a sound policy be followed by good kings, in order to please fully the people by all means. After having possessed this strength, the mightiest ruler may provide us Acharya (preceptor) and observing of Brahmacharya, truth etc. With these qualities, we may overcome all miseries and fear and then wealth of all types.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The king in whose State there are highly learned and righteous persons, preachers of truth and justice, and he himself is endowed with knowledge, humility and other noble virtues, makes all people fearless and thus leads them to happiness. (Assurance in the security of life and wealth is key to public happiness. Ed).
Foot Notes
(सुतीर्था ) शोभनानि तीर्थानि दुःखतारकाण्याचाय्यं ब्रह्मचर्य्यंसत्यभाषणा दीनि येषान्तान् । = Who provide Acharyas (preceptors) and are instrumental in the observance of Brahmacharya (continence), truth and other virtues. These take men across all miseries. (तुविष्मान् ) प्रशंसितबल: । तुवि इति बहुनाम (NG 3, 1 ) तव इति बलनाम (NG 29 ) सुविष्मान् बलवानिति सामयणाचार्यां ऽपि स्वकीय भाष्येयं ( कथयति) = Possessor of admirable strength.
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