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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1009
    ऋषिः - जमदग्निर्भार्गवः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    42

    शु꣣भ्र꣡मन्धो꣢꣯ दे꣣व꣡वा꣢तम꣣प्सु꣢ धौ꣣तं꣡ नृभिः꣢꣯ सु꣣त꣢म् । स्व꣡द꣢न्ति꣣ गा꣢वः꣣ प꣡यो꣢भिः ॥१००९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शु꣣भ्र꣢म् । अ꣡न्धः꣢꣯ । दे꣣व꣡वा꣢तम् । दे꣣व꣢ । वा꣣तम् । अप्सु꣢ । धौ꣣त꣢म् । नृ꣡भिः꣢꣯ । सु꣣त꣢म् । स्व꣡द꣢꣯न्ति । गा꣡वः꣢꣯ । प꣡यो꣢꣯भिः ॥१००९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शुभ्रमन्धो देववातमप्सु धौतं नृभिः सुतम् । स्वदन्ति गावः पयोभिः ॥१००९॥


    स्वर रहित पद पाठ

    शुभ्रम् । अन्धः । देववातम् । देव । वातम् । अप्सु । धौतम् । नृभिः । सुतम् । स्वदन्ति । गावः । पयोभिः ॥१००९॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1009
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में पुनः वही विषय है।

    पदार्थ

    प्रथम—सोम ओषधि के रस के विषय में। (देववातम्) सूर्य या मेघ द्वारा बढ़ाये हुए (अप्सु) जलों से (धौतम्) धोये हुए, (नृभिः) ऋत्विज् मनुष्यों से (सुतम्) अभिषुत किये गये (शुभ्रम् अन्धः) स्वच्छ सोमरस को (गावः) गौएँ (पयोभिः) अपने दूधों से (स्वदन्ति) स्वादु बनाती हैं ॥ द्वितीय—ज्ञानरस के विषय में। (देववातम्) विद्वान् आचार्य से प्रेरित, (अप्सु) कर्मों में, आचरणों में (धौतम्) पहुँचाये हुए, (नृभिः) अन्य मार्गदर्शक गुरुजनों से (सुतम्) उत्पन्न किये गये (शुभ्रम् अन्धः) स्वच्छ ज्ञानरस को (गावः) वेदवाणियाँ (पयोभिः) ओङ्काररूप दूध से (स्वदन्ति) मधुर कर देती हैं ॥२॥ यहाँ श्लेषालङ्कार है ॥२॥

    भावार्थ

    भौतिक ज्ञान अध्यात्म ज्ञान से मिलकर महान् कल्याण करनेवाला हो जाता है ॥२॥

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    पदार्थ

    (नृभिः सुतम्) मुमुक्षु जनों*84 द्वारा सोतव्य उपासना द्वारा निष्पन्न करने योग्य (शुभ्रम्) प्रकाशमान (अन्धः) आध्यानीय—चिन्तनयोग्य (देववातम्) विद्वानों उपासकों से प्राप्त होने योग्य (अप्सु धौतम्) श्रद्धा*85 से निर्मल किए हुए सोम—शान्त स्वरूप परमात्मा को (गावः) स्तोता—उपासकजन*86 (पयोभिः स्वदन्ति) आन्तरिक साधनों मन बुद्धि चित्त अहङ्कार से*87 स्वाद लेते हैं॥२॥

    टिप्पणी

    [*84. “नरो ह वै देवविशः” [जै॰ १.८९]।] [*85. “श्रद्धा वा आपः” [तै॰ ३.२.४.१]।] [*86. “गौः स्तोतृनाम” [निघं॰ ३.१६]।] [*87. “अन्तर्हितमिव वा एतद् यत् पयः” [तां॰ ९.९.३]।]

    विशेष

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    विषय

    सोम द्वारा गौवों का आप्यायन

    पदार्थ

    शरीर में उत्पन्न सोम को 'अन्धः' कहते हैं, क्योंकि यह आध्यायनीय – अत्यन्त ध्यान देने योग्य होता है। यह (अन्धः) = सोम १. (शुभ्रम्) = शरीर को शोभा प्राप्त करानेवाला है। शरीर की सारी कान्ति इस सोम पर ही निर्भर करती है । २. यह (देववातम्) = [देवानां वातं यस्मात्] दिव्य गुणों को हममें प्रेरित करनेवाला है। सोम की रक्षा से हममें दिव्य गुणों की वृद्धि होती है । ३. (अप्सु) = कर्मों में (धौतम्) = यह शुद्ध किया जाता है, जब तक मनुष्य कर्मों में लगा रहता है तब तक उसका यह सोम पवित्र बना रहता है, क्योंकि न वासना उत्पन्न होती है और न ही यह मलिन होता है। एवं, कर्मों में लगे रहना ‘सोम-रक्षा' का साधन हो जाता है । ४. (नृभिः सुतम्) = यह सोम अपने को उन्नति-पथ पर ले-चलनेवालों के हेतु से उत्पन्न किया गया है, अर्थात् शरीर में इसकी उत्पत्ति इसी उद्देश्य से की गयी है कि मनुष्य उन्नत हो सके । इस सोम को (गावः) = ज्ञानेन्द्रियाँ (पयोभिः) = आप्यायन के हेतु से स्वदन्ति= खाती हैं । यह सोम सब इन्द्रियों की शक्ति की वृद्धि का हेतु है ।
     

    भावार्थ

    सोमरक्षा द्वारा हम सब इन्द्रियों की शक्ति का विकास करें।

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    (देववातम्) देव अर्थात् इन्द्रियों से प्राप्त (अप्सु धौतं) ध्यानवृत्तियों, या प्राणों द्वारा संस्कृत, (नृभिः सुतम्) साधक पुरुषों, या प्राणों द्वारा उत्पादित (शुभ्रं) शुद्ध, कान्तिस्वरूप, (अन्धः) जीवन धारण कराने हारे आत्मानन्दरस का (गावः) सूक्ष्म इन्दिय-वृत्तियें अथवा ज्ञानी पुरुष (पयोभिः) अन्न-रसों के साथ साथ (स्वदन्ति) आस्वाद लेते हैं।

    टिप्पणी

    ‘अप्सु धूतो नृभिः’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—त्रय ऋषिगणाः। २ काश्यपः ३, ४, १३ असितः काश्यपो देवलो वा। ५ अवत्सारः। ६, १६ जमदग्निः। ७ अरुणो वैतहव्यः। ८ उरुचक्रिरात्रेयः ९ कुरुसुतिः काण्वः। १० भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ११ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा १२ मनुराप्सवः सप्तर्षयो वा। १४, १६, २। गोतमो राहूगणः। १७ ऊर्ध्वसद्मा कृतयशाश्च क्रमेण। १८ त्रित आप्तयः । १९ रेभसूनू काश्यपौ। २० मन्युर्वासिष्ठ २१ वसुश्रुत आत्रेयः। २२ नृमेधः॥ देवता—१-६, ११-१३, १६–२०, पवमानः सोमः। ७, २१ अग्निः। मित्रावरुणौ। ९, १४, १५, २२, २३ इन्द्रः। १० इन्द्राग्नी॥ छन्द:—१, ७ नगती। २–६, ८–११, १३, १६ गायत्री। २। १२ बृहती। १४, १५, २१ पङ्क्तिः। १७ ककुप सतोबृहती च क्रमेण। १८, २२ उष्णिक्। १८, २३ अनुष्टुप्। २० त्रिष्टुप्। स्वर १, ७ निषादः। २-६, ८–११, १३, १६ षड्जः। १२ मध्यमः। १४, १५, २१ पञ्चमः। १७ ऋषभः मध्यमश्च क्रमेण। १८, २२ ऋषभः। १९, २३ गान्धारः। २० धैवतः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि स एव विषय उच्यते।

    पदार्थः

    प्रथमः—सोमौषधिरसविषये। (देववातम्) देवेन सूर्येण मेघेन वा वातं वृद्धिं गमितम्, (अप्सु) उदकेषु (धौतम्) प्रक्षालितम्। [धावु गतिशुद्ध्योः।] (नृभिः) ऋत्विग्जनैः (सुतम्) अभिषुतम् (शुभ्रम् अन्धः) स्वच्छं सोमरसम् (गावः) धेनवः (पयोभिः) स्वकीयैः दुग्धैः (स्वदन्ति) स्वादयन्ति ॥ द्वितीयः—ज्ञानरसविषये। (देववातम्) देवेन (विदुषा) आचार्येण प्रेरितम्, (अप्सु) कर्मसु, आचरणेषु (धौतम्) प्रापितम्। [धावुरत्र गत्यर्थः।] (नृभिः) इतरैः नेतृभिः मार्गदर्शकैः गुरुजनैः (सुतम्) उत्पादितम् (शुभ्रम् अन्धः) स्वच्छं ज्ञानरसम् (गावः) वेदवाचः (पयोभिः) ओङ्कारलक्षणैः दुग्धैः (स्वदन्ति) मधुरं कुर्वन्ति ॥२॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥२॥

    भावार्थः

    भौतिकं ज्ञानमध्यात्मज्ञानेन सहचरितं महाकल्याणकरं जायते ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।६२।५, ‘म॒प्सु धू॒तो नृभिः॑ सुतः’ इति द्वितीयः पादः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The learned taste with food juices, the fair, life infusing, spiritual delight, beloved of sages, purified through contemplation, and realised by the Yogis.

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    Meaning

    The radiant food of ambition created by people, energised by noble leaders, sanctified in action, the people enjoy seasoned with delicacies of cows milk. (Rg. 9-62-5)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ: (नृभिः सुतम्) મુમુક્ષુજનો દ્વારા સોતવ્ય ઉપાસના દ્વારા નિષ્પન્ન કરવા યોગ્ય (शुभ्रम्) પ્રકાશમાન (अन्धः) આધ્યાનીય-ચિંતનયોગ્ય (देववातम्) વિદ્વાનો ઉપાસકોથી પ્રાપ્ત થવા યોગ્ય (अप्सु धौतम्) શ્રદ્ધાથી નિર્મળ બનાવેલ સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્માને (गावः) સ્તોતા-ઉપાસકજનો (पयोभिः स्वदन्ति) આન્તરિક સાધનો-મન, બુદ્ધિ, ચિત્ત, અહંકારથી સ્વાદ લે છે. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    भौतिक ज्ञान अध्यात्मज्ञानाबरोबर मिळून महान कल्याण करणारे ठरते. ॥२॥

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