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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 8/ मन्त्र 7
    ऋषिः - इष आत्रेयः देवता - अग्निः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    त्वाम॑ग्ने प्र॒दिव॒ आहु॑तं घृ॒तैः सु॑म्ना॒यवः॑ सुष॒मिधा॒ समी॑धिरे। स वा॑वृधा॒न ओष॑धीभिरुक्षि॒तो॒३॒॑भि ज्रयां॑सि॒ पार्थि॑वा॒ वि ति॑ष्ठसे ॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वाम् । अ॒ग्ने॒ । प्र॒ऽदिवः॑ । आऽहु॑तम् । घृ॒तैः । सु॒म्न॒ऽयवः॑ । सु॒ऽस॒मिधा॑ । सम् । ई॒धि॒रे॒ । सः । व॒वृ॒धा॒नः । ओष॑धीऽभिः । उ॒क्षि॒तः । अ॒भि । ज्रयां॑सि । पार्थि॑वा । वि । ति॒ष्ठ॒से॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वामग्ने प्रदिव आहुतं घृतैः सुम्नायवः सुषमिधा समीधिरे। स वावृधान ओषधीभिरुक्षितो३भि ज्रयांसि पार्थिवा वि तिष्ठसे ॥७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वाम्। अग्ने। प्रऽदिवः। आऽहुतम्। घृतैः। सुम्नऽयवः। सुऽसमिधा। सम्। ईधिरे। सः। ववृधानः। ओषधीभिः। उक्षितः। अभि। ज्रयांसि। पार्थिवा। वि। तिष्ठसे ॥७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 8; मन्त्र » 7
    अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वद्विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने ! यथा सुम्नायवो घृतैः सुषमिधा प्रदिव आहुतं यं समीधिरे स वावृधान उक्षितस्त्वमोषधीभिः पार्थिवा अभि ज्रयांसि वि तिष्ठसे तथा त्वां सततं वयं सुखयेम ॥७॥

    पदार्थः

    (त्वाम्) शिल्पविद्योपदेशकम् (अग्ने) विद्वन् (प्रदिवः) प्रकृष्टात् प्रकाशात् (आहुतम्) गृहीतम् (घृतैः) प्रदीपकैः साधनैः (सुम्नायवः) य आत्मनः सुम्नमिच्छवः (सुषमिधा) सम्यक् प्रदीपकेनेन्धनेन (सम्) (ईधिरे) सम्यक् प्रदीपयन्ति (सः) (वावृधानः) भृशं वर्धनः (ओषधीभिः) सोमयवादिभिः (उक्षितः) संसिक्तः (अभि) (ज्रयांसि) वेगयुक्तानि कर्माणि (पार्थिवा) पृथिव्यां विदितानि (वि) (तिष्ठसे) ॥७॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! यथा विद्वांसः सर्वेभ्यः पदार्थेभ्यो विद्युद्विद्यामुत्पादयन्ति तथा विद्वांसः सर्वतो गुणान् गृह्णन्तीति ॥७॥ अत्राग्निविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां महाविदुषां श्रीमद्विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण दयानदसरस्वतीस्वामिना विरचिते सुप्रमाणयुक्ते संस्कृतार्य्यभाषाभ्यां विभूषित ऋग्वेदभाष्ये तृतीयाष्टकष्टमोऽध्यायः षड्विंशो वर्गस्तृतीयाष्टकश्च पञ्चमे मण्डलेऽष्टमं सूक्तञ्च समाप्तम् ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वद्विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) विद्वन् ! जैसे (सुम्नायवः) अपने सुख की इच्छा करनेवाले जन (घृतैः) प्रकाशित करनेवाले साधनों और (सुषमिधा) उत्तम प्रकार प्रकाश करनेवाले इन्धन के साथ (प्रदिवः) अत्यन्त प्रकाश से (आहुतम्) ग्रहण किये गये जिनको (सम्, ईधिरे) उत्तम प्रकार प्रकाशित करते हैं (सः) वह (वावृधानः) निरन्तर बढ़नेवाले (उक्षितः) उत्तम प्रकार सींचे गये आप (ओषधीभिः) सोमलता और यवादिकों से (पार्थिवा) पृथिवी में विदित (अभि) सब ओर से (ज्रयांसि) वेगयुक्त कर्मों को (वि, तिष्ठसे) विशेष करके स्थित करते हो, वैसे (त्वाम्) आप को निरन्तर हम लोग सुख देवें ॥७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे विद्वान् जन सब पदार्थों से बिजुली की विद्या को उत्पन्न करते हैं, वैसे विद्वान् जन सब से गुणों को ग्रहण करते हैं ॥७॥ इस सूक्त में अग्नि, और विद्वान् के गुण वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्य महाविद्वान् श्रीमद्विरजानन्दसरस्वती स्वामीजी के शिष्य श्री दयानदसरस्वती स्वामिविरचित उत्तम प्रमाणयुक्त संस्कृत और आर्य्यभाषाविभूषित ऋग्वेदभाष्य में तृतीयाष्टक में अष्टम अध्याय और छब्बीसवाँ वर्ग, तीसरा अष्टक तथा पञ्चम मण्डल में अष्टम सूक्त समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    गृहपतिवत् उसका वर्त्तन । प्रजाओं द्वारा राजा की चाह । और प्रजाओं: के प्रति उसके कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    भा०-जिस प्रकार ( घृतैः आहुतं सु-समिधा ) घृतों से आहुति प्राप्त अग्नि को उत्तम समिधा से प्रदीप्त करते हैं उसी प्रकार हे (अग्ने) ज्ञानवन् ! तेजस्विन्! विद्वन्! राजन् ! (प्र-दिवः) उत्तम ज्ञान प्रकाश, और व्यवहार के लिये ( घृतैः आ-हुतम् ) स्नेहों से सिक्त, ( त्वाम् ) तुझको (सुम्नायवः) सुख चाहने वाले लोग (सु-समिधा) उत्तम दीप्ति से (समी-धिवरे ) खूब प्रकाशित करें। (सः) वह तू ( ओषधीभिः) उत्तम यव, अन्न, सोम, सुगन्धयुक्त रोगनाशक ओषधियों से (उक्षितः) पालित पोषित होकर काष्ठों, चरुओं से बढ़े अग्नि के तुल्य ( वावृधानः ) बराबर बढ़ता हुआ, ( पार्थिवा ) पृथिवी के स्वामियों के योग्य ( ज्रयांसि) वेग युक्त, बलशाली कर्मों को ( वि तिष्ठसे ) विविध प्रकार से कर । इति षड् विंशो वर्गः ॥ इत्यष्टमोऽध्यायः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    इष आत्रेय ऋषिः ॥ अग्निदेवता ॥ छन्द:- १, ५ स्वराट् त्रिष्टुप् । २ भुरिक् त्रिष्टुप् । ३, ४, ७ निचृज्जगती । ६ विराड्जगती ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    प्रदिवः - सुम्नायवः

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! (आहुतम्) = चारों ओर दानोंवाले (त्वाम्) = आपको (प्रदिवः) = प्रकृष्ट द्युतिवाले, (सुम्नायवः) = स्तोत्रों को अपनाने की कामनावाले उपासक सुषमिधा उत्तम ज्ञान दीप्ति के द्वारा (समीधिरे) = अपने अन्दर समिद्ध करते हैं। प्रभु दर्शन का उपाय 'ज्ञान- स्तवन' ही है। [२] हे प्रभो ! (सः) = वे आप (वावृधान:) = खूब ही हमारा वर्धन करते हुए, (ओषधीभिः उक्षितः) = ओषधियों के द्वारा हृदयों में सिक्त हुए हुए [प्रभु-दर्शन के लिये वानस्पतिक भोजन ही ठीक है] (पार्थिवा ज्रयांसि) = सब पृथिवी सम्बन्धी विजयों के [ज्रि= to conquer] (अभि वि तिष्ठसे) = अधिष्ठाता होते हैं । अर्थात् आपके द्वारा ही सब पार्थिव विजयें प्राप्त होती हैं। इस पृथ्वीरूप शरीर में होनेवाली सब विजयें आप ही करते हैं 'जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम्' ।

    भावार्थ

    भावार्थ- ज्ञान व स्तवन के समन्वय से हम प्रभु को हृदयों में समिद्ध करें। प्रभु प्राप्ति के वानस्पतिक भोजनों को अपनाएँ । प्रभु ही हमें सब विजयों को प्राप्त करायेंगे । इस सूक्त के सातों मन्त्र 'त्वाम' इस प्रकार प्रारम्भ होते हैं। केवल पञ्चम मन्त्र का 'त्वमग्ने' इस प्रकार प्रारम्भ हुआ है। प्रभु के उपासन से यह उपासक प्राणशक्ति सम्पन्न बनता है, सो 'गय' है यह 'आत्रेय' तो है ही, काम-क्रोध-लोभ से ऊपर उठा हुआ। यह कहता है कि -

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे विद्वान सर्व पदार्थांतून विद्युतची विद्या उत्पन्न करतात तसेच विद्वान लोकही गुण ग्रहण करतात. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, light of life invoked and received from the revelations of heaven, enlightened people in pursuit of self-realisation enkindle and raise you in the vedi with fuel and ghrta of the holiest kind. They light you in the heart with the fuel of their sense and mind and self-awareness. And you, rising with the fuel and sprinkled with ghrta, ever abide expansive in all their business of earthly existence.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of the enlightened persons are further told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person ! as men desirous of happiness, enkindle with ghee and other things and with good fuel, the fire endowed with light, in the same manner, you being great and using ghee etc. make others grow with Soma, barley and other nourishing substances and thus perform speedy works known on the face of the entire earth, so let us make you happy, who are preacher and teacher of technology.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! as highly learned persons or scientists generate energy from all resources, so the Enlighted persons accept virtues from all sides.

    Foot Notes

    (ज्रयान्सि) वेगयुक्तानि कर्माणि। =` Works full of speed. (उक्षितः) संसिक्तः । उक्ष सेचने उक्षित इति महन्नाम (NG 3, 3)। = Sprinkled. (धृतैः) प्रदीपकैः साधनैः । घु-क्षरण दीप्त्योः (जु.हो.) । = Enkindling means.

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