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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 12 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 12/ मन्त्र 3
    ऋषिः - सुतम्भर आत्रेयः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    कया॑ नो अग्न ऋ॒तय॑न्नृ॒तेन॒ भुवो॒ नवे॑दा उ॒चथ॑स्य॒ नव्यः॑। वेदा॑ मे दे॒व ऋ॑तु॒पा ऋ॑तू॒नां नाहं पतिं॑ सनि॒तुर॒स्य रा॒यः ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कया॑ । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । ऋ॒तय॑न् । ऋ॒तेन॑ । भुवः॑ । नवे॑दाः । उ॒चथ॑स्य । नव्यः॑ । वेद॑ । मे॒ । दे॒वः । ऋ॒तु॒ऽपाः । ऋ॒तू॒नाम् । न । अ॒हम् । पति॑म् । स॒नि॒तुः॒ । अ॒स्य । रा॒यः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कया नो अग्न ऋतयन्नृतेन भुवो नवेदा उचथस्य नव्यः। वेदा मे देव ऋतुपा ऋतूनां नाहं पतिं सनितुरस्य रायः ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कया। नः। अग्ने। ऋतयन्। ऋतेन। भुवः। नवेदाः। उचथस्य। नव्यः। वेद। मे। देवः। ऋतुऽपाः। ऋतूनाम्। न। अहम्। पतिम्। सनितुः। अस्य। रायः ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 12; मन्त्र » 3
    अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरग्निपदवाच्यविद्वद्विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने ! त्वं कया युक्त्या नोऽस्मान् विज्ञापयेः ऋतेनर्त्तयन् सन् भुवो नवेदा उचथस्य नव्य ऋतुपा भुवो देवोऽहमृतूनामस्य सनितू रायः पतिं न नाशयामि तथा मे वेदा मा नाशय ॥३॥

    पदार्थः

    (कया) विद्यया युक्त्या वा (नः) अस्मान् (अग्ने) विद्वन् (ऋतयन्) सत्यमाचरन् (ऋतेन) सत्येन (भुवः) पृथिव्याः (नवेदाः) यो न विन्दति सः (उचथस्य) उचितस्य (नव्यः) नवेषु साधुः (वेदा) जानीहि (मे) माम् (देवः) विद्वान् (ऋतुपाः) य ऋतून् पाति (ऋतूनाम्) वसन्तादीनाम् (न) निषेधे (अहम्) (पतिम्) (सनितुः) विभाजकस्य (अस्य) (रायः) धनस्य ॥३॥

    भावार्थः

    हे मनुष्याः ! सत्याचरणेनैव भूराज्यं प्राप्यते पृथिवीराज्येन श्रिया च सर्वेषां सुखं जायते ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर अग्निपदवाच्य विद्वद्विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) विद्वन् ! आप (कया) किस विद्या वा युक्ति से (नः) हम लोगों को जनावें (ऋतेन) सत्य से (ऋतयन्) सत्य का आचरण करता हुआ (भुवः) पृथिवी का (नवेदाः) नहीं प्राप्त होनेवाला (उचथस्य) उचित का सम्बन्धी (नव्यः) नवीनों में श्रेष्ठ (ऋतुपाः) ऋतुओं का पालन करनेवाला पृथ्वीसम्बन्धी (देवः) विद्वान् (अहम्) मैं (ऋतूनाम्) वसन्त आदि ऋतुओं और (अस्य) इस (सनितुः) विभाग करनेवाले (रायः) धन के (पतिम्) स्वामी का (न) नहीं नाश कराता हूँ, वैसे आप (मे) मुझ को (वेदा) जानिये और मुझ को नष्ट मत करिये ॥३॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! सत्य के आचरण से ही पृथ्वी का राज्य प्राप्त होता है और पृथ्वी के राज्य और लक्ष्मी से सब को सुख होता है ॥३॥

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    विषय

    विना भूमि के जैसे बीज नहीं फलता इसी प्रकार विना प्रजा वा पृथिवी के राष्ट्र नहीं समृद्ध होता ।

    भावार्थ

    भा०- ( भुवः नवेदाः ऋतेन कया ऋतयन् ) भूमि को प्राप्त न करने वाला, भूमिरहित पुरुष केवल जल से भला किस प्रकार अन्न प्राप्त कर सकता है ? इसी प्रकार हे (अग्ने) ज्ञानवन् ! विद्वन् ! आचार्य ! आप ( नव्यः ) उत्तम २, नये २ ज्ञानों को प्राप्त करने वाले और नये २ शिष्यों के हितकारी होकर भी ( भुवः न वेदः ) ज्ञान-बीजों को उत्पन्न करने योग्य शिष्य रूप भूमि को विना प्राप्त किये ही भला ( कया ) किस उपाय से ( उचथस्य ) उपदेश करने योग्य वेद के ( ऋतेन ) सत्य ज्ञान से ( ऋतयन् ) अन्यों को सत्य ज्ञानयुक्त कर सकते हो । आप ( देवः ) सब ज्ञानों के देने वाले सूर्य वा राजा के तुल्य तेजस्वी और (ऋतूनां ) ऋतुओं के बीच स्थित सूर्यवत् समस्त सत्य ज्ञानों और प्राणों के ( ऋतु-पाः ) पालक हैं । आप ( मे वेद ) मुझे प्राप्त कीजिये, मुझ शिष्य को ज्ञानोपदेश प्रदान करने की उचित भूमि जानिये । (अहं) मैं शिष्य (अस्य रायः) इस ऐश्वर्य और ( सनितुः ) सुखपूर्वक सेवा करने वाले शिष्य के ( पतिं ) पालक गुरु को (न वेद) नहीं पाता हूं । (२) मैंने आप को पाया आप मुझे प्राप्त करें । हे राजन् ! तू विना भूमि राज्य पाये किस युक्ति से केवल आज्ञावचन या विधान से शासन कर सकता है । तू समस्त (ऋतूनां ) राजसभा के सदस्यों का पति होकर मुझ प्रजा को प्राप्त कर । और मुझे ऐश्वर्य और सेवक जन का पालक नहीं मिलता ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सुतम्भर आत्रेय ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्द: – १, २ स्वराट् पंक्ति: । ३, ४, ५ त्रिष्टुप् । ६ निचृत् त्रिष्टुप ॥ षडृर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    ज्ञाता व अज्ञेय प्रभु

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = परमात्मन्! आप (ऋतेन) = सत्य वेदज्ञान से (ऋतयन्) = हमारे जीवन को ऋत युक्त करते हुए (कया) = इस कल्याणकारक वेदवाणी से (न:) = हमारे (न वेदाः) = ज्ञाता [ननवेद इति] (भुवः) = होते हैं। आप सदा हमारा ध्यान करते हैं । [२] वे प्रभु (ऋतूनां ऋतुपा) = सब ऋतुओं की नियमित गति के रक्षक हैं। प्रभु की व्यवस्था में ही ये ऋतुएँ नियम से चल रही हैं। (देवः) = वे ही प्रकाशमय हैं, (नव्यः) = स्तुति के योग्य हैं मे (उचथस्य) = मेरे स्तोत्र को वेद-जानते हैं। मेरी स्तुति उनसे सुनी जाती है। पर (अहम्) = मैं (अस्य) = इस (राय:) = ऐश्वर्य के (सनितुः) = दाता उस प्रभु को तथा (पतिम्) = उस रक्षक प्रभु को न वेद जानता नहीं हूँ। प्रभु मुझे जानते हैं, मेरे ज्ञान से वे परे हैं। मैं प्रभु को पूरा ज्ञान नहीं पाता।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! सत्याचरणानेच पृथ्वीचे राज्य प्राप्त होते व पृथ्वीचे राज्य आणि लक्ष्मी याद्वारे सर्वांना सुख मिळते. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    For what reason, Agni, you being the latest scholar and observer of the laws of truth by the laws of truth, would you not know of the earth and of our songs of adoration? Lord protector and observer of the laws and cycle of the seasons, generous and brilliant, give me the knowledge. I do not well know the lord giver and protector of the wealth of life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of a highly learned person are mentioned.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person ! by which method or knowledge do you enlighten us? Observing truth in conduct after knowing the virtues of universal truth, protects us in different seasons and indicates what is proper. I, a newly learned man, do not squander away the wealth which is divided according to the needs of the seasons. So you should also know me and not destroy me.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! it is only by observance of truth that the true kingdom of earth is obtained. By kingdom of the earth and prosperity, all people enjoy happiness.

    Foot Notes

    (उचथस्य ) उचितस्य । वच-परिभाषणे (अदा) षण संभक्तौ (भ्वा) । = Of what is proper ? (सनितुः ) विभाजकस्य । नवेदा इति मेधाविनाम (NG 3, 15)। = Of the divider.

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