ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 16/ मन्त्र 4
अधा॒ ह्य॑ग्न एषां सु॒वीर्य॑स्य मं॒हना॑। तमिद्य॒ह्वं न रोद॑सी॒ परि॒ श्रवो॑ बभूवतुः ॥४॥
स्वर सहित पद पाठअध॑ । हि । अ॒ग्ने॒ । ए॒षा॒म् । सु॒ऽवीर्य॑स्य । मं॒हना॑ । तम् । इत् । य॒ह्वम् । न । रोद॑सी॒ इति॑ । परि॑ । श्रवः॑ । ब॒भू॒व॒तुः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अधा ह्यग्न एषां सुवीर्यस्य मंहना। तमिद्यह्वं न रोदसी परि श्रवो बभूवतुः ॥४॥
स्वर रहित पद पाठअध। हि। अग्ने। एषाम्। सुऽवीर्यस्य। मंहना। तम्। इत्। यह्वम्। न। रोदसी इति। परि। श्रवः। बभूवतुः ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 16; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ राज्यैश्वर्य्यवर्द्धनमाह ॥
अन्वयः
हे अग्ने ! एषां सुवीर्य्यस्य मंहना यौ तमिद्यह्वमधा रोदसी न श्रवो यथा स्यात्तथा परि बभूवतुस्तौ हि विजयं प्राप्नुतः ॥४॥
पदार्थः
(अधा) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (हि) (अग्ने) राजन् (एषाम्) वीराणाम् (सुवीर्य्यस्य) सुष्ठु पराक्रमस्य (मंहना) महत्त्वेन (तम्) (इत्) (यह्वम्) महान्तं सूर्य्यम् (न) इव (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (परि) सर्वतः (श्रवः) अन्नम् (बभूवतुः) भवतः ॥४॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! ये महतीं सुशिक्षितां सेनां लभन्ते तेषामेव राज्यैश्वर्य्यं वर्धते ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
अब राज्य और ऐश्वर्य्यवृद्धि को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) राजन् ! (एषाम्) इन वीरों और (सुवीर्यस्य) उत्तम पराक्रमवाले के (मंहना) बड़प्पन से जो (तम्) उसको (इत्) ही (यह्वम्) बड़े सूर्य्य (अधा) इसके अन्तर (रोदसी) अन्तरिक्ष और पृथिवी के (न) सदृश (श्रवः) अन्न जैसे हो, वैसे (परि) सब ओर से (बभूवतुः) होते हैं, वे (हि) ही विजय को प्राप्त होते हैं ॥४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो बड़ी, उत्तम प्रकार शिक्षित सेना को प्राप्त होते हैं, उनके ही राज्य का ऐश्वर्य बढ़ता है ॥४॥
विषय
missing
भावार्थ
भा०—जो ( एषां ) इन वीर पुरुषों के (सु-वीर्यस्य मंहना ) उत्तम वीर्य, पराक्रम के महान् सामर्थ्य से ही हे (अग्ने) तेजस्विन् ! तू भी बलवान् हो । ( यह्वं न रोदसी ) महान् सूर्य पर, पृथिवी और आकाशवत् राजा और प्रजा वर्ग दोनों (तम् इत् ) उस तुझ ( यवं ) महान् पर ही आश्रय लेकर ( श्रवः परि बभूवतुः ) अन्न और ऐश्वर्य प्राप्त करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पूरुरात्रेय ऋषिः । अग्निर्देवता ॥ छन्द:- १, २, ३ विराट् त्रिष्टुप् । ४ भुरिगुष्णिक् । ५ बृहती ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
विषय
'सुवीर्य के दाता' प्रभु
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = प्रभो ! (अधा) = अब (हि) = ही (एषाम्) = इन उपासकों के (सुवीर्यस्य) = उत्तम शक्ति के (मंहना) = [मंहनायै भव] दान के लिये आप होइये । प्रभु की उपासना से उपासक प्रभु के बल से सम्पन्न होता है। [२] (यह्वं न) = महान् सूर्य के समान (श्रवः) = सब से श्रवणीय ['आदित्यवर्णं तमसः परस्तात्', 'ब्रह्म सूर्यसमं ज्योतिः'] (तम्) = उस प्रभु के (रोदसी) = ये द्यावापृथिवी (परि बभूवतुः) = परिग्रह करनेवाले होते हैं [परिगृह्णीतः] । उस प्रभु के आश्रय से ही ये द्यावापृथिवी स्थित हैं।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु उपासक को सुवीर्य प्राप्त कराते हैं। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उस प्रभु का ही परिग्रह करता है, उसी के आधार से स्थित है।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! ज्यांना प्रशिक्षित सेना प्राप्त होते त्यांच्या राज्याचे ऐश्वर्य वाढते. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, lord refulgent of power and glory, bless these heroes with the gifts of strength and noble valour. As the heaven and earth go round that mighty sun in orbit and homage, so do the honour and valour of life’s dynamics move round you.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The growth of the prosperity of the state is described.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned king ! those persons achieve victory who take shelter under that mighty and great man, Commander-in-Chief of the army, as heaven and earth depend on the great sun, by the greatness of their good vigor. For the attainment of food and glory, they surround him.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
o men, the prosperity of that State grows more and more who have great and well-trained army.
Foot Notes
(यह्वम् ) महान्तं सूर्य्यंम् । यह्व इति महुषाम (NG 3, 3) = The grand sun. (महना) महत्वेन। महि-वृद्धौ (भ्वा) वृद्धिरैवमहत्वम् = By greatness.
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