ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 38/ मन्त्र 9
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - दध्रिकाः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
उ॒त स्मा॑स्य पनयन्ति॒ जना॑ जू॒तिं कृ॑ष्टि॒प्रो अ॒भिभू॑तिमा॒शोः। उ॒तैन॑माहुः समि॒थे वि॒यन्तः॒ परा॑ दधि॒क्रा अ॑सरत्स॒हस्रैः॑ ॥९॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । स्म॒ । अ॒स्य॒ । प॒न॒य॒न्ति॒ । जनाः॑ । जू॒तिम् । कृ॒ष्टि॒ऽप्रः । अ॒भिऽभू॑तिम् । आ॒शोः । उ॒त । ए॒न॒म् । आ॒हुः॒ । स॒म्ऽइ॒थे । वि॒ऽयन्तः॑ । परा॑ । द॒धि॒ऽक्राः । अ॒स॒र॒त् । स॒हस्रैः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत स्मास्य पनयन्ति जना जूतिं कृष्टिप्रो अभिभूतिमाशोः। उतैनमाहुः समिथे वियन्तः परा दधिक्रा असरत्सहस्रैः ॥९॥
स्वर रहित पद पाठउत। स्म। अस्य। पनयन्ति। जनाः। जूतिम्। कृष्टिऽप्रः। अभिऽभूतिम्। आशोः। उत। एनम्। आहुः। सम्ऽइथे। विऽयन्तः। परा। दधिऽक्राः। असरत्। सहस्रैः ॥९॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 38; मन्त्र » 9
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
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अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! जना अस्य कृष्टिप्र आशोः सङ्ग्रामेऽभिभूतिं जूतिमुत पनयन्त्युतैनं समिथे वियन्त आहुर्यो दधिक्राः सहस्रैः परासरत् स स्म विजेतुं शक्नुयात् ॥९॥
पदार्थः
(उत) वितर्के (स्म) (अस्य) राज्ञः (पनयन्ति) व्यवहरन्ति स्तुवन्ति वा (जनाः) राजप्रजामनुष्याः (जूतिम्) न्यायवेगम् (कृष्टिप्रः) यः कृष्टीन् मनुष्यान् दूतचारैः प्राति तस्य (अभिभूतिम्) अभिभवं तिरस्कारम् (आशोः) सकलविद्याव्यापकस्य (उत) अपि (एनम्) (आहुः) कथयन्ति (समिथे) सङ्ग्रामे (वियन्तः) विशेषेण प्राप्नुवन्तः (परा) (दधिक्राः) यो धारकैः सह क्रामति (असरत्) सरति गच्छति (सहस्रैः) असङ्ख्यैः ॥९॥
भावार्थः
तमेव राजानं विद्वांसः प्रशंसन्ति यः प्रजापालनतत्परः सन् सर्वान् व्यावहारयति ॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (जनाः) राजा और प्रजाजन (अस्य) इस (कृष्टिप्रः) मनुष्य को दूतचार अर्थात् गुप्त दूत आदि से पालना करनेवाले (आशोः) सम्पूर्ण विद्याओं में व्याप्त राजा के सङ्ग्राम में (अभिभूतिम्) तिरस्कार और (जूतिम्) न्याय के वेग का (उत) तर्क-वितर्क के साथ (पनयन्ति) व्यवहार करते वा प्रशंसा करते हैं (उत) और भी (एनम्) इसको (समिथे) सङ्ग्राम में (वियन्तः) विशेष करके प्राप्त होते हुए (आहुः) कहते हैं और जो (दधिक्राः) धारण करनेवालों के साथ चलनेवाला (सहस्रैः) असङ्ख्यों के साथ (परा, असरत्) उत्कृष्ट चलता है (स्म) वही जीत सके ॥९॥
भावार्थ
उसी राजा की विद्वान् जन प्रशंसा करते हैं, जो प्रजा के पालन में तत्पर हुआ सब के व्यवहारों को सिद्ध करता है ॥९॥
विषय
'कृष्टिप्रा आशु' दधिक्रा
पदार्थ
[१] (उत स्म) = और निश्चय से (जनाः) = लोग (अस्य) = इस (कृष्टिप्रः) = श्रमशील मनुष्यों का पूरण करनेवाले उनकी न्यूनताओं को दूर करनेवाले (आशोः) = शीघ्रता से व्यापनेवाले मन के (अभिभूतिम्) = शत्रुओं के पराभूत करनेवाले (जूतिम्) = वेग को पनयन्ति स्तुत करते हैं प्रशंसित करते हैं। यह मन जिस शीघ्रतावाले बल से शत्रुओं पर आक्रमण करता है, वह इसका बल प्रशंसनीय ही होता है। [२] (उत) = और (समिथे) = संग्राम में (वियन्तः) = विविध दिशाओं में भयभीत होकर भागते हुए शत्रु (एनं आहुः) = इसके विषय में यही कहते हैं कि (दधिक्रा:) = यह मनुष्यों का धारण करके गति करता हुआ मन (सहस्त्रैः) = हजारों बलों के साथ (परा असरत्) = सुदूर गतिवाला होता है। न जाने यह हमें कहाँ फेंकेगा। वस्तुत: स्तुति प्रवृत्त मन से शत्रु भयभीत होकर सुदूर भाग जाते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- मन अतिशयेन बलवान् व वेगवान् है। काम आदि शत्रु इससे भयभीत होकर दूर है विनष्ट हो जाते हैं ।
विषय
रथवत् महारथी का वर्णन ।
भावार्थ
(उत) और जिस प्रकार (जनाः कृषिप्रः जूतिं पनयन्ति) लोग कर्षण करने योग्य रथादि को पूर्ण करने वाला उसको अंगभूत होकर जुते हुए अश्व के वेग को कार्य व्यवहार में लाते और उसकी स्तुति करते हैं और जिस प्रकार (आशोः अभिभूतिम्) व्यापक विद्युत् के सर्वत्र व्यापन गुण को विद्वान् जन कार्य में लाते और वर्णन करते हैं और जिस प्रकार (वि यन्तः) विविध मार्गों वा उपायों से जाने वाले लोग (समिथेएनम् आहुः) प्राप्त होने पर कहते हैं कि वह (दधिक्राः सहस्रैः परा असरत्) धारण करके ले चलने में समर्थ विद्युत् या अश्वादि हजारों मील के वेगों से दूर तक जाने में समर्थ होता है उसी प्रकार (जनाः) लोग (उत) भी (अस्य) इस (कृष्टिप्रः) ‘कृष्टि’ अर्थात् जनों और राष्ट्रवासी प्रजा जनों को ऐश्वर्य समृद्धि से पूर्ण करने हारे राजा के (जूतिम्) वेगयुक्त आक्रमणकारिणी वेगवती सेना की ओर (आशोः) अति वेगवान् शीघ्रकारी इसके (अभिभूतिम्) शत्रु पराजयकारी सामर्थ्य की (पनयन्ति) स्तुति करते और उसका सदुपयोग करते हैं । और (वियन्तः) विविध मार्गों और चालों से जाने वाले वीर लोग (समिथे) संग्राम के अवसर पर (एनम् आहुः) उसके विषय में कहते हैं कि (दधिक्राः) सबको अपने वश में धारण करके शत्रु पर आक्रमण करने में समर्थ वीर पुरुष ही (सहस्रैः) शत्रु पर विजय प्राप्त करने वाले सहस्रों वा बलवान् सैन्यों सहित (परा असरत्) दूर तक आक्रमण करने में समर्थ है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः॥ १ द्यावापृथिव्यौ। २-१० दधिक्रा देवता ॥ छन्दः- १, ४ विराट् पंक्तिः। ६ भुरिक् पंक्तिः। २, ३ त्रिष्टुप्। ५, ८, ९, १० निचृत् त्रिष्टुप्। ७ विराट् त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
जो प्रजेच्या पालनात तत्पर असतो व सर्वांच्या व्यवहारांना सिद्ध करतो, त्याच राजाची विद्वान लोक प्रशंसा करतात. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
And people praise the drive and superior power of this hero of human endeavour and accomplishment for humanity, and the warriors going to battle describe him as the roaring war horse, the booming war craft of the skies and the supreme of arms going with but ahead of thousands.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of the king are more elucidated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! praise the exceeding speed of justice and force in overcoming the foes. That heroic king who is well- versed in various sciences and who protects all people by appointing women spies (to know their real inventions and schemes), the foes approach him for help in battles. They say that he alone can win, who goes in the battlefield himself with innumerable people being very powerful. And going along with them, he upholds all.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
That king alone is admired by all learned persons who protection and cherishing his subjects impels them to do good deeds.
Foot Notes
(पनयन्ति ) व्यवहरन्ति स्तुवन्ति वा । = Praise or act. (जूतिम् ) न्यायवेगम् = The speed in administering of justice. (कृष्टिप्रः) यः कृष्टीन् मनुष्यान् । दूतचारै: प्राति तस्य । कृष्टयः इति मनुष्यनाम (NG 2, 3)। = He who protects the people by appointing messengers and spies. (दधिक्राः) यो धारकैः सह क्रामति । = One who moves with the upholders of virtues.
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