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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 15/ मन्त्र 4
    ऋषिः - धरुण आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    मा॒तेव॒ यद्भर॑से पप्रथा॒नो जनं॑जनं॒ धाय॑से॒ चक्ष॑से च। वयो॑वयो जरसे॒ यद्दधा॑नः॒ परि॒ त्मना॒ विषु॑रूपो जिगासि ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा॒ताऽइ॑व । यत् । भर॑से । प॒प्र॒था॒नः । जन॑म्ऽजनम् । धाय॑से । चक्ष॑से । च॒ । वयः॑ऽवयः । ज॒र॒से॒ । यत् । दधा॑नः । परि॑ । त्मना॑ । विषु॑ऽरूपः । जि॒गा॒सि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मातेव यद्भरसे पप्रथानो जनंजनं धायसे चक्षसे च। वयोवयो जरसे यद्दधानः परि त्मना विषुरूपो जिगासि ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    माताऽइव। यत्। भरसे। पप्रथानः। जनम्ऽजनम्। धायसे। चक्षसे। च। वयःऽवयः। जरसे। यत्। दधानः। परि। त्मना। विषुऽरूपः। जिगासि ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 15; मन्त्र » 4
    अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वद्विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वन् ! यद्यतः पप्रथानस्त्वं मातेव धायसे चक्षसे च जनञ्जनं भरसे त्मना यद्दधानो वयोवयो जरसे विषुरूपः सन् सर्वान् पदार्थान् परि जिगासि तस्माद्विद्वान् भवसि ॥४॥

    पदार्थः

    (मातेव) यथा जननी (यत्) यतः (भरसे) (पप्रथानः) प्रख्यातविद्यः (जनञ्जनम्) मनुष्यं मनुष्यम् (धायसे) धातुम् (चक्षसे) ख्यापयितुम् (च) (वयोवयः) कमनीयं जीवनं जीवनम् (जरसे) स्तौषि (यत्) यतः (दधानः) (परि) सर्वतः (त्मना) आत्मना (विषुरूपः) प्राप्तविद्यः (जिगासि) प्रशंससि ॥४॥

    भावार्थः

    ये विद्वांसो मातृवद्विद्यार्थिनो रक्षन्ति सर्वेषामुन्नतिं चिकीर्षन्ति ब्रह्मचर्य्यायुर्वर्धननिमित्तानि कर्म्माण्युपदिशन्ति ते जगत्पूज्या भवन्ति ॥४॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर विद्वद्विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वन् ! (यत्) जिस कारण (पप्रथानः) प्रसिद्ध विद्यायुक्त आप (मातेव) माता के सदृश (धायसे) धारण करने और (चक्षसे) कहाने को (च) भी (जनञ्जनम्) मनुष्य-मनुष्य का (भरसे) पोषण करते हो और (त्मना) आत्मा से (यत्) जिस कारण (दधानः) धारण करते हुए (वयोवयः) सुन्दर जीवन की (जरसे) स्तुति करते हो और (विषुरूपः) विद्या जिनको प्राप्त ऐसे हुए सम्पूर्ण पदार्थों की (परि) सब प्रकार से (जिगासि) प्रशंसा करते हो, इससे विद्वान् होते हो ॥४॥

    भावार्थ

    जो विद्वान् जन माता के सदृश विद्यार्थियों की रक्षा करते, सब की उन्नति करने की इच्छा करते और ब्रह्मचर्य तथा अवस्था के बढ़ने में कारणरूप कार्य्यों का उपदेश करते हैं, वे संसार के आदर करने योग्य होते हैं ॥४॥

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    विषय

    विद्युत्वत् उसका उग्र सामर्थ्य ।

    भावार्थ

    भा०-जिस प्रकार जठर अग्नि, ( माता इव धायसे चक्षसे च जनं जनं भरसे ) सब मनुष्यों को पालन पोषण करने और चक्षु द्वारा दिखाने के लिये होता और सब को पालता, पुष्ट करता है, वह ( वयः वयः जरसे) प्रत्येक अन्न को जीर्ण करता, ( त्मना विषुरूपः जिगाति ) स्वयं नाना रूप होकर देह में व्यापता है उसी प्रकार ( यत् ) जो तू विद्वान् नायक पुरुष ( पप्रथानः ) अति विस्तृत विख्यात होकर ( जनं जनं ) प्रत्येक राष्ट्रवासी पुरुष को ( माता - इव) माता के तुल्य ( भर से ) पालता है, और (धायसे) उनको तू धारण पोषण करने और ( चक्षसे च ) उनको देखने के लिये भी समर्थ होता है और जो तू ( दधानः ) प्रजा जन को धारण करता हुआ ( वयः वयः ) प्रत्येक प्रकार के बल और ज्ञान का ( जर से ) उपदेश करता है, और ( त्मना ) स्वयं ( विपु-रूपः ) नाना रूप होकर ( परि जिगासि ) सब को प्राप्त करता और नाना प्रकार से उपदेश करता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वरुण आङ्गिरस ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः–१, ५ स्वराट् पंक्तिः ॥ २, ४ त्रिष्टुप् । ३ विराटं त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    माता के समान [प्रभु]

    पदार्थ

    [१] (पप्रथानः) = सर्वत्र विस्तृत होते हुए आप माता इव माता के समान (यद्) = जब (जनं जनम्) = प्रत्येक व्यक्ति को (भरसे) = भरण करते हैं, तो आप सबके (धायसे) = धारण के लिये होते हैं, (च) = और (चक्षसे) = देखने के लिये होते हैं, सबका ध्यान करते हैं । [२] (यद्दधानः) = जब आप सब प्राणियों का धारण करते हैं तो (वयः वयः) = प्रत्येक अन्न को जरसे आप ही जीर्ण [पचा हुआ] करते हैं 'अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः । प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्'। आपके द्वारा ही अन्न के पाचन की व्यवस्था होती है और हमारे जीवनों का धारण होता है । [२] हे प्रभो! आप ही (विषुरूपः) - विविध रूपोंवाले होते हुए (त्मना) = स्वयं (परिजिगासि) = चारों ओर प्राप्त होते हैं। सर्वत्र आपकी ही विभूति दृष्टिगोचर होती है। सूर्य में प्रभा के रूप से, अग्नि में तेज के रूप से, जल में रस, पृथिवी में गन्ध तथा बलवानों में बल के रूप से आप ही विद्यमान हो रहे हैं । सम्पूर्ण जीवन आपके ही कारण है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु ही माता की तरह सब प्राणियों का धारण करते हैं। प्रभु ही हमारे धारण के लिये अन्न का पाचन करते हैं। विविध रूपों से सर्वत्र प्रभु ही प्राप्त हैं। क्या सूर्यादि में, क्या विद्वानों व बलवानों में सर्वत्र प्रभु की ही महिमा दृष्टिगोचर होती है ।

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    Bhajan

    वैदिक मन्त्र
    मातेव यद् भरसे पप्रथानो, जनं जनं धायसे चक्षसे च।
    वयो वयो जरसे यद् दधान, परित्मना
    विषुरूपो जिगासि।।  ऋ•५.१५.४

            वैदिक भजन१०९७वां
           राग मिश्र शिवरंजनी
           गायन समय मध्य रात्रि
       ताल विलंबित कहरवा८ मात्रा

    प्यारी मां गोद में 
    अगणित प्रजा रहती है
    इनमें से हर जीव की 
    सुध मां ही लेती है
    प्यारी मां........
    संताप हारिणी अदिति मात से 
    निर्भयता लेते, प्यारी मां 
    खाद्य-पेय हम पाते 
    प्यारी मां प्यारी मां !
    पुष्ट पोषण देती है, 
    प्यारी मां ।।
    मां आत्मिक पय-पान कराओ (२)
    रक्षण करके बचाओ, प्यारी मां(२)
    शुभ उद्देश्य को पालें(२)
    प्यारी मां,प्यारी मां !
    आत्मिक पुष्टि को पालें,
    प्यारी मां।।
    हे ब्रह्माण्ड के सर्वत स्वामी (२)
    एक हो तुम, पर रूप अनेकों (२)
    स्मरण करे हर रंग में
    प्यारी मां प्यारी मां !
    स्मरण करें निज मन से
    प्यारी मां।।
    मात-पिता बन्धु स्वामी हो (२)
    उत्तरदायी अति दानी हो (२)
    हो पोषक कृत्यों में अनवर
    प्यारी मां प्यारी मां!
    रक्षक तुम अक्षर हो
    प्यारी मां।।
    हे ज्योतिर्मय तुम मां बनकर(२)
    अमृतपान करा निज अंक में (२)
    रंग जायें तेरे ही रंग में
    प्यारी मां प्यारी मां !
    ले शिशु को आंचल में
    प्यारी मां गोद में..........
    इनमें से..........
                    ‌‌ ८.६.२०२३
                    ११.५५ प्रातः
    अगणित= जो गिना ना जा सके
    अदिति=अखंड सृजनात्मक शक्ति
    पय=अमृत
    सर्वत=धन,भाग्य
    उत्तरदायी=जिम्मेदार
    अनवर=श्रेष्ठ
    अक्षर= कभी ना मिटने वाला
    अंक=गोद

    🕉🧘‍♂️प्रथम श्रृंखला का ९० वां  वैदिक भजन और अब तक का १०९७ वां वैदिक भजन🎧

    🕉🧘‍♂️वैदिक श्रोताओं को हार्दिक धन्यवाद एवं शुभकामनाएं❗🙏

    Vyakhya

    माता के समान पालक

    हे सकल जग में अपनी कीर्ति से प्रख्यात जगदीश्वर! शिशुओं के समान स्वयं को अरक्षित समझ,प्रत्येक जन तुम्हारी शरण में आ रहा है। जैसे मां अपने शिशुओं को दूध पिलाने के लिए, उनकी देखभाल करने के लिए अपनी गोद में उठाती है, वैसे ही तुम जन-जन को अपनी अभय दायिनी संतापहारिणी गोद में लेकर अपना पय:पान कराते हो, और उनकी देखभाल तथा संरक्षण तुम पूर्णत: अपने हाथ में ले लेते हो। हम लोग पुष्टिकर सांसारिक खाद्य और पेय पदार्थों को भले ही खाते-पीते रहें; पर उनसे प्राप्त पुष्टि तबतक 
    अकिंचित्कर रहती है, जब तक मनुष्य तुम्हारे दिव्य पय:पान से आत्मिक पुष्टि को प्राप्त नहीं कर लेता। और असल में देखा जाए तो आत्मिक पुष्टि ही क्यों, भौतिक पुष्टि को भी देने वाले तुम्हीं हो, क्योंकि समस्त भौतिक पोषण खाद्य और पेय भी तुम्हारे ही दिए हुए हैं। 
    मां के समान केवल तुम पय:पान ही नहीं कराते, अपितु हम शिशुओं की संपूर्ण सुरक्षा का उत्तरदायित्व भी ग्रहण करते हो।
    हे परमात्मन् ! इस भूमि माता की गोद में जो अगणित जन निवास करते हैं, उनमें से प्रत्येक के जीवन को तुम सहारा देते हो। यदि तुम्हारा सहारा हमें ना हो तो हम कहीं भी, किसी भी स्थिति में लड़खड़ा कर गिर पड़ें, ज़रा सी भी बाधा आने पर विचलित हो जाएं। हम गिरते पड़ते रोगाक्रांत होते जनों को तुम अवलम्ब बनकर ऊपर उठाते हो, दीर्घजीवी बनाते हो। हे ब्रह्माण्ड के अधिपति ! तुम एक होते हुए भी अनेक रूप हो, अपने विभिन्न गुण-कर्मों के आधार से माता पिता भाई बन्धु सखा स्वामी जगत सृष्टि जगताधार आदि विभिन्न रूपों में स्मरण किए जाते हो।
    तुम किसी एक विशेष स्थान पर स्थित ना होकर चारों ओर विद्यमान हो, सर्वव्यापक हो, सर्वव्यापक होकर तुम सब वस्तुओं की चौकसी कर रहे हो। हे ज्योतिर्मय प्रभु! तुम हमें भी मां बनकर अपने अंक  में ले लो, हमें भी अपना पय:पान कराओ। हमें भी सहारा दो और प्रहरी बनकर हमारी भी सतत रक्षा करते रहो।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे विद्वान मातेप्रमाणे विद्यार्थ्यांचे रक्षण करतात. सर्वांची उन्नती व्हावी अशी इच्छा बाळगतात. ब्रह्मचर्याचा व दीर्घायुषी बनण्याचा उपदेश करतात. ते जगात आदर करण्यायोग्य असतात. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, rising and expansive, you bear and sustain every person like a mother, taking and giving food for nourishment and enlightenment. You go to everyone, shine as fire within for a new lease of life even for the weak, and in this way you glorify life, and by yourself go on self-revealing, taking on new and universal forms of life.

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