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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1003
ऋषिः - गोतमो राहूगणः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
22
अ꣢सि꣣ हि꣡ वी꣢र꣣ से꣢꣫न्योऽसि꣣ भू꣡रि꣢ पराद꣣दिः꣢ । अ꣡सि꣢ द꣣भ्र꣡स्य꣢ चिद्वृ꣣धो꣡ यज꣢꣯मानाय शिक्षसि सुन्व꣣ते꣡ भूरि꣢꣯ ते꣣ व꣡सु꣢ ॥१००३॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡सि꣢꣯ । हि । वी꣣र । से꣡न्यः꣢꣯ । अ꣡सि꣢꣯ । भू꣡रि꣢꣯ । प꣣राददिः꣢ । प꣣रा । ददिः꣢ । अ꣡सि꣢꣯ । द꣣भ्र꣡स्य꣢ । चि꣣त् । वृधः꣢ । य꣡ज꣢꣯मानाय । शि꣣क्षसि । सुन्वते꣢ । भू꣡रि꣢꣯ । ते । व꣡सु꣢꣯ ॥१००३॥
स्वर रहित मन्त्र
असि हि वीर सेन्योऽसि भूरि पराददिः । असि दभ्रस्य चिद्वृधो यजमानाय शिक्षसि सुन्वते भूरि ते वसु ॥१००३॥
स्वर रहित पद पाठ
असि । हि । वीर । सेन्यः । असि । भूरि । पराददिः । परा । ददिः । असि । दभ्रस्य । चित् । वृधः । यजमानाय । शिक्षसि । सुन्वते । भूरि । ते । वसु ॥१००३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1003
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में पुनः मन को प्रबोधित किया गया है।
पदार्थ
हे (वीर) पराक्रमशील मन ! तू (सेन्यः) सेनाओं में निपुण अर्थात् सेनापति (असि) है और (भूरि) भूरि-भूरि (पराददिः) शत्रुओं को दूर फेंकनेवाला (असि) है। साथ ही (दभ्रस्य चित्) क्षुद्र का भी (वृधः) बढ़ानेवाला (असि) है। तू (यजमानाय) यजनशील, परोपकारी मनुष्य के लिए (शिक्षसि) बल प्रदान करता है। (सुन्वते) वीररस उत्पन्न करनेवाले मनुष्य को (ते) तेरा (भूरि) बहुत अधिक (वसु) ऐश्वर्य प्राप्त होता है ॥२॥
भावार्थ
जब मनुष्य अपने मन को सेनापति पद पर अभिषिक्त करके आन्तरिक और बाह्य शत्रुओं को जीतने का यत्न करते हैं, तब विजय निश्चित मिलती है ॥२॥
पदार्थ
(वीर) हे वीर्यवान् स्वाधारबलसम्पन्न परमात्मन्!*76 तू (सेन्यः-हि-असि) अकेला हि सेना जितना बल वाला है अथवा कामादि विरोधी सेना को विजय करने में समर्थ है (भूरि पराददिः) अत्यन्त पर—अभीष्ट अनुकूल गुणों का आदान करनेवाला—अपनानेवाला है*77 अतएव (दभ्रस्य चित्-वृधः-असि) अल्प—थोड़े अभीष्ट गुणवाले का भी बढ़ानेवाला है (सुन्वते यजमानाय) उपासनारस निष्पन्न करनेवाले उपासक आत्मा के लिए (ते भूरि वसु) तेरा जो बहुत धन मोक्षैश्वर्य है उसे भी (शिक्षसि) दे देता है*78॥२॥
टिप्पणी
[*76. “स ह वीरो य आत्मन एव वीर्यमनुवीरः” [जै॰ २.२८२]।] [*77. ‘पर-आददिः’ आङ् पूर्वकाद् दाधातोः किः प्रत्ययः “आदृगमहनजनः किकिनौ लिट् च” [अष्टा॰ ३.२.१७१]।] [*78. “शिक्षति दानकर्मा” [निघं॰ ३.२०]।]
विशेष
<br>
विषय
सेन्य व पराददि
पदार्थ
१. प्रभु ‘गोतमराहूगण' प्रशस्तेन्द्रिय त्यागशील व्यक्ति से कहते हैं कि हे (वीर) = शत्रुओं को विशेषरूप से कम्पित करनेवाले ! तू हि निश्चय से (सेन्यः) = [इनेन सहिताः सेनाः, तेषु साधु] प्रभु के साथ सम्पर्क रखनेवालों में उत्तम असि है । वस्तुतः प्रातः सायं प्रभु का स्मरण करने के कारण ही तो यह वीर है । २. प्रभु-सम्पर्क जनित बल से (पराददिः असि) = शत्रुओं का पराजेता व दूर भगानेवाला है। ३. प्रभु के सम्पर्क के कारण ही (दभ्रस्य) = अल्प का (चित्) = भी (वृधः असि) = बढ़ानेवाला है। हृदय जोकि सामान्यतः तंग-सा होता है, प्रभु-स्मरण से विशाल बन जाता है । ४. हृदय के विशाल बनने पर तू (यजमानाय) = यज्ञशील पुरुष के लिए तथा (सुन्वते) = निर्माणात्मक कार्यों में लगे हुए पुरुष के लिए ते वसु-अपने धन को भूरि (शिक्षसि) = खूब और खूब ही देता है ।
भावार्थ
प्रभु-सम्पर्क में रहते हुए हम शत्रुओं के पराजेता बनें ।
विषय
missing
भावार्थ
हे वीर ! (सेन्यः असि) तू सेना का हितकर है। और (भूरि) बहुत (पराददिः) शत्रुओं को पराजय देने हारा है। और तू (दभ्रस्य) स्वल्प थोड़े सामर्थ्य वाले निर्बल को (चित्) भी (वृधः) बढ़ाने हारा (असि) है। तू (सुन्वते) सुखों के उत्पन्न करने हारे (यजमानाय) यज्ञ के कर्त्ता, या करदाताओं को (ते भूरि वसु) तू अपना बहुत धन (शिक्षसि) देता है। जो ‘इन’ अर्थात् स्वामी या नेता के सहित होती है वह ‘सेना’ कहाती है। इन्द्रियगण आत्मा नेता के संग होने से सेना कहाती हैं। उनका हितकर, उनमें उत्तम आत्मा ‘सेन्य’ है। वह काम क्रोध आदि का पराभव करके स्वल्प (दभ्र) दहराकाश को भी विशाल करता है और यजमान स्वरूप मुख्य प्राण को नाना प्रकार के ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियों द्वारा प्राप्त भोग्य वस्तुएं देता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—त्रय ऋषिगणाः। २ काश्यपः ३, ४, १३ असितः काश्यपो देवलो वा। ५ अवत्सारः। ६, १६ जमदग्निः। ७ अरुणो वैतहव्यः। ८ उरुचक्रिरात्रेयः ९ कुरुसुतिः काण्वः। १० भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ११ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा १२ मनुराप्सवः सप्तर्षयो वा। १४, १६, २। गोतमो राहूगणः। १७ ऊर्ध्वसद्मा कृतयशाश्च क्रमेण। १८ त्रित आप्तयः । १९ रेभसूनू काश्यपौ। २० मन्युर्वासिष्ठ २१ वसुश्रुत आत्रेयः। २२ नृमेधः॥ देवता—१-६, ११-१३, १६–२०, पवमानः सोमः। ७, २१ अग्निः। मित्रावरुणौ। ९, १४, १५, २२, २३ इन्द्रः। १० इन्द्राग्नी॥ छन्द:—१, ७ नगती। २–६, ८–११, १३, १६ गायत्री। २। १२ बृहती। १४, १५, २१ पङ्क्तिः। १७ ककुप सतोबृहती च क्रमेण। १८, २२ उष्णिक्। १८, २३ अनुष्टुप्। २० त्रिष्टुप्। स्वर १, ७ निषादः। २-६, ८–११, १३, १६ षड्जः। १२ मध्यमः। १४, १५, २१ पञ्चमः। १७ ऋषभः मध्यमश्च क्रमेण। १८, २२ ऋषभः। १९, २३ गान्धारः। २० धैवतः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनरपि मनः प्रबोधयति।
पदार्थः
हे (वीर) वीर इन्द्र, पराक्रमशालि मनः ! त्वम् (सेन्यः२) सेनासु साधुः, सेनापतिः (असि) विद्यसे, किञ्च (भूरि) बहु (पराददिः) शत्रून् दूरं प्रक्षेप्ता (असि) विद्यसे। अपि च (दभ्रस्य चित्) क्षुद्रस्य अपि (वृधः) वर्धयिता (असि) विद्यसे। त्वम् (यजमानाय) यजनशीलाय परोपकारिणे जनाय (शिक्षसि) बलं प्रयच्छसि। [शिक्षतिः दानकर्मा। निघं० ३।२०।] (सुन्वते) वीररसाभिषवं कुर्वते जनाय (ते) तव (भूरि) बहु (वसु) ऐश्वर्यं भवतीति शेषः ॥२॥३
भावार्थः
यदा मनुष्याः स्वकीयं मनः सैनापत्येऽभिषिच्यान्तरान् बाह्यांश्च शत्रून् विजेतुं यतन्ते तदा विजयो निश्चितो जायते ॥२॥
टिप्पणीः
१. ऋ० १।८१।२, अथ० २०।५६।२। २. विवरणनये ‘वीरसेन्यः’ इत्येकं पदम्। अत एवैवं व्याख्यातम्—वीरसेन्यः वीराः सेन्या यस्य असौ वीरसेन्य इति। परमेतत् पदग्रन्थविरुद्धम्, तत्र ‘वीर। सेन्यः’ इति छेदस्वरयोर्दर्शनात्—इति सामश्रमी। ३. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिरिममपि मन्त्रं सभाध्यक्षविषय एव व्याचष्टे।
इंग्लिश (2)
Meaning
O Valiant King ! thou art the well-wisher of the army, thou art the conqueror of many foes, thou art the strengthener of even the feeble, thou givest thy great wealth to the sacrificer, who advances happiness !
Meaning
Indra, you are the valiant hero. You are the warrior taking on many enemies and oppositions at a time. Even the small, you raise to greatness. You lead the creative and generous yaja mana to knowledge and power. Hero of the battles of existence, may your wealth, power and honour grow higher and higher. (Rg. 1-81-2)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (वीर) હે વીર્યવાન સ્વાધારબળ સંપન્ન પરમાત્મન્ ! તું (सेन्यः हि असि) એકલો જ સેના જેટલો બળવાન છે અથવા કામ આદિ વિરોધી સેનાનો વિજય કરવામાં સમર્થ છે. (भूरि थराददिः) અત્યંત પર - અભીષ્ટ અનુકૂળ ગુણોનું આદાન કરનાર-અપનાવનાર છે, તેથી (दभ्रस्य चित् वृधः असि) અલ્પ-થોડા અભીષ્ટ ગુણોને પણ વધારનાર છે. (सुन्वते यजमानाय) ઉપાસનારસ નિષ્પન્ન કરનારા ઉપાસકોના આત્માને માટે (ते भूरि वसु) તારું જે મહાન ધન મોક્ષૈશ્વર્ય છે, તેને પણ (शिक्षसि) આપી દે છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
जेव्हा माणसे आपल्या मनाला सेनापती पदावर अभिषिक्त करून आंतरिक व बाह्य शत्रूंना जिंकण्याचा प्रयत्न करतात, तेव्हा विजय निश्चित होतो. ॥२॥
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