ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 8/ मन्त्र 2
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - वैश्वानरः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स जाय॑मानः पर॒मे व्यो॑मनि व्र॒तान्य॒ग्निर्व्र॑त॒पा अ॑रक्षत। व्य१॒॑न्तरि॑क्षममिमीत सु॒क्रतु॑र्वैश्वान॒रो म॑हि॒ना नाक॑मस्पृशत् ॥२॥
स्वर सहित पद पाठसः । जाय॑मानः । प॒र॒मे । विऽओ॑मनि । व्र॒तानि॑ । अ॒ग्निः । व्र॒त॒ऽपाः । अ॒र॒क्ष॒त॒ । वि । अ॒न्तरि॑क्षम् । अ॒मि॒मी॒त॒ । सु॒ऽक्रतुः॑ । वै॒श्वा॒न॒रः । म॒हि॒ना । नाक॑म् । अ॒स्पृ॒श॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स जायमानः परमे व्योमनि व्रतान्यग्निर्व्रतपा अरक्षत। व्य१न्तरिक्षममिमीत सुक्रतुर्वैश्वानरो महिना नाकमस्पृशत् ॥२॥
स्वर रहित पद पाठसः। जायमानः। परमे। विऽओमनि। व्रतानि। अग्निः। व्रतऽपाः। अरक्षत। वि। अन्तरिक्षम्। अमिमीत। सुऽक्रतुः। वैश्वानरः। महिना। नाकम्। अस्पृशत् ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 8; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे विद्वांसो ! युष्माभिर्यो व्रतपा अग्निः परमे व्योमनि जायमानो व्रतान्यरक्षतान्तरिक्षं व्यमिमीत सुक्रतुर्वैश्वानरो महिना नाकमस्पृशत् स वेदितव्यः ॥२॥
पदार्थः
(सः) सूर्य्यरूपेण (जायमानः) उत्पद्यमानः (परमे) प्रकृष्टे (व्योमनि) व्योमवद्व्यापके (व्रतानि) सत्यभाषणादीनि कर्म्माणि (अग्निः) पावकः (व्रतपाः) यो व्रतानि कर्म्माणि रक्षति सः (अरक्षत) रक्षति (वि) (अन्तरिक्षम्) उदकम् (अमिमीत) रचयति (सुक्रतुः) शोभनकर्म्मा (वैश्वानरः) विश्वेषु नरेषु प्रकाशमानः (महिना) महत्त्वेन (नाकम्) अविद्यमानदुःखम् (अस्पृशत्) स्पृशति ॥२॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! येन परमेश्वरेण स्वस्मिन् सूर्य्यादिलोकनिर्म्माणेन सर्वेषामुपकारः कृतस्तस्य सत्यानि कर्म्माण्यनुष्ठायोपासनां कुर्वन्तु ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वान् जनो ! आप लोगों को जो (व्रतपाः) कर्म्मों की रक्षा करनेवाला (अग्निः) अग्नि (परमे) श्रेष्ठ और (व्योमनि) आकाश के सदृश व्यापक परमेश्वर में (जायमानः) उत्पन्न होता हुआ (व्रतानि) सत्यभाषण आदि कर्म्मों की (अरक्षत) रक्षा करता तथा (अन्तरिक्षम्) जल की (वि) विशेष करके (अमिमीत) रक्षा करता और (सुक्रतुः) अच्छे कर्म्मोंवाला (वैश्वानरः) सम्पूर्ण मनुष्यों में प्रकाशमान होता हुआ (महिना) महत्त्व से (नाकम्) दुःखरहित का (अस्पृशत्) स्पर्श करता है (सः) वह जानने योग्य है ॥२॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जिस परमेश्वर ने अपने में सूर्य्य आदि लोकों के निर्म्माण से सब का उपकार किया, उसके सत्य कर्म्मों का अनुष्ठान करके उपासना करो अर्थात् उसी का भजन करो ॥२॥
विषय
आचार्य और व्रतपाल ब्रह्मचारी के कर्तव्यों का वर्णन ।
भावार्थ
( सः ) वह ( अग्निः ) ज्ञानवान्, विद्वान्, विनीत शिष्य ( परमे ) सबसे उत्कृष्ट ( व्योमनि ) विशेष रूप से रक्षा करने वाले, आकाशवत् विशाल, ज्ञानवान् गुरु के अधीन आकाश में सूर्य के तुल्य ( जायमानः ) जन्म लेता हुआ ( व्रत-पाः ) व्रतों का पालक होकर ( व्रतानि ) नाना व्रतों का ( अरक्षत ) पालन करे। वह ( सुक्रतुः ) उत्तम प्रज्ञावान्, उत्तम कर्मकुशल पुरुष ( वैश्वानरः ) सबका हितैषी सब शिष्यगण को सन्मार्ग पर ले जाने वाला आचार्य होकर (अन्तरिक्षम् ) रसवत् भीतर विद्यमान ज्ञान को ( वि अमिमीत ) विशेष रूप से ज्ञान करे । और ( महिना ) बड़े सामर्थ्य से ( नाकम् ) सुख को ( अस्पृशत् ) प्राप्त करे और अन्यों को प्राप्त करावे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ वैश्वानरो देवता ॥ — छन्दः — १, ४ जगती । ६ विराड् जगती । २, ३, ५ भुरिक् त्रिष्टुप् । ७ त्रिष्टुप् ।। सप्तर्चं सूक्तम् ॥
विषय
व्रतों [नियमों] के रक्षक प्रभु
पदार्थ
[१] (सः) = वह (व्रतपा:) = सब व्रतों [नियमों] का रक्षक (अग्नि:) = अग्रेणी प्रभु (परमे व्योमनि) = इस परम आकाश में, अनन्त विस्तृत आकाश में (जायमान:) = सब लोक-लोकान्तरों को जन्म देता हुआ ['माता प्रजाता'] की तरह यह प्रयोग है । (व्रतानि अरक्षत) = इन सूर्य विद्युत् अग्नि आदि देवों के व्रतों का रक्षण करते हैं। प्रभु के भय से ही सब देव अपने-अपने व्रत का पालन कर रहे हैं । [२] वे (सुक्रतुः) = शोभनकर्मा शोभन - प्रज्ञ (वैश्वानरः) = सर्वहितकर प्रभु ही (अन्तरिक्षम्) = इस अन्तरिक्षलोक को (वि अमिमीत) = विशेष निर्माणपूर्वक बनाते हैं। इस अन्तरिक्ष में सब 'रञ्जनात्मक व प्रकाशात्मक' लोकों का निर्माण करते हैं। वे प्रभु ही (महिना) = अपनी महिमा से (नाकं अस्पृशत्) = मोक्ष-सुख का स्पर्श करते हैं । अर्थात् वे ही मोक्षलोक का भी धारण करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- सब सूर्यादि पिण्ड प्रभु की व्यवस्था में ही गति कर रहे हैं। प्रभु ही सब लोकों का निर्माण करते हैं, मोक्षलोक का भी वे ही धारण करनेवाले हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो ! ज्या परमेश्वराने स्वतःमध्ये सूर्य इत्यादी गोलांना निर्माण करून सर्वांवर उपकार केलेला आहे, त्याच्या सत्यकर्माचे अनुष्ठान करून उपासना करा. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
He, Agni, ordainer of the laws of existence, manifesting in the highest heavens like the sun, protects and sustains the laws of life, being ordainer and observer of the laws of existence. Vaishvanara, immanent in the heart of humanity, holy protector of yajnic actions, pervades the firmament and, with his grand potential, gives the magic touch of refulgence to the heaven of joy-
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men do is told further.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O highly learned persons ! you should know well that Agni born in the highest heaven in the form of the sun, is the protector of good actions and causes water (rains). It is the doer of noble deeds, is shining among all men, and touches the state of liberation (where there is no misery) by its greatness.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! yon should always worship that God, doing good deeds, Who has done a very great benevolent act to us by creating the sun and other worlds.
Foot Notes
(व्रतानि) सत्यभाषणादीनि कर्माणि । व्रतमिति कर्मनाम (NG 2, 1 )। = Speaking truth and other good acts. (अन्तरिक्षम् ) उदकम् । अन्तरिक्षम् इत्युदकनाम (NG 1, 12 ) इति महर्षि दयानन्देन ऋ. 3, 34, 10 भाष्ये उदलेखि, यद्यपि वैदिक यन्त्रालयमुद्रिते निघण्टावपि न दृश्यते । अन्तरिक्षशब्दः उदकनामसु संभवतः लिपिकप्रमादवशात् । अत्रेष्टव्यानि निघण्टोविविध संस्करणानि। = Water.(वैश्वानर:) विश्वेषु नरेषु प्रकाशमानाः। = Shining among all men.
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