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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 21 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 21/ मन्त्र 2
    ऋषिः - सस आत्रेयः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिगुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    त्वं हि मानु॑षे॒ जनेऽग्ने॒ सुप्री॑त इ॒ध्यसे॑। स्रुच॑स्त्वा यन्त्यानु॒षक्सुजा॑त॒ सर्पि॑रासुते ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । हि । मानु॑षे । जने॑ । अग्ने॑ । सुऽप्री॑तः । इ॒ध्यसे॑ । स्रुचः॑ । त्वा॒ । य॒न्ति॒ । आ॒नु॒षक् । सुऽजा॑त । सर्पिः॑ऽआसुते ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं हि मानुषे जनेऽग्ने सुप्रीत इध्यसे। स्रुचस्त्वा यन्त्यानुषक्सुजात सर्पिरासुते ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। हि। मानुषे। जने। अग्ने। सुऽप्रीतः। इध्यसे। स्रुचः। त्वा। यन्ति। आनुषक्। सुऽजात। सर्पिःऽआसुते ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 21; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे सुजाताग्ने ! यथाऽग्निः सर्पिरासुते प्रदीप्यते तथा हि त्वं मानुषे जने सुप्रीत इध्यसे यथा त्वा स्रुच आनुषक् यन्ति तथैव त्वं सर्वान् प्रत्यनुकूलो भव ॥२॥

    पदार्थः

    (त्वम्) (हि) (मानुषे) (जने) प्रसिद्धे (अग्ने) पावकवद्वर्त्तमान (सुप्रीतः) सुष्ठु प्रसन्नः (इध्यसे) प्रदीप्यसे (स्रुचः) यज्ञसाधनानि पात्राणि (त्वा) त्वाम् (यन्ति) (आनुषक्) आनुकूल्येन (सुजात) सुष्ठुजात (सर्पिरासुते) सर्पिषा समन्तात् प्रदीपिते ॥२॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! भवन्तो यथाग्निरिन्धनघृतादीनि प्राप्य वर्धते तथैव विद्यां शुभगुणाँश्च प्राप्य सततं वर्धन्ताम् ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (सुजात) उत्तम प्रकार उत्पन्न (अग्ने) अग्नि के सदृश प्रताप से वर्त्तमान ! जैसे अग्नि (सर्पिरासुते) घृत से सब ओर से प्रकाशित हुए में प्रकाशित किया जाता है, वैसे (हि) ही (त्वम्) आप (मानुषे, जने) प्रसिद्ध मनुष्य में (सुप्रीतः) उत्तम प्रकार प्रसन्न हुए (इध्यसे) प्रकाशित होते हो और जैसे (त्वा) आपको (स्रुचः) यज्ञ के साधन पात्र (आनुषक्) अनुकूलता से (यन्ति) प्राप्त होते हैं, वैसे ही आप सबके प्रति अनुकूल हूजिये ॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! आप लोग जैसे अग्नि इन्धन और घृत आदिकों को प्राप्त होकर वृद्धि को प्राप्त होता है, वैसे ही विद्या और उत्तम गुणों को प्राप्त होकर निरन्तर वृद्धि को प्राप्त हूजिये ॥२॥

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    विषय

    मनुष्यवत् अग्नि, विद्युत् आदि का स्थापन । विद्वान् सन्देशहर अग्नि । उसका आदर सत्कार ।

    भावार्थ

    भा०—हे ( अग्ने ) अग्नि के तुल्य तेजस्विन् ! अग्रणी ! (हि) निश्चय से (वं ) तू ( मानुषे जने ) मननशील मनुष्य पर ( सुप्रीतः ) सुप्रसन्न होकर ( इध्यसे ) अग्निवान् ज्ञान प्रकाश से प्रकाशित होता है । है (सु-जात ) उत्तम पुत्रवत् सुखपूर्वक उत्तम गुणों से प्रसिद्ध जन ! ( सर्पिआसुते ) द्रव रूप घृत से आदीप्त, अग्निवत् गुरु से शिष्य के प्रति प्राप्त होने वाले ज्ञान से प्रकाशित विद्वन् ! ( आनुषक् ) निरन्तर (सुच) प्राण और इह लोक भी ( स्वा यन्ति ) तुझे अनुकूल होकर प्राप्त होते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सस आत्रेय ऋषिः॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १ अनुष्टुप । २ भुरिगुष्णिक् । ३ स्वराडुष्णिक् । ४ निचृद्बृहती ॥ चतुर्ऋचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    स्रुचः-सर्पिः

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) परमात्मन्! (त्वम्) = आप (हि) = निश्चय से (मानुषे जने) = विचारशील पुरुष में (सुप्रीतः) = उत्तम प्रीतिवाले होते हुए (इध्यसे) = दीप्त होते हैं। विचारशील पुरुष ही अपने हृदय में प्रभु के प्रकाश को देख पाता है। [२] हे (सुजात) = उत्तम प्रादुर्भाव के कारणभूत [शोभनं जातं यस्मात्] प्रभो! (स्स्रुचः) = स्तुतिवाणियाँ (आनुषक्) = निरन्तर (त्वा) = आपको यन्ति प्राप्त होती हैं। हम सदा आपका स्तवन करते हैं। हे (आसुते) = समन्तात् ऐश्वर्यवाले प्रभो! (सर्पिः) = सर्पि = [उदक = रेतःकण] यह शरीर में ही स्थित रेतः कण आपको प्राप्त होते हैं । अर्थात् शरीर में सुरक्षित हुए-हुए ये रेतः कण ज्ञानाग्नि को दीप्त करके मुझे आपका दर्शन कराते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम विचारशील बनें। हमारे मुख से स्तुतिवाणियाँ उच्चरित हों। हम रेतः कणों के रक्षण से ज्ञानाग्नि को दीप्त करके आपको देखनेवाले बनें, समन्तात् आपके ऐश्वर्य का अनुभव करें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसा अग्नी इंधन व घृत इत्यादींमुळे वृद्धिंगत होतो तसेच विद्या व शुभ गुण प्राप्त करून निरंतर वृद्धी करा. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, fire of life, loved and kindled, you shine and blaze in the human community. Excellent in form and beauty by birth and nature you are, and ladles full of ghrta move to you in love and faith and, on the oblations of ghrta, you rise and shine among humanity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject of enlightened persons is dealt.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O well-born learned person ! you are purifier like the fire. As the fire is enkindled with ghee, in the same manner, you are enkindled in a famous man, when well pleased with him. As the ladle and other implements of the Yajna are received suitable by you like wise you should be agreeable to all.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! the fire grows by the use of the sticks and ghee etc. Likewise, you should grow constantly by acquiring knowledge and cultivating good virtues.

    Foot Notes

    (जने) प्रसिद्ध। = Distinguished, famous. (आनुषक) आनुकूल्येन । = Suitably, agreeably.

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