ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 10/ मन्त्र 4
इन्द्रं॑ नो अग्ने॒ वसु॑भिः स॒जोषा॑ रु॒द्रं रु॒द्रेभि॒रा व॑हा बृ॒हन्त॑म्। आ॒दि॒त्येभि॒रदि॑तिं वि॒श्वज॑न्यां॒ बृह॒स्पति॒मृक्व॑भिर्वि॒श्ववा॑रम् ॥४॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑म् । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । वसु॑ऽभिः । स॒ऽजोषाः॑ । रु॒द्रम् । रु॒द्रेभिः । आ । व॒ह॒ । बृ॒हन्त॑म् । आ॒दि॒त्येभिः॑ । अदि॑तिम् । वि॒श्वऽज॑न्याम् । बृह॒स्पति॑म् । ऋक्व॑ऽभिः । वि॒श्वऽवा॑रम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रं नो अग्ने वसुभिः सजोषा रुद्रं रुद्रेभिरा वहा बृहन्तम्। आदित्येभिरदितिं विश्वजन्यां बृहस्पतिमृक्वभिर्विश्ववारम् ॥४॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रम्। नः। अग्ने। वसुऽभिः। सऽजोषाः। रुद्रम्। रुद्रेभिः। आ। वह। बृहन्तम्। आदित्येभिः। अदितिम्। विश्वऽजन्याम्। बृहस्पतिम्। ऋक्वऽभिः। विश्वऽवारम् ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 10; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
को विद्वान् सततं सेवनीय इत्याह ॥
अन्वयः
हे अग्ने ! सजोषास्त्वं नो वसुभिः रुद्रेभिर्बृहन्तं रुद्रमादित्येभिर्विश्वजन्यामदितिमृक्वभिर्विश्ववारं बृहस्पतिमा वहा ॥४॥
पदार्थः
(इन्द्रम्) विद्युतम् (नः) अस्माकम् (अग्ने) पावक इव विद्वन् (वसुभिः) पृथिव्यादिभिः (सजोषाः) समानसेवी (रुद्रम्) जीवात्मानम् (रुद्रेभिः) प्राणैस्सह (आ वहा) समन्तात्प्रापय। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (बृहन्तम्) महान्तम् (आदित्येभिः) संवत्सरस्य मासैः (अदितिम्) अखण्डितां कालविद्याम् (विश्वजन्याम्) विश्वं जन्यं यया ताम् (बृहस्पतिम्) बृहत्या ऋग्वेदादिवेदवाचः पालकं परमात्मानम् (ऋक्वभिः) ऋग्वेदादिभिः (विश्ववारम्) सर्वैर्वरणीयम् ॥४॥
भावार्थः
यो हि पृथिव्यादिविद्यया सह विद्युद्विद्यां प्राणविद्यया सह जीवविद्यां कालविद्यया सह प्रकृतिविज्ञानं वेदविद्यया परमात्मानं ज्ञापयितुं शक्नोति तमेव सर्वे विद्यार्थमाश्रयन्तु ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
कौन विद्वान् निरन्तर सेवने योग्य है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य तेजस्वी विद्वन् (सजोषाः) तुल्य सेवनकर्त्ता आप (नः) हमारे लिये (वसुभिः) पृथिव्यादि के साथ (इन्द्रम्) विद्युत् अग्नि को (रुद्रेभिः) प्राणों के साथ (बृहन्तम्) बड़े (रुद्रम्) जीवात्मा को (आदित्येभिः) बारह महीनों से (विश्वजन्याम्) संसारोत्पत्ति की हेतु (अदितिम्) अखण्डित कालविद्या को और (ऋक्वभिः) ऋग्वेदादि से (विश्ववारम्) सब के स्वीकार करने योग्य (बृहस्पतिम्) बड़ी ऋग्वेदादि वाणी के रक्षक परमात्मा को (आ, वहा) अच्छे प्रकार प्राप्त कीजिये ॥४॥
भावार्थ
जो ही पृथिव्यादि विद्या के साथ बिजुली की विद्या को, प्राणविद्या के साथ जीवविद्या को, कालविद्या के साथ प्रकृति के विज्ञान को और वेदविद्या से परमात्मा के विज्ञान कराने को समर्थ होता है, उसी का सब लोग विद्या प्राप्ति के लिये आश्रय करें ॥४॥
विषय
विद्वान् का कर्त्तव्य । ईश्वर का ज्ञान प्रसार ।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) विद्वन् ! हे तेजस्विन् ! आप ( सजोषाः ) प्रेम युक्त होकर ( वसुभिः ) जल पृथिवी आदि पदार्थों द्वारा हमें ( इन्द्रं ) ऐश्वर्य युक्त, एवं भूमि पर्वतादि के विदारण में समर्थ विद्युत्, मेघ आदि को ( आ वह ) प्राप्त करा । ( आदित्येभिः ) सूर्य के द्वारा उत्पन्न मास आदि कालावयवों से ( विश्व-जन्यां ) समस्त जनों के हितकारी ( अदितिं ) अखण्ड काल के ज्ञान को और ( ऋक्वभिः ) ऋचाओं से ( विश्व-वारम् ) सबके वरने योग्य ( बृहस्पतिम् ) बड़े ब्रह्माण्ड के पालक प्रभु को ( नः आवह ) हमें प्राप्त करा । उन २ द्वारा उन २ पदार्थों का अच्छी प्रकार ज्ञान और उनका उपयोग कर । इसी प्रकार हे राजन् ! ( वसुभिः इन्द्रं ) ब्रह्मचारियों सहित आचार्य (रुद्रेभिः रुद्रं) रोगनाशक ओषधियों सहित 'रुद्र' अर्थात् वैद्य को, (आदित्येभिः अदितिं) आदान प्रतिदानकारी व्यवहारज्ञों से इस सर्व सेनोपयोगी भूमि को, और ( ऋक्वभिः ) अर्चना योग्य पुरुषों सहित सर्वदुःखवारक, बड़ों के भी पालक प्रभु वा राजा को हम प्राप्त करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, २, ३ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ५ त्रिष्टुप् ।। पञ्चर्चं सूक्तम् ।।
विषय
'इन्द्र [वसु] रुद्र व आदित्यों' के सम्पर्क में
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = परमात्मन्! (वसुभिः) = वसुओं के साथ (सजोषाः) = संगत हुए-हुए आप (नः) = लिये (इन्द्रम्) = इन्द्र को (आवहा) प्राप्त कराइये। इस जितेन्द्रिय पुरुष के सम्पर्क में हम भी इन्द्र हमारे लिये व दूर जितेन्द्रिय बनें। (रुद्रेभिः) = [रुत्+र अथवा रुत्+द्र] ज्ञानोपदेश देनेवाले अथवा रोगों को भगानेवाले इन रुद्रों के साथ संगत हुए हुए आप (बृहन्तम्) = वृद्धि के कारणभूत अथवा खूब वृद्ध [बढ़े हुए] (रुद्रम्) = इस ज्ञानोपदेष्टा व रोगहर्ता को हमारे साथ मिलाइये। [२] (आदित्येभिः) = सब ज्ञानों का आदान करनेवाले इन विद्वानों के द्वारा आप (विश्वजन्याम्) = सब मनुष्यों का हित करनेवाली (अदितिम्) = वेदवाणी [नि० १।११] को हमें प्राप्त कराइये। (ऋक्वभिः) = स्तुत्य जीवनवाले अथर्वाङ्गिरसों के द्वारा (विश्ववारम्) = सब से वरने के योग्य अथवा सब वरणीय ज्ञानोंवाले बृहस्पतिम् सर्वोत्कृष्ट ज्ञानी को हमें प्राप्त कराइये ।
भावार्थ
भावार्थ- हम ‘इन्द्र [वसु], रुद्र व आदित्य' विद्वानों के सम्पर्क में आयें। ये हमें इस वेदवाणी का ज्ञान दें तथा बृहस्पति [सर्वज्ञ प्रभु] को प्राप्त करायें।
मराठी (1)
भावार्थ
जो पृथ्वी विद्येबरोबर विद्युतविद्या, प्राणविद्येबरोबर जीवविद्या, कालविद्येबरोबर प्रकृति विज्ञान व वेदविद्येद्वारे परमात्म्याचे विज्ञान करविण्यास समर्थ असतो त्याचाच सर्व लोकांनी विद्याप्राप्तीसाठी आश्रय घ्यावा. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, lord of light and life, generous, loving and kind to all, pray bring us, lead us, to Indra, cosmic energy with the wealth and abundance of earth and other supports of life, to Rudra the soul, with pranic energies, to Aditi, infinite and eternal time and space, with a vision of the suns and origin of the universe, and to the universal lord and spirit of existence with divination into the original revelation.
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