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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 64 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 64/ मन्त्र 4
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - उषाः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सु॒गोत ते॑ सु॒पथा॒ पर्व॑तेष्ववा॒ते अ॒पस्त॑रसि स्वभानो। सा न॒ आ व॑ह पृथुयामन्नृष्वे र॒यिं दि॑वो दुहितरिष॒यध्यै॑ ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ऽगा । उ॒त । ते॒ । सु॒ऽपथा॑ । पर्व॑तेषु । अ॒वा॒ते । अ॒पः । त॒र॒सि॒ । स्व॒भा॒नो॒ इति॑ स्वऽभानो । सा । नः॒ । आ । व॒ह॒ । पृ॒थु॒ऽया॒म॒न् । ऋ॒ष्वे॒ । र॒यिम् । दि॒वः॒ । दु॒हि॒तः॒ । इ॒ष॒यध्यै॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुगोत ते सुपथा पर्वतेष्ववाते अपस्तरसि स्वभानो। सा न आ वह पृथुयामन्नृष्वे रयिं दिवो दुहितरिषयध्यै ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुऽगा। उत। ते। सुऽपथा। पर्वतेषु। अवाते। अपः। तरसि। स्वभानो इति स्वऽभानो। सा। नः। आ। वह। पृथुऽयामन्। ऋष्वे। रयिम्। दिवः। दुहितः। इषयध्यै ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 64; मन्त्र » 4
    अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्सा स्त्री कीदृशी भवेदित्याह ॥

    अन्वयः

    हे स्वभानो पृथुयामन्नृष्वे ! त्वमनया भार्यया सह रयिमा वह नोऽवाप इव दुःखानि तरसि, अवाते पर्वतेषु सुपथा गच्छसि या ते सुगा स्त्री वा हे दिवो दुहितरिव वर्त्तमाने स्त्रि ! त्वं पतिमिषयध्यै उतापि ते पतिर्हृद्यो भवेत् सा त्वं नः सुपथा सुखमा वह ॥४॥

    पदार्थः

    (सुगा) सुष्ठु गन्तुं योग्या (उत) अपि (ते) तव (सुपथा) शोभनेन मार्गेण (पर्वतेषु) शैलेषु (अवाते) निर्वाते (अपः) जलानि (तरसि) (स्वभानो) स्वकीयदीप्ते (सा) (नः) अस्मान् (आ) (वह) गमय (पृथुयामन्) बहुप्रापक (ऋष्वे) महागुणयुक्त (रयिम्) श्रियम् (दिवः) प्रकाशस्य (दुहितः) कन्येव वर्त्तमाने (इषयध्यै) गन्तुम् ॥४॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सुनीतयो राजानः पर्वतेष्वपि सुमार्गान्निर्माय सर्वान् पथिकान् सुखयन्ति यथोषा मार्गान् प्रकाशयति तथैवोत्तमाः परस्परं प्रसन्नाः स्त्रीपुरुषा धर्ममार्गं संशोध्य परोपकारं प्रकाशयन्ति ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह स्त्री कैसी हो, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (स्वभानो) अपनी दीप्तियुक्त (पृथुयामन्) बहुत पदार्थों की प्राप्ति करानेवाले (ऋष्वे) महान् गुणयुक्त विद्वन् ! आप इस स्त्री के साथ (रयिम्) लक्ष्मी को (आ, वह) प्राप्त कराइये और (नः) हम लोगों की रक्षा करिये तथा (अपः) जलों के समान दुःखों को (तरसि) तरते अर्थात् उनसे अलग होते हो और (अवाते) निर्वात होने से (पर्वतेषु) पर्वतों में जैसे सुपथ से जाते हो तथा जो (ते) तुम्हारी (सुगा) सुन्दरता से जाने योग्य स्त्री वा हे (दिवः) प्रकाश की (दुहितः) कन्या के समान वर्त्तमान स्त्री ! तू पति को (इषयध्यै) प्राप्त होने योग्य हो (उत) और तेरा पति तेरे मन का प्रिय हो (सा) तू हम लोगों को (सुपथा) अच्छे मार्ग से सुख प्राप्त करा ॥४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अच्छी नीतिवाले राजजन पर्वतों में भी अच्छे मार्गों को बनाकर सब मार्ग चलनेवालों को सुखी करते हैं वा जैसे उषा (प्रभातवेला) मार्गों को प्रकाशित करती है, वैसे ही उत्तम परस्पर प्रसन्न स्त्री पुरुष धर्ममार्ग का संशोधन कर परोपकार का प्रकाश कराते हैं ॥४॥

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    विषय

    उषा के दृष्टान्त से वरवर्णिनी वधू और विदुषी स्त्री के कर्त्तव्य

    भावार्थ

    उषा जिस प्रकार ( दिवः दुहिता ) प्रकाश वा प्रकाशवान् सूर्य से उत्पन्न होने, वा प्रकाशों के देने, वा जगत् को पूर्ण करने से ‘दिवः दुहिता’ है । वह पर्वतों या मेघों पर भी पड़ती, (स्वभानुः) स्वतः कान्तिमती होकर समस्त प्राणिवर्ग को जीवन देती है उसी प्रकार हे ( दिवः दुहितः) समस्त कामनाओं को पूर्ण करने हारी, स्त्रि ! ( ते ) तेरे लिये (पर्वतेषु ) पर्वतों में वा पर्वत मेघवत् पालन करने वाले सम्बन्धि जनों के बीच ( सु-पथा ) उत्तम २ सदाचार और धार्मिक मार्ग (सुगा) सुख से गमन करने योग्य हों। उनके बीच दुराचार के कुमार्गों पर तू कभी पैर न रख । ( अवाते अपः तरसि ) प्रचण्ड बात से रहित शान्त अवसर में जिस प्रकार महासमुद्र का जल पार किया जाता है उसी प्रकार हे (स्व-भानो) स्वयं अपनी कान्ति से चमकने हारी हे ( दिवः दुहितः ) उत्तम संकल्पों के उत्पन्न करने हारी स्त्रि ! तू भी (अवाते ) विघ्नादि नाशक कारणों से रहित वा अहिंसक पुरुष अधीन रहकर ( अपः ) अपने नाना कर्मों को अन्तरिक्ष वा जलमार्ग के समान ( तरसि ) पार कर । ( ता ) वह तू ( पृथु-यामन् ) बड़े भारी (ऋष्वे ) महान धर्म में रहकर ( मः ) हमें, ( इपषध्यै ) आदर सत्कार करती हुई ( नः आवह ) हमें प्राप्त कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः – १, २, ६ विराट् त्रिष्टुप् । ३ त्रिष्टुप् । ४ निचृत्त्रिष्टुप् । ५ पंक्ति: ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    प्रकाश व ज्ञानैश्वर्य

    पदार्थ

    [१] हे (स्वभानो) = आत्म-दीप्तिवाली उषे! (पर्वतेषु) = पर्वत आदि दुर्गम स्थानों में (उत) = और (अवाते) = [वा गतौ] गमन साधन रहित, मार्ग रहित प्रदेशों में भी (ते) = तेरे (सुपथा) = उत्तम मार्ग (सुगा) = सुखेन गन्तव्य होते हैं। उषा के होने पर दुर्गम स्थानों में जाना भी आसान हो जाता है। हे उषे! तू मार्गों को सुखेन गन्तव्य करती हुई (अपः तरसि) = सब कर्मों को तैर जाती है, सब कर्मों में सफलता का कारण बनती है। [२] हे (ऋष्वे) = दर्शनीय, (दिवः दुहितः) = प्रकाश का पूरण करनेवाली उषे ! (सा) = वह तू (न:) = हमारे लिये (पृथुयामन्) = इस विशाल जीवन मार्ग में (इषयध्यै) = [इष्= प्रेरणा] प्रभु प्रेरणा को सुन सकने के लिये (रयिं आवह) = ज्ञानैश्वर्य को प्राप्त करानेवाली हो । हम ज्ञान के मार्ग पर चलते हुए प्रभु प्रेरणा को सुननेवाले बनें। इस प्रभु प्रेरणा के अनुसार इस विशाल जीवनयात्रा को पूर्ण करनेवाले हों।

    भावार्थ

    भावार्थ- उषा के प्रकाश में दुर्गम मार्ग रहित प्रदेश भी सुखेन गन्तव्य हो जाते हैं। मार्गों से चलते हुए हम अपने कर्मों को सिद्ध कर पाते हैं। यह उषा हमें ज्ञानैश्वर्य को प्राप्त कराये और प्रभु प्रेरणा को सुनने के योग्य बनाये।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे नीतिमान राजजन पर्वतामध्येही चांगले मार्ग तयार करून प्रवाशांना सुखी करतात किंवा उषा मार्गाला प्रकाशित करते तसे उत्तम व प्रसन्न स्त्री-पुरुष परस्पर मिळून धर्ममार्गाचे संशोधन करून परोपकाराचा प्रकाश पसरवितात. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O self-refulgent dawn, holy and easy are your paths over the clouds and mountains over which you radiate across the calm oceans of space without a stir of the wind. O glorious child of the light of heaven, commanding wide expanses of the universe, bring us the wealth, honour and excellence of the world for complete fulfilment of our heart’s desire.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should a woman be-is further told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O husband! shining by your splendor, conveyor of many good things and endowed with great virtues, with this your wife, bring wealth. Like the water's, you swim across all miseries. You go comfortably in places, where the wind is not blowing, and in hills by good paths along with your wife, who can walk well. O woman! you who are like the daughter of light, may your husband be dear and lovely to you, so that you go to him with pleasure. Lead us to happiness by good path of Dharma or righteousness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As kings of good policies make all travelers happy by constructing good roads even on hills and as the dawn illuminates all paths, so good husbands and wives pleased with one another reforming the path of Dharma (righteousness), illuminate benevolence.

    Foot Notes

    (ऋष्ये) महागुणयुक्त । ऋष्वः इति महन्नाम (NG 3, 3 ) = Endowed with great virtues. (इवयध्ये) गन्तुम् । इष-गतौ (दिवा.) । = For going.

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