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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 5/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - वैश्वानरः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    पृ॒ष्टो दि॒वि धाय्य॒ग्निः पृ॑थि॒व्यां ने॒ता सिन्धू॑नां वृष॒भः स्तिया॑नाम्। स मानु॑षीर॒भि विशो॒ वि भा॑ति वैश्वान॒रो वा॑वृधा॒नो वरे॑ण ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पृ॒ष्टः । दि॒वि । धायि॑ । अ॒ग्निः । पृ॒थि॒व्याम् । ने॒ता । सिन्धू॑नाम् । वृ॒ष॒भः । स्तिया॑नाम् । सः । मानु॑षीः । अ॒भि । विशः॑ । वि । भा॒ति॒ । वै॒श्वा॒न॒रः । व॒वृ॒धा॒नः । वरे॑ण ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पृष्टो दिवि धाय्यग्निः पृथिव्यां नेता सिन्धूनां वृषभः स्तियानाम्। स मानुषीरभि विशो वि भाति वैश्वानरो वावृधानो वरेण ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पृष्टः। दिवि। धायि। अग्निः। पृथिव्याम्। नेता। सिन्धूनाम्। वृषभः। स्तियानाम्। सः। मानुषीः। अभि। विशः। वि। भाति। वैश्वानरः। ववृधानः। वरेण ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्याह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वांसो ! योगिभिर्योऽग्निर्दिवि पृथिव्यां धायि सिन्धूनां स्तियानां वृषभः सन्नेता वरेण वावृधानो यो वैश्वानरो मानुषीर्विशोऽभि वि भाति स पृष्टोऽस्ति ॥२॥

    पदार्थः

    (पृष्टः) प्रष्टव्यः (दिवि) सूर्ये (धायि) ध्रियते (अग्निः) पावक इव स्वप्रकाश ईश्वरः (पृथिव्याम्) अन्तरिक्षे भूमौ वा (नेता) मर्यादायाः स्थापकः (सिन्धूनाम्) नदीनां समुद्राणां वा (वृषभः) अनन्तबलः (स्तियानाम्) अपां जलानाम्। स्तिया आपो भवन्ति स्त्यायनादिति। (निरु० ६.१७)(सः) (मानुषीः) मनुष्यसम्बन्धिनीरिमाः (अभि) (विशः) प्रजाः (वि) (भाति) प्रकाशते (वैश्वानरः) सर्वेषां नायकः (वावृधानः) सदा वर्धयिता (वरेण) उत्तमस्वभावेन ॥२॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यः सर्वस्याः प्रजाया नियमव्यवस्थायां स्थापकस्सूर्यादिप्रजाप्रकाशकः सर्वेषामुपास्यदेवो स प्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो ज्ञातव्योऽस्ति ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वानो ! योगियों से जो (अग्निः) अग्नि के तुल्य स्वयं प्रकाशस्वरूप ईश्वर (दिवि) सूर्य (पृथिव्याम्) भूमि वा अन्तरिक्ष में (धायि) धारण किया जाता (सिन्धूनाम्) नदी वा समुद्रों और (स्तियानाम्) जलों के बीच (वृषभः) अनन्तबलयुक्त हुआ (नेता) मर्यादा का स्थापक (वरेण) उत्तम स्वभाव के साथ (वावृधानः) सदा बढ़ानेवाला (वैश्वानरः) सब को अपने-अपने कामों में नियोजक (मानुषीः) मनुष्यसम्बन्धी (विशः) प्रजाओं को (अभि, वि, भाति) प्रकाशित करता है (सः) वह (पृष्टः) पूछने योग्य है ॥२॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो सब प्रजा का नियम व्यवस्था में स्थापक, सूर्यादि प्रजा का प्रकाशक, सब का उपास्य देव, वह पूछने, सुनने, जानने, विचारने और मानने योग्य है ॥२॥

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    विषय

    वैश्वानर प्रभु का वर्णन ।

    भावार्थ

    जो ( अग्निः ) अग्निवत् स्वयं प्रकाश, महान् आत्मा, ( दिवि पृथिव्यां) तेजस्वी पदार्थ सूर्य आदि, और पृथिवी आदि प्रकाश रहित पदार्थो में भी (धायि ) अग्निवत् उनको धारण करता है, जो ( सिन्धूनां नेता) बहने वाले प्रवाहों, वेग से गति करने वाले सूर्यादि का भी संचालक है जो ( स्तियानाम् वृषभः ) अप् अर्थात् प्रकृति के सूक्ष्म परमाणुओं के बीच विद्यमान और अनन्त बलशाली, उनको नियम, व्यवहार में बांधने वाला है, ( सः ) वह ( अग्निः ) सबका अग्र नायक, सर्वोत्तम संचालक ही ( वैश्वानरः ) सबको ठीक २ मार्ग में चलाने वाला होने से 'वैश्वानर' कहाता है। वही प्रभु (मानुषीः विशः) समस्त मनुष्य प्रजाओं को भी (अभि वि भाति) प्रकाशित करता और उनमें स्वयं भी प्रकाशित होता है। वह समस्त मनुष्यों में विद्यमान होने से भी 'वैश्वानर' है । वह (वरेण ) सर्वश्रेष्ठ स्वभाव से ही ( ववृधानः ) सदा सबको बढ़ाने हारा है । स्वयं भी सबसे महान् है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः॥ वैश्वानरो देवता॥ छन्दः –१, ४ विराट् त्रिष्टुप् । २, ३, ८,९ निचृत्त्रिष्टुप्। ५, ७ स्वराट् पंक्तिः। ६ पंक्तिः ॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    नेता सिन्धूनां, वृषभ: स्तियानाम्

    पदार्थ

    [१] (पृष्टः)[प्रच्छ ज्ञीप्सायाम्] (ज्ञातुम् इष्ट) = जिसके विषय में हमारे अन्दर जानने की उत्सुकता है, वह (अग्निः) = अग्रणी प्रभु (दिवि पृथिव्याम्) = द्युलोक में व पृथिवीलोक में सर्वत्र (धायि) = स्थापित हैं। पृथिवी व द्युलोक का यह सारा प्रदेश प्रभु से व्याप्त है, वास्तव में प्रभु इन सबको अपनी गोद में लिये हुए हैं। ये प्रभु ही (सिन्धूनां नेता) = सब नदियों का प्रणयन करनेवाले हैं, उन्हीं के प्रशसन में ये सब नदियाँ प्रवाहित हो रही हैं। प्रभु ही (स्तियानाम्) = जलों के (वृषभ:) = वर्षाने वाले हैं। [स्तिया: आपः नि० ६।१७] । [२] (सः) = वे प्रभु ही (मानुषी:) = मनुष्य मात्र का हित करनेवाली, अथवा मननपूर्वक सब कार्यों को करनेवाली (विश:) = प्रजाओं के (अभिविभाति) = प्रति दीप्त होते हैं। मानव प्रजाओं में इस प्रभु का प्रकाश दिखता है। ये (वैश्वानरः) = सब नरों का हित करनेवाले प्रभु वरेण श्रेष्ठ बातों से (वावृधान:) = हमारे हृदयों में प्रवृद्ध होते हैं। जितना जितना हम उत्तम बातों का धारण करते हैं, उतना उतना प्रभु के प्रकाश को हृदयों में देखते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- द्यावापृथिवी में ये प्रभु ही सर्वत्र व्याप्त हैं। ये जलों के वर्षक व नदियों के सञ्चालक हैं। विचारशील प्रजाओं में प्रभु का प्रकाश होता है। ये प्रभु उत्तम बातों के धारण के अनुपात में हमें प्राप्त होते हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! जो सर्व प्रजेच्या नियमाचा व्यवस्थापक, सूर्य इत्यादीचा प्रकाशक, सर्वांचा उपास्य देव आहे तो विचार करण्या, जाणण्या-ऐकण्या व मानण्यायोग्य आहे. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The divine fire is pervasive in the heaven and over the earthly sphere. It is the mover of rivers and showerer of rains. It shines among all the human communities and inspires them to action. This is Vaishvanara Agni growing with the expansive world by its own divine glory.

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