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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 67 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 67/ मन्त्र 4
    ऋषिः - यजत आत्रेयः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    ते हि स॒त्या ऋ॑त॒स्पृश॑ ऋ॒तावा॑नो॒ जने॑जने। सु॒नी॒थासः॑ सु॒दान॑वों॒ऽहोश्चि॑दुरु॒चक्र॑यः ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ते । हि । स॒त्याः । ऋ॒त॒ऽस्पृशः॑ । ऋ॒तऽवा॑नः । जने॑ऽजने । सु॒ऽनी॒थासः॑ । सु॒ऽदान॑वः । अं॒होः । चि॒त् । उ॒रु॒ऽचक्र॑यः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ते हि सत्या ऋतस्पृश ऋतावानो जनेजने। सुनीथासः सुदानवोंऽहोश्चिदुरुचक्रयः ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ते। हि। सत्याः। ऋतऽस्पृशः। ऋतऽवानः। जनेऽजने। सुऽनीथासः। सुऽदानवः। अंहोः। चित्। उरुऽचक्रयः ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 67; मन्त्र » 4
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वांसः कीदृशा भूत्वा किं कुर्य्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! हि यतो जनेजने ये सत्या ऋतस्पृश ऋतावानः सुदानवस्सुनीथास उरुचक्रयोंऽहोश्चित्पृथग्भूताः स्युस्ते सर्वदा सर्वथा सत्कर्त्तव्या भवन्तु ॥४॥

    पदार्थः

    (ते) (हि) यतः (सत्याः) सत्सु साधवः (ऋतस्पृशः) य ऋतं सत्यं यथार्थं स्पृशन्ति स्वीकुर्वन्ति ते (ऋतावानः) ऋतं सत्यं मतं कर्म वा विद्यते येषु ते (जनेजने) मनुष्ये मनुष्ये (सुनीथासः) सुनीतिप्रदाः (सुदानवः) शोभनं सद्विद्यादिदानं येषान्ते (अंहोः) अपराधात् (चित्) अपि (उरुचक्रयः) बहुकर्त्तारो महापुरुषार्थिनः ॥४॥

    भावार्थः

    ये स्वयं धर्म्यगुणकर्म्मस्वभावाः सन्तो दुष्टाचाराद् पृथग्वर्त्तित्वाऽन्यान्मनुष्यांस्तादृशान् कुर्वन्ति ते धन्यवादार्हाः सन्ति ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वान् कैसे होकर क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (हि) जिससे (जनेजने) मनुष्य मनुष्य में जो (सत्याः) श्रेष्ठों में श्रेष्ठ (ऋतस्पृशः) यथार्थ को स्वीकार करनेवाले (ऋतावानः) सत्य मत वा कर्म्म विद्यमान जिनमें वे (सुदानवः) सुन्दर श्रेष्ठ विद्या आदि का दान जिनका और (सुनीथासः) उत्तम नीति के देने और (उरुचक्रयः) बहुत करनेवाले बड़े पुरुषार्थी हुए (अंहोः) अपराध से (चित्) भी (पृथक्) हुए होवें (ते) वे सर्वदा सब प्रकार से सत्कार करने योग्य हों ॥४॥

    भावार्थ

    जो स्वयं धर्मयुक्त गुण, कर्म और स्वभाववाले हुए दुष्ट आचरण से पृथक् वर्त्ताव करके अन्य मनुष्यों को तादृश अर्थात् अपने समान करते हैं, वे धन्यवाद के योग्य हैं ॥४॥

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    विषय

    सब अन्य अधिकारियों का वर्णन ।

    भावार्थ

    भा०- ( ते हि ) और वे निश्चय से ( सत्याः ) सत्याचरणशील,(ऋत-स्पृशः)तेजस्वी,(ऋतावानः) ऐश्वर्यवान् ( सुनीथाः) उत्तम वेद वाणी के बोलने हारे, ( सु-दानवः) उत्तम दानशील पुरुष ( जने जने ) ( अंहो: चित् ) पाप से भी मुक्त होकर ( उरु-चक्रयः ) बहुत बड़े २ कार्य करने वाले हों ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    यजत आत्रेय ऋषिः ।। मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्द:- १, २, ४ निचृदनुष्टुप् । ३, ५ विराडनुष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'सत्या ऋतस्पृशः' [वरुण-मित्र- अर्यमा]

    पदार्थ

    [१] (ते) = वे, गतमन्त्र में वर्णित 'वरुण, मित्र और अर्यमा' (हि) = ही (सत्या:) = सत्यस्वरूप हैं (ऋतस्पृशः) = ऋत का स्पर्श करनेवाले हैं। जीवन के अन्दर ऋत का धारण करते हैं। ये (जने जने) = प्रत्येक व्यक्ति में (ऋतावान:) = ऋत का रक्षण करनेवाले हैं। इन के कारण मन में असत्य का प्रवेश नहीं होता और शरीर की सब क्रियाएँ ऋतवाली होती हैं । [२] ये 'वरुण-मित्र - अर्यमा' (सुनीथासः) = उत्तम मार्ग से ले चलनेवाले हैं, (सुदानव:) = बुराइयों को अच्छी प्रकार काटनेवाले हैं। और (अंहोः चित्) = कुटिल व्यक्ति से भी (उरु चक्रयः) = विशाल कर्मों को करानेवाले होते हैं । वस्तुतः ये उसकी कुटिलता को दूर करके उसके जीवन को पवित्र बना देते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ– 'स्नेह, निद्वेषता व शत्रु संयम' से मन में सत्य व शारीरिक क्रियाओं में ऋत की स्थिति होती है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे स्वतः धार्मिक गुण, कर्म स्वभावाचे असून दुष्ट आचरणापासून दूर राहून इतर माणसांना स्वतःप्रमाणे करतात ते धन्यवाद देण्यायोग्य असतात. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Surely they are the best and highest in truth, keepers of the rule of law and rectitude, dedicated to universal truth and law, generous among and for every community, holy guided guides of the people, and they keep the wheel of Dharma moving against the evil of ignorance, injustice, poverty and sloth of every kind.

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