ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 68/ मन्त्र 3
ता नः॑ शक्तं॒ पार्थि॑वस्य म॒हो रा॒यो दि॒व्यस्य॑। महि॑ वां क्ष॒त्रं दे॒वेषु॑ ॥३॥
स्वर सहित पद पाठता । नः॒ । शक्त॑म् । पार्थि॑वस्य । म॒हः । रा॒यः । दि॒व्यस्य॑ । महि॑ । वा॒म् । क्ष॒त्रम् । दे॒वेषु॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ता नः शक्तं पार्थिवस्य महो रायो दिव्यस्य। महि वां क्षत्रं देवेषु ॥३॥
स्वर रहित पद पाठता। नः। शक्तम्। पार्थिवस्य। महः। रायः। दिव्यस्य। महि। वाम्। क्षत्रम्। देवेषु ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 68; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राज्यं कथमुन्नेयमित्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! [यो] नः पार्थिवस्य महो रायो दिव्यस्य शक्तं ययोर्वां देवेषु महि क्षत्रं वर्त्तते ता युवां वयं सत्कुर्य्याम ॥३॥
पदार्थः
(ता) तौ (नः) अस्माकम् (शक्तम्) समर्थम् (पार्थिवस्य) पृथिव्यां विदितस्य (महः) महतः (रायः) धनस्य (दिव्यस्य) दिवि शुद्धे व्यवहारे भवस्य (महि) महत् (वाम्) युवयोः (क्षत्रम्) राज्यं धन वा (देवेषु) सत्यविद्यां प्राप्तेषु ॥३॥
भावार्थः
हे राजपुरुषा ! युष्माभिर्यदि स्वं राज्यं विद्वद्भी रक्ष्येत तर्हि तत्पृथिव्यां विदितं समर्थं जायेत ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राज्य कैसे उन्नति को प्राप्त करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (नः) हम लोगों के सम्बन्ध में (पार्थिवस्य) पृथिवी में विदित (महः) बड़े (रायः) धन के और (दिव्यस्य) शुद्ध व्यवहार में हुए का (शक्तम्) समर्थ, जिन (वाम्) आप दोनों का (देवेषु) सत्य विद्या को प्राप्त हुओं में (महि) बड़ा (क्षत्रम्) राज्य वा धन वर्त्तमान है (ता) उन आप दोनों का हम लोग सत्कार करें ॥३॥
भावार्थ
हे राजपुरुषो ! आप लोग जो अपने राज्य वा विद्वानों से रक्षा करें तो वह पृथिवी में विदित हुआ समर्थ होवे ॥३॥
विषय
वैद्युत और भौम अग्निवत् सभा-सेना के अध्यक्षों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
भा०- ( ता ) वे आप दोनों सभा व सेना के अध्यक्ष जनो ! (नः) हमारे (महः ) बड़े भारी (पार्थिवस्य) पृथिवी और (दिव्यस्य ) न्याय व्यवहार, वार्त्ता आदि व्यापारों से प्राप्त ( रायः ) धन के ऊपर ( शक्तम् ) शक्तिमान् बनो । ( वां) आप दोनों का ( देवेषु) दानशील, व्यवहारकुशल और तेजस्वी पुरुषों में ( महि क्षत्रं ) बड़ा भारी बल विद्यमान है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
यजत आत्रेय ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्द:- १, २ गायत्री । ३,४ निचृद्गायत्री । ५ विराड् गायत्री ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
विषय
'दिव्य व पार्थिव' ऐश्वर्य
पदार्थ
[१] (ता) = वे दोनों मित्र और वरुण (नः) = हमारे लिये (पार्थिवस्य) = शरीररूप पृथिवी-सम्बन्धी (महः रायः) = महत्त्वपूर्ण ऐश्वर्य के, अर्थात् शक्ति के तथा (दिव्यस्य) = मस्तिष्करूपी द्युलोक सम्बन्धी महान् ऐश्वर्य, अर्थात् ज्ञान के (शक्तम्) = देने में समर्थ हैं। स्नेह व निर्देषता से शरीर में शक्ति व मस्तिष्क में ज्ञान का संचार होता है । [२] (वाम्) = आप दोनों का, स्नेह व निर्दोषता का (देवेषु) = सब देववृत्ति के पुरुषों में (महिक्षत्रम्) = महनीय बल होता है। सब देव इन्हीं से बल-सम्पन्न बनते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- स्नेह व निर्देषता से ही शक्ति व ज्ञान की प्राप्त भी होती है।
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजपुरुषांनो! तुम्ही आपल्या राज्याच्या विद्वानांचे रक्षण केल्यास पृथ्वीवर प्रसिद्ध होऊन समर्थ व्हाल. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Great is your power and potential for us over the wealth and excellence of heavenly and earthly values, culture and conduct and behaviour. Great is your rule and order over the divinities of nature and humanity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should the State be developed is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! help us to attain the wealth, that is well-known on the earth (because of being honestly earned. Ed.) and that which is achieved by pure conduct. Great is your kingdom or wealth among the enlightened persons.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O officers of the State! if you get your kingdom protected by the enlightened persons, it may then become well famous on earth and very (efficiently run. Ed.)
Foot Notes
(पार्थिवस्य) पृथिव्यां विदितस्य। = Of well known or famous on earth. (दिव्यस्य) दिवि - शुद्ध व्यवहारे भवस्य । दिवुधातोयं महारार्थमादाय व्याख्या | = Born out of pure dealings. (क्षलम् ) राज्यं धर्मो वा । क्षतात् किल नायत इत्युदग्र: । क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढः । इति क्षत्र- शब्दस्य व्याख्यानं कविकालिदासेन कृतमव स्मरणीयम्। = Kingdom and wealth.
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