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ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 47/ मन्त्र 2
तमू॒र्मिमा॑पो॒ मधु॑मत्तमं वो॒ऽपां नपा॑दवत्वाशु॒हेमा॑। यस्मि॒न्निन्द्रो॒ वसु॑भिर्मा॒दया॑ते॒ तम॑श्याम देव॒यन्तो॑ वो अ॒द्य ॥२॥
स्वर सहित पद पाठतम् । ऊ॒र्मिम् । आ॒पः॒ । मधु॑मत्ऽतमम् । वः॒ । अ॒पाम् । नपा॑त् । अ॒व॒तु॒ । आ॒शु॒ऽहेमा॑ । यस्मि॑न् । इन्द्रः॑ । वसु॑ऽभिः । मा॒दया॑ते । तम् । अ॒श्या॒म॒ । दे॒व॒ऽयन्तः॑ । वः॒ । अ॒द्य ॥
स्वर रहित मन्त्र
तमूर्मिमापो मधुमत्तमं वोऽपां नपादवत्वाशुहेमा। यस्मिन्निन्द्रो वसुभिर्मादयाते तमश्याम देवयन्तो वो अद्य ॥२॥
स्वर रहित पद पाठतम्। ऊर्मिम्। आपः। मधुमत्ऽतमम्। वः। अपाम्। नपात्। अवतु। आशुऽहेमा। यस्मिन्। इन्द्रः। वसुऽभिः। मादयाते। तम्। अश्याम। देवऽयन्तः। वः। अद्य ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 47; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
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अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः किं कुर्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे विद्वांसो ! यस्मिन्नाशुहेमेन्द्रो वसुभिस्सह वो युष्मान् मादयाते तमाप ऊर्मिमिव मधुमत्तममपांनपादिन्द्रो यथाऽवतु तथा वयं तं रक्षेम वो देवयन्तो वयमद्याश्याम ॥२॥
पदार्थः
(तम्) (ऊर्मिम्) तरङ्गम् (आपः) जलानीव (मधुमत्तमम्) अतिशयेन मधुरादिगुणयुक्तम् (वः) युष्मान् (अपाम्) जलानाम् (नपात्) यो न पतति (अवतु) रक्षतु (आशुहेमा) शीघ्रं वर्धको गन्ता वा (यस्मिन्) (इन्द्रः) विद्युदिव राजा (वसुभिः) धनैः (मादयाते) मादयेः हर्षयेत् (तम्) (अश्याम) प्राप्नुयाम (देवयन्तः) कामयमानाः (वः) युष्माकम् (अद्य) इदानीम् ॥२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा वायुरपान्तरङ्गानुच्छयति तथा यो राजा धनादिभिः प्रजाजनान् रक्षेत् तस्यैव वयं राजत्वाय सम्मतिं दद्याम ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वानो ! (यस्मिन्) जिसमें (आशुहेमा) शीघ्र बढ़ने वा जानेवाला (इन्द्रः) बिजुली के समान राजा (वसुभिः) धनों के साथ (वः) तुमको (मादयाते) हर्षित करे (तम्) उसको (आपः) जल (उर्मिम्) तरङ्गों को जैसे वैसे (मधुमत्तमम्) अतीव मधुरादिगुणयुक्त पदार्थ को (अपांनपात्) जो जलों के बीच नहीं गिरता है वह बिजुली के समान राजा जैसे (अवतु) रक्खे, वैसे हम लोग (तम्) उसको रक्खें और (वः) तुम लोगों की (देवयन्तः) कामना करते हुए हम लोग (अद्य) आज (अश्याम) प्राप्त होवें ॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जैसे वायु जल को तरङ्गों को उछालता है, वैसे जो राजा धनादिकों से प्रजाजनों की रक्षा करे, उसी को हम लोग राजा होने की सम्मति देवें ॥२॥
विषय
आप्त विद्वान् जनों के कर्तव्य।
भावार्थ
( यस्मिन् ) जिसके आधार पर ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान्, राजा, सेनापति, ( वसुभिः) बसे प्रजाजनों के साथ ( मादयते ) सबको प्रसन्न करता है, हे ( आपः ) आप्त जनो ! ( तं वः ऊर्मिम् ) आप लोगों के उस उत्तम उन्नत ( मधुमत्तमं ) अति मधुर गुणों से युक्त, अति बलवान् अंश ऐश्वर्य वा पुरुष वर्ग को ( आशु-हेमा ) सेना, रथों वा अश्वों को अति शीघ्र प्रेरणा करने वाला ( अपां नपात् ) जलों के बीच नाव के समान तारक, प्रजाओं को नीचे न गिरने देने और प्रबन्ध में बांधने हारा पुरुष ( अवतु ) बचावे । हे विद्वानो ! (व:) आप लोगों के उस ज्ञानमय या ऐश्वर्यमय अंश को हम ( देवयन्तः ) कामना करते हुए ( अश्याम ) प्राप्त करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ आपो देवताः॥ छन्दः—१,३ त्रिष्टुप्। विराट् त्रिष्टुप् । ४ स्वराट् पंक्तिः॥ चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
विषय
आप्तजनों के गुण
पदार्थ
पदार्थ- (यस्मिन्) = जिसके सहारे (इन्द्रः) = राजा (वसुभिः) = बसे प्रजाजनों के साथ (मादयाते) = सबको प्रसन्न करता है, हे (आपः) = आप्त जनो! (तं वः ऊर्विम्) = आप लोगों के उस उत्तम (मधुमत्तमं अति) = मधुर गुणों से युक्त पुरुष वर्ग को (आशु-हेमा) = सेना वा अश्वों को शीघ्र प्रेरक (अपां नपात्) = जलों में नाव के तुल्य तारक, प्रजाओं को नीचे न गिरने देने हारा पुरुष (अवतु) = बचावे । हे विद्वानो ! (वः) = आप लोगों के ऐश्वर्यमय अंश को हम (देवयन्तः) = चाहते हुए (अश्याम) = प्राप्त करें।
भावार्थ
भावार्थ- आप्तजन - वेदानुसार आचरणवाले विद्वान् पुरुष अपने उपदेशों द्वारा प्रेरणा करके राजनियम के पालन द्वारा प्रजाजनों को व्यवस्था में बाँधकर नीचे न गिरने दें। राजा तथा सेनापति को भी राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्य पालन की प्रेरणा करके उनमें मधुर गुणों का समावेश करें। इस प्रकार राजा-प्रजा को परस्पर जोड़कर रखें।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा वायू जलाच्या तरंगामध्ये हालचाल उत्पन्न करतो तसे जो राजा धन इत्यादींनी प्रजेचे रक्षण करतो त्यालाच आम्ही राजा या नात्याने मान्य करावे. ॥ २ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
That sweetest of honey thrill of joyous ecstasy of existence in which Indra rejoices with the wealth, honours and excellences of life may, we pray, the holy fire, infallible extension of cosmic waters, protect and promote. That same thrill and ecstasy, we pray, may we too in our pursuit of divine joy attain here and now.
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