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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1010
    ऋषिः - जमदग्निर्भार्गवः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    41

    आ꣢दी꣣म꣢श्वं꣣ न꣡ हेता꣢꣯र꣣म꣡शू꣢शुभन्न꣣मृ꣡ता꣢य । म꣢धो꣣ र꣡स꣢ꣳ सध꣣मा꣡दे꣢ ॥१०१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आत् । ई꣣म् । अ꣡श्व꣢꣯म् । न । हे꣡ता꣢꣯रम् । अ꣡शू꣢꣯शुभन् । अ꣣मृ꣡ता꣢य । अ꣣ । मृ꣡ता꣢꣯य । म꣡धोः꣢꣯ । र꣡स꣢꣯म् । स꣣धमा꣡दे꣢ । स꣣ध । मा꣡दे꣢꣯ ॥१०१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आदीमश्वं न हेतारमशूशुभन्नमृताय । मधो रसꣳ सधमादे ॥१०१०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आत् । ईम् । अश्वम् । न । हेतारम् । अशूशुभन् । अमृताय । अ । मृताय । मधोः । रसम् । सधमादे । सध । मादे ॥१०१०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1010
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में फिर वही विषय है।

    पदार्थ

    प्रथम—सोम ओषधि के रस के विषय में। (आत्) उसके अनन्तर अर्थात् सोमरस में गाय का दूध मिलाने के पश्चात्, (हेतारम्) बल बढ़ानेवाले (ईम् मधोः रसम्) इस मधुर सोम के रस को, योद्धा लोग (अमृताय) युद्ध में विजय की प्राप्ति के निमित्त (अशूशुभन्) पीने के लिए पात्रों में अलङ्कृत करते हैं, (हेतारम् अश्वं न) जैसे शीघ्रगामी घोड़े को अश्वपाल योग्य अलङ्कारों से अलङ्कृत करते हैं ॥ द्वितीय—ज्ञानरस के विषय में (आत्) गुरु के पास से ज्ञान की उपलब्धि के अनन्तर (हेतारम्) पुरुषार्थ को बढ़ानेवाले (ईम् मधोः रसम्) इस मधुर ज्ञानरस को, शिष्यगण (अमृताय) मोक्ष की प्राप्ति के लिए (अशूशुभन्) योगाभ्यासों से अलङ्कृत करते हैं ॥३॥ यहाँ श्लेष और श्लिष्टोपमा अलङ्कार हैं ॥३॥

    भावार्थ

    जैसे पिया हुआ सोम ओषधि का रस बल की वृद्धि करनेवाला होता हुआ युद्ध में विजय प्राप्त कराता है, वैसे ही आचार्य से ग्रहण किया गया ज्ञान योगाभ्यास से मिलकर मोक्ष प्राप्त कराता है ॥३॥

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    पदार्थ

    (आत्) अनन्तर—पुनः (सधमादे) साथ होकर—परमात्मा के साथ होकर जहाँ माद—हर्ष आनन्द अनुभव किया जाता है उस हृदयप्रदेश में (मधोः) मधुमय—सोम—शान्त परमात्मा के (रसम्-अश्वं हेतारं न) व्यापनशील तथा प्रेरणा देने वाले आनन्दरस को सम्प्रति88 (अमृताय) अमृत—मोक्ष पाने के लिए (अशूशुभन्) प्राप्त कर प्रशंसित करते हैं स्तुत करते हैं*89॥३॥

    टिप्पणी

    [*88. “न सम्प्रत्यर्थे” [निरु॰ ६.८]।] [*89. “शुम्भ भाषणे” [भ्वादि॰]।]

    विशेष

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    विषय

    नीरोगता व प्रभुदर्शन का आनन्द

    पदार्थ

    (आत्) = अब (ईम्) = निश्चय से इस सोम को (अशूशुभन्) = इस शरीर में ही सुशोभित करते हैं। किस सोम को ? १. (अश्वं न हेतारम्) = घोड़े के समान क्रियाओं में प्रेरित करनेवाले को । जिस प्रकार खड़े रहने से घोड़े को चलना अधिक प्रिय है, उसी प्रकार सोम की रक्षा करनेवाले व्यक्ति को आलस्य व आराम की अपेक्षा क्रियाशीलता अधिक रुचिकर है। सोम उसे क्रियाओं में प्रेरित करता है । २. (मधोः रसम्) = यह सोम मधु का रस है। निघण्टु [१.१२] में 'मधु' जल का नाम है और यह जल ही शरीर में (रेतस्) = सोमरूप से रहते हैं [आप: रेतो भूत्वा – ऐ०] । ताण्ड्य ब्राह्मण [११.१०.३] में (अन्नं वै मधु) = अन्न को मधु कहा गया है । यह सोम इसी अन्न का रस-रुधिरादि के क्रम से सार अथवा रस है । इस अन्न के सारभूत सोम को शरीर में शोभित करने का प्रयत्न किया जाता है—१. (अमृताय) = अमरता के लिए । सोम की रक्षा से शरीर में किसी प्रकार के रोग उत्पन्न नहीं होते। असमय में मृत्यु नहीं होती और परिणामतः अमरता प्राप्त होती है । २. (सधमादे) = [सहमदने] इस मानवदेह में आनन्दमयकोश में उस प्रभु के साथ निवास करके आनन्द लेने के निमित्त इस सोम की रक्षा की जाती है। सोमरक्षा द्वारा हमें उस (सोम) = सम्पूर्ण जगत् के उत्पादक प्रभु का दर्शन होता है और हम प्रभु के सम्पर्क में एक अनिर्वचनीय आनन्द का अनुभव करते हैं ।

    भावार्थ

    सोम को शरीर में ही सुरक्षित करने से १. जीवन क्रियाशील बना रहता है । २. नीरोगता के कारण अमरता का लाभ होता है तथा ३. प्रभु-दर्शन से आनन्द का अनुभव होता है । इस सोम का रक्षक 'जमदग्नि' बनता है, सदा जाठराग्नि के ठीक होने के कारण इसे रोग नहीं सताते और यह सब शक्तियों का ठीक परिपाक करनेवाला ‘भार्गव' होता है [भ्रस्ज पाके] ।
     

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    (आत्) तदनन्तर (अश्वं न) जिस प्रकार राजा लोग युद्ध में अपने अश्व को अपनी रक्षा के लिये नाना प्रकार के अस्त्रों और कवचों से सुसज्जित करते हैं उसी प्रकार (हेतारं) सब के प्रेरक (ईम्) इस (मधोः रसं) मधुर आत्मसम्बन्धी आनन्दमय रस को (सधमादे) शरीर रूप एकत्र आनन्द प्राप्त करने के स्थान में (अमृताय) मोक्ष या अमृतत्व प्राप्त करने के लिये (अशूशुभन्) नाना साधनाओं से सुशोभित करते हैं।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—त्रय ऋषिगणाः। २ काश्यपः ३, ४, १३ असितः काश्यपो देवलो वा। ५ अवत्सारः। ६, १६ जमदग्निः। ७ अरुणो वैतहव्यः। ८ उरुचक्रिरात्रेयः ९ कुरुसुतिः काण्वः। १० भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ११ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा १२ मनुराप्सवः सप्तर्षयो वा। १४, १६, २। गोतमो राहूगणः। १७ ऊर्ध्वसद्मा कृतयशाश्च क्रमेण। १८ त्रित आप्तयः । १९ रेभसूनू काश्यपौ। २० मन्युर्वासिष्ठ २१ वसुश्रुत आत्रेयः। २२ नृमेधः॥ देवता—१-६, ११-१३, १६–२०, पवमानः सोमः। ७, २१ अग्निः। मित्रावरुणौ। ९, १४, १५, २२, २३ इन्द्रः। १० इन्द्राग्नी॥ छन्द:—१, ७ नगती। २–६, ८–११, १३, १६ गायत्री। २। १२ बृहती। १४, १५, २१ पङ्क्तिः। १७ ककुप सतोबृहती च क्रमेण। १८, २२ उष्णिक्। १८, २३ अनुष्टुप्। २० त्रिष्टुप्। स्वर १, ७ निषादः। २-६, ८–११, १३, १६ षड्जः। १२ मध्यमः। १४, १५, २१ पञ्चमः। १७ ऋषभः मध्यमश्च क्रमेण। १८, २२ ऋषभः। १९, २३ गान्धारः। २० धैवतः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि तमेव विषयमाह।

    पदार्थः

    प्रथमः—सोमौषधिरसविषये। (आत्) तदनन्तरम्, सोमरसे गोदुग्धमिश्रणानन्तरमित्यर्थः (हेतारम्) बलस्य वर्धयितारम्। [हि गतौ वृद्धौ च।] (ईम् मधोः रसम्) एतम् मधुरस्य सोमस्य रसम्, योद्धारः (अमृताय) युद्धे विजयलाभाय (अशूशुभन्) पातुं पात्रेषु शोभयन्ति। कथमिव ? (हेतारम् अश्वं न) यथा आशुगामिनं तुरङ्गमम् अश्वपालाः अश्वोचितैरलङ्कारैः शोभयन्ति तद्वत् ॥ द्वितीयः—ज्ञानरसविषये। (आत्) तदनन्तरम्, गुरोः सकाशाज्ज्ञानोपलब्धेरनन्तरमित्यर्थः, (हेतारम्) पुरुषार्थवर्धकम् (ईम् मधोः रसम्) एतं मधुरस्य ज्ञानस्य रसम्, शिष्याः (अमृताय) मोक्षलाभाय (अशूशुभन्) योगाभ्यासैः शोभयन्ति। कथमिव ? (हेतारम्२ अश्वं न) यथा गन्तारं तुरङ्गमम् अश्वपालाः अश्वोचितैरलङ्कारैः शोभयन्ति तद्वत् ॥३॥ अत्र श्लेषः श्लिष्टोपमा चालङ्कारः ॥३॥

    भावार्थः

    यथा पीतः सोमौषधिरसो बलवृद्धिकरः सन् युद्धे विजयं प्रापयति तथाऽऽचार्याद् गृहीतं ज्ञानं योगाभ्यासेन सहचरितं मोक्षप्रापकं जायते ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।६२।६, ‘हेता॒रो’, ‘मध्वो॒’ इति पाठः। २. हेतारं शीघ्रगामिनम्—इति वि०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Then, just as Kings decorate a horse in the battlefield, so does an active adorn this spiritual joy in his heart, for the acquisition of salvation.

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    Meaning

    And this ecstasy of the fruit of active ambition, honey sweet of joint achievement in yajnic action, leading lights of the nation like yajakas exalt and glorify as the progressive socio-political order of humanity for permanence and immortal honour. (Rg. 9-62-6)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (आत्) અનન્તર-પુનઃ (सधमादे) સાથે થઈને-પરમાત્માની સાથે થઈને જ્યાં માદ =હર્ષ આનંદ અનુભવ કરવામાં આવે છે, તે હૃદય પ્રદેશમાં (मधोः) મધુમય-સોમ-શાન્ત પરમાત્માના (रसम् अश्वं हेतारं न) વ્યાપનશીલ તથા પ્રેરણા આપનાર આનંદરસને સંપ્રતિ (अमृताय) અમૃત-મોક્ષ પ્રાપ્ત કરવા માટે (अशूशुभन्) પ્રાપ્ત કરીને પ્રશંસિત કરે છે-સ્તુત કરે છે. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसा सोम औषधी रस प्राशन केल्यानंतर बलाची वृद्धी होते व युद्धात विजय प्राप्त होतो, तसेच आचार्याद्वारे ग्रहण केलेले ज्ञान योगाभ्यासाद्वारे मोक्ष प्राप्त करविते. ॥३॥

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