ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 6/ मन्त्र 2
क॒विं के॒तुं धा॒सिं भा॒नुमद्रे॑र्हि॒न्वन्ति॒ शं रा॒ज्यं रोद॑स्योः। पु॒रं॒द॒रस्य॑ गी॒र्भिरा वि॑वासे॒ऽग्नेर्व्र॒तानि॑ पू॒र्व्या म॒हानि॑ ॥२॥
स्वर सहित पद पाठक॒विम् । के॒तुम् । धा॒सिम् । भा॒नुम् । अद्रेः॑ । हि॒न्वन्ति॑ । शम् । रा॒ज्यम् । रोद॑स्योः । पु॒र॒म्ऽद॒रस्य॑ । गीः॒ऽभिः । आ । वि॒वा॒से॒ । अ॒ग्नेः । व्र॒तानि॑ । पू॒र्व्या । म॒हानि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
कविं केतुं धासिं भानुमद्रेर्हिन्वन्ति शं राज्यं रोदस्योः। पुरंदरस्य गीर्भिरा विवासेऽग्नेर्व्रतानि पूर्व्या महानि ॥२॥
स्वर रहित पद पाठकविम्। केतुम्। धासिम्। भानुम्। अद्रेः। हिन्वन्ति। शम्। राज्यम्। रोदस्योः। पुरम्ऽदरस्य। गीःऽभिः। आ। विवासे। अग्नेः। व्रतानि। पूर्व्या। महानि ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
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अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स राजा कीदृशो भवेदित्याह ॥
अन्वयः
हे राजन्नग्नेरिव ! यस्य ते गीर्भिरद्रेरिव वर्त्तमानस्य पुरंदरस्य राज्ञो महानि पूर्व्या व्रतानि कविं केतुं धासिं भानुं रोदस्योः शं राज्यं हिन्वन्ति तमहं विवासे ॥२॥
पदार्थः
(कविम्) क्रान्तप्रज्ञं विद्वांसम् (केतुम्) महाप्राज्ञम् (धासिम्) अन्नमिव पोषकम् (भानुम्) विद्याविनयदीप्तिमन्तम् (अद्रेः) मेघस्य (हिन्वन्ति) प्राप्नुवन्ति वर्धयन्ति वा (शम्) सुखरूपम् (राज्यम्) (रोदस्योः) प्रकाशपृथिव्योः सम्बन्धि (पुरंदरस्य) शत्रूणां पुरां विदारकस्य (गीर्भिः) वाग्भिः (आ) समन्तात् (विवासे) सेवे (अग्नेः) पावकस्येव वर्त्तमानस्य (व्रतानि) कर्माणि (पूर्व्या) पूर्वै राजभिः कृतानि (महानि) महान्ति ॥२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यस्योत्तमानि कर्माणि राज्यं विदुषो वर्धयन्ति राज्यं सुखयुक्तं कुर्वन्ति तस्यैव सत्कारः सर्वैः कर्त्तव्यः ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह राजा कैसा हो, इस विषयको अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे राजन् (अग्नेः) अग्नि के समान ! जिन आपकी (गीर्भिः) वाणियों से (अद्रेः) मेघ के तुल्य वर्तमान (पुरंदरस्य) शत्रुओं के नगरों को विदीर्ण करनेवाले राजा के (महानि) बड़े (पूर्व्या) पूर्वज राजाओं ने किये (व्रतानि) कर्मों को तथा (कविम्) तीव्र बुद्धिवाले (केतुम्) अतीव बुद्धिमान् विद्वान् को (धासिम्) अन्न के तुल्य पोषक (भानुम्) विद्या, विनय और दीप्ति से युक्त (रोदस्योः) प्रकाश और पृथिवी के सम्बन्धी (शम्) सुखस्वरूप (राज्यम्) राज्य को (हिन्वन्ति) प्राप्त करवाते बढ़ाते हैं, उनका मैं (आ, विवासे) अच्छे प्रकार सेवन करता हूँ ॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जिसके उत्तम कर्म राज्य और विद्वानों को बढ़ाते हैं और राज्य को सुखयुक्त करते हैं, उसी प्रकार सबको करना चाहिये ॥२॥
विषय
उसके उत्तम कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे विद्वान् पुरुष ! ( रोदस्योः ) सूर्य पृथिवी के समान राजवर्ग और प्रजावर्ग दोनों के बीच में ( कविम् ) अति बुद्धिमान्, (केतुम् ) ज्ञानवान्, अन्यों को सन्मार्ग बतलाने वाले, (धासिम्) अन्नवत् पालक पोषक, ( भानुम् ) दीप्तियुक्त, तेजस्वी ( राज्यम् ) राजा के पद के योग्य और ( शं ) प्रजाओं को शान्तिदायक और कल्याणकारक पुरुष को ( हिन्वन्ति ) प्राप्त होते और उसको बढ़ाते हैं । ( अद्रे: ) मेघ के समान, उदार वा प्रबल शस्त्रास्त्र बल से सम्पन्न, ( पुरन्दरस्य ) शत्रु के नगरों को तोड़ने वाले, (अग्ने:) अग्नि के समान तेजस्वी, पुरुष के (पूर्व्यं) पूर्व के जनों से किये, वा उपदेश किये, श्रेष्ठ २ ( महानि ) बड़े २ आदर योग्य ( व्रतानि ) कर्त्तव्य कर्मों का ( आ विवासे ) वर्णन करता हूं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषि: ।। वैश्वानरो देवता ॥ छन्दः – १, ४, ५ निचृत्त्रिष्टुप् । ६ विराट् त्रिष्टुप् । २ निचृत्पंक्तिः। ३, ७ भुरिक् पंक्तिः ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
विषय
'कविं केषुम्' आविवासे
पदार्थ
[१] (कविम्) = उस क्रान्तप्रज्ञ (केतुम्) = सब ज्ञानों के प्रज्ञापक (धासिम्) = धारक, (अद्रे:) = [आदर्तुः] स्तोता के (भानुम्) = हृदय को दीप्त करनेवाले, (रोदस्योः राज्यम्) = द्यावापृथिवी के सम्राट्, (शम्) = शान्त व सुखकर प्रभु को हिन्वन्ति ये सब वेदवाणियाँ ही प्राप्त होती हैं, उसी का प्रतिपादन करती हैं 'ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्'। [२] मैं (गीर्भिः) = इन वेदवाणियों के द्वारा (पुरन्दरस्य) = आसुर पुरियों का विदारण करनेवाले (अग्ने:) = अग्रेणी प्रभु के (पूर्व्या) = पालन व पूरण करनेवालों में उत्तम अथवा पुरातन [सदा से चले आ रहे] (महानि व्रतानि) = महान व्रतों को (आविवासे) = परिचरित करता हूँ, पूजता हूँ।
भावार्थ
भावार्थ- सब वेदवाणियाँ उस प्रज्ञाधारक- दीपक प्रभु के महान् कर्मों का प्रतिपादन करती हैं। मैं इनके द्वारा प्रभु की उपासना करता हूँ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! ज्याच्या उत्तम कर्मांनी राज्य व विद्वानांची वृद्धी होते व राज्य सुखी होते त्याचाच सर्वांनी सत्कार केला पाहिजे. ॥ २ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Poets invoke and celebrate the omniscient, self- manifested, life sustaining light and blissful ruler of heaven and earth. The same Agni, omnipotent lord breaker of the clouds and mountains, I adore, and I sing and celebrate his great eternal laws and acts with the holiest words of praise.
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