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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 104
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः
देवता - अग्निः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
53
न꣡ तस्य꣢꣯ मा꣣य꣡या꣢ च꣣ न꣢ रि꣣पु꣡री꣢शीत꣣ म꣡र्त्यः꣢ । यो꣢ अ꣣ग्न꣡ये꣢ द꣣दा꣡श꣢ ह꣣व्य꣡दा꣢तये ॥१०४॥
स्वर सहित पद पाठन꣢ । त꣡स्य꣢꣯ । मा꣣य꣡या꣢ । च꣣ । न꣢ । रि꣣पुः꣢ । ई꣣शीत । म꣡र्त्यः꣢꣯ । यः । अ꣣ग्न꣡ये꣢ । द꣣दा꣡श꣢ । ह꣣व्य꣡दा꣢तये । ह꣣व्य꣢ । दा꣣तये ॥१०४॥
स्वर रहित मन्त्र
न तस्य मायया च न रिपुरीशीत मर्त्यः । यो अग्नये ददाश हव्यदातये ॥१०४॥
स्वर रहित पद पाठ
न । तस्य । मायया । च । न । रिपुः । ईशीत । मर्त्यः । यः । अग्नये । ददाश । हव्यदातये । हव्य । दातये ॥१०४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 104
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 11;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 11;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्माग्नि में हवि देने से क्या फल होता है, इसका अगले मन्त्र में वर्णन है।
पदार्थ
(मायया च न) छल से भी (तस्य) उस परमात्मोपासक को (मर्त्यः) मानव (रिपुः) शत्रु (न ईशीत) वश में नहीं कर सकता, (यः) जो उपासक (हव्यदातये) देय पराक्रम, विजय आदि को देनेवाले (अग्नये) परमेश्वर के लिए (ददाश) आत्मसमर्पण रूप हवि को देता है ॥८॥
भावार्थ
तरह-तरह के विघ्न-बाधा और संकटो से घिरे हुए इस जगत् में अनेक मानव शत्रु विद्वेषरूप विष से लिप्त होकर सज्जनों को ठगने, लूटने, जलाने व मारने का प्रयत्न करते हैं। परन्तु जो लोग परमात्मा को आत्मसमर्पण करके उससे शत्रु-पराजय के लिए बल की याचना करते हैं, उन्हें वह पुरुषार्थ में नियुक्त करके विजय पाने में ऐसा समर्थ कर देता है कि बलवान् और बड़ी संख्यावाले भी शत्रु माया से भी उन्हें वश में नहीं कर पाते ॥८॥
पदार्थ
(यः) जो जन (हव्यदातये) हव्य स्तुतिरूप भेंट का दान जिसके लिये है ऐसे (अग्नये) अग्रणायक परमात्मा के लिये (ददाश) जो देता है अन्य के लिये नहीं अर्थात् जो केवल परमात्मा की स्तुति में जीवन बिताता है अन्य की स्तुति में नहीं (रिपुः-मर्त्यः-च न) शत्रुजन भी (मायया) प्रज्ञाछल बुद्धि से (न तस्य ईशीत) उस पर स्वामित्व नहीं कर सकता है—दबा नहीं सकता है।
भावार्थ
स्तुतियोग्य एकमात्र परमात्मा है जो उसको ही स्तुतियों द्वारा अपना समस्त जीवन अर्पित कर देता है। शत्रु उस पर कुछ प्रभाव नहीं डाल सकता कुछ हानि नहीं पहुचा सकता है क्योंकि वह अकेला न रहा उसके साथ उसका परमात्मा सदा रक्षक है॥८॥
विशेष
ऋषिः—विश्वमना वैयश्वः (इन्द्रिय घोड़ों-इन्द्रियवृत्तियों से विगत होने में कुशल सबमें समान मनोभाव रखने वाला विरक्त समदर्शी जन)॥ देवताः—अग्निः (अन्तर्यामी सर्वसाक्षी परमात्मा)॥<br>
विषय
हम विश्वमना वैयश्व बनें
पदार्थ
(यः)=जो (अग्नये)=अग्रगति के साधक तथा (हव्यदातये) = [हव्यानां दातिर्दानं येन तस्मै ] उत्तम पदार्थों को देनेवाले प्रभु के लिए (ददाश)=अपने को दे डालता है, अपना समर्पण कर देता है। (तस्य)=उसका (रिपुः) = [ to rip open] नाश कर देनेवाला (मर्त्यः) = यह मार [काम] (मायया) = अपनी पूरी माया के द्वारा भी (चन् ईशीतन) = स्वामी नहीं बन पाता।
मनुष्य संसार में आगे बढ़ने का प्रयत्न करता है, परन्तु उसे पग-पग पर अनुभव होने लगता है कि कोई शक्ति उसे आगे बढ़ने से रोक देती है। यह शक्ति ही यहाँ मन्त्र में 'रिपु ' और ‘मर्त्य' नामों से उल्लिखित हुई हैं। ये ही मनुष्य का शत्रु है - उसका शातन [नाश] करनेवाली हैं।
यह काम ही तेरा शत्रु है। यह मर्त्य है, मार है। अन्त में तेरी समाप्ति का कारण बनताहै।
इसके मारने की प्रक्रिया भी कितनी माया से भरी है ! बड़े ही आकर्षकरूप से वह हमारी ओर आता है और फिर फूलों के धनुषबाण से हमारी सभी ज्ञानेन्द्रियों पर एक साथ आक्रमण करता है। हमें पता भी नहीं लग पाता, पता लगने से पूर्व ही यह अपना काम बड़ी मधुरता से कर चुकता है। हमारे ज्ञान को नष्ट कर [मन्मथ] यह हमें अपना शिकार बना लेता है। इसकी माया से ऊपर उठना मनुष्य की शक्ति से बाहर की बात है।
परन्तु जब मनुष्य प्रभु के प्रति अपना अर्पण कर देता है तो फिर इस काम का कुछ वश नहीं चलता। यह स्मर है, तो प्रभु स्मर-हर हैं। मनुष्यों के ज्ञानदीप को यह काम बुझा देता है, तो प्रभु की ज्ञानाग्नि में यह स्वयं भस्म हो जाता है। मनुष्य के हृदय में प्रभु का स्मरण होते ही इस काम की इतिश्री हो जाती है। मनुष्य पर इसकी माया प्रबल थी, पर प्रभु की तो माया दासी ही है इस प्रकार प्रभु-स्मरण से काम के समाप्त होने पर मनुष्य की वास्तविक उन्नति प्रारम्भ होती है। इसीलिए मन्त्र में प्रभु को 'अग्नि' कहा है- वे हमें आगे ले-चलनेवाले हैं। अब हम आत्मिक उन्नति के मार्ग पर निर्विघ्न हो आगे बढ़ पाते हैं। सांसारिक दृष्टिकोण से भी यह प्रभु का स्मरण घाटे का व्यापार नहीं है। वे प्रभु सब प्रातव्य पदार्थों के देनेवाले हैं। जो-जो वस्तु हमारे लिए उपयोगी है, वह हमें प्राप्त होगी। हमें तो उचित पुरुषार्थ करते चलना है। हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति का ध्यान स्वयं प्रभु करेंगे। वे ‘हव्यदाति' हैं।
इस प्रकार काम के नाश से 'हमारा प्रेम का तत्त्व समाप्त हो जाता हो' यह बात नहीं। यह प्रेम संकुचित न रहकर व्यापक हो जाता है, हम सभी के प्रति प्रेमवाले होकर इस मन्त्र के ऋषि ‘विश्वमनाः' बन जाते हैं। अब हमारे ज्ञानेन्द्रियरूपी घोड़े हीनमार्ग पर न जानेवाले होकर उत्कृष्ट मार्ग पर जाते हैं। ये सामान्य घोड़े न होकर विशिष्ट स्थितिवाले होते हैं। इनके स्वामी हम ‘वैयश्व' बन जाते हैं - विशिष्ट अश्वोंवाले।
भावार्थ
प्रभु के प्रति समर्पण द्वारा हम 'विश्वमना वैयश्व' बनें।
विषय
परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ
भा० = ( यः ) = जो पुरुष ( हव्यदातये ) = ज्ञानदाता ( अग्नये ) = अग्नि परमात्मा और आचार्य के प्रति अपने को ( ददाश ) = समर्पण कर देता है ( तस्य ) = उस पुरुष का ( रिपुः ) = शत्रु ( मर्त्य:चन ) = मनुष्य भी ( मायया ) बुद्धि द्वारा ( न ईशीत) = कभी उस पर वश नहीं कर सकता ।
टिप्पणी
१०४ -, हव्यदातिभिः' इति ऋ० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः।
छन्दः - उष्णिक्।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्माग्नये हविर्दानेन किं फलं भवतीत्युच्यते।
पदार्थः
(मायया च न२) छलेन अपि (तस्य) परमात्मोपासकस्य (मर्त्यः) मानवः (रिपुः) शत्रुः (न ईशीत) न ईशितुं वशं नेतुं शक्नोति, (यः) परमात्मोपासकः (हव्यदातये) हव्यानां देयानां विजयपराक्रमादीनां दातिः दानं यस्मात् तस्मै। बहुव्रीहौ पूर्वपदप्रकृतिस्वरः। (अग्नये) जगन्नायकाय परमेश्वराय (ददाश) आत्मसमर्पणरूपं हविः प्रयच्छति। दाशृ दाने धातोर्लडर्थे लिट् ॥८॥
भावार्थः
विविधविघ्नबाधासंकटजालैराकीर्णेऽस्मिन् जगत्यनेके मर्त्याः शत्रवो विद्वेषविषदिग्धाः सन्तः सज्जनान् वञ्चयितुं वा लुण्ठितुं वा दग्धुं वा हन्तुं वा प्रयतन्ते। परं ये जनाः परमात्मने स्वात्मसमर्पणं कृत्वा तं शत्रुपराजयाय बलं याचन्ते तान् स पुरुषार्थे नियुज्य तथा विजयक्षमान् करोति यथा बलवन्तोऽपि बहुसंख्या अपि शत्रवो माययापि तान् वशं नेतुं न प्रभवन्ति ॥८॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ८।२३।१५, चन इति समस्तः, हव्यदातिभिः इति च पाठः। २. च न इति निपातद्वयं सह प्रयुक्तं सद् अप्यर्थे प्रायशो दृश्यते। ऋग्वेदे चन इत्येकपदतयैव पाठः पदकारेणापि तत्र पदद्वयतया न विभक्तम्। सामपदकारस्तु च न इति पृथक्त्वेन पठति, तत्रापि अप्यर्थ-ग्रहणे न कापि क्षतिः। अत्र—“मायया प्रज्ञया च। न शब्दः पूरणः—इति वि०। चनेति चार्थे—इति भ०। चनेति निपातसमुदायोऽप्यर्थे, मायया चन माययाऽपि—इति सा०।”
इंग्लिश (2)
Meaning
No mortal foe can ever by deceit prevail over him, who resigns himself to God, the Bestower of Knowledge.
Meaning
Whoever offers homage to Agni with sacred oblations into the holy fire is safe, no mortal enemy even with the worst of his fraudulent power or sorcery can prevail over him or his home. (Rg. 8-23-15)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (यः) જે જન (हव्यदातये) હવ્ય સ્તુતિરૂપ ભેટનું દાન જેના માટે છે એવા (अग्नये) અગ્રણાયક પરમાત્માને માટે (ददाश) જે આપે છે , અન્યને માટે નહિ અર્થાત્ જે માત્ર પરમાત્માની સ્તુતિમાં પોતાનું જીવન વિતાવે છે , અન્યની સ્તુતિમાં નહિ. (रिपुः मर्त्यः च न) શત્રુજન પણ (मायया) પ્રજ્ઞાછળ બુદ્ધિથી (न तस्य ईशीत) તેના પર સ્વામીત્વ કરી શકતો નથી. દબાવી શકતો નથી. (૮)
भावार्थ
ભાવાર્થ : એક માત્ર પરમાત્મા જ સ્તુતિને યોગ્ય છે , જે તેને સ્તુતિઓ દ્વારા પોતાનું સમસ્ત જીવન જ અર્પણ કરી દે છે. શત્રુનો તેના પર કોઈ પ્રભાવ પડી શકતો નથી , કોઈ હાનિ પહોંચાડી શકતો નથી , કારણ કે તે એકલો નથી તેની સાથે તેનો પરમાત્મા સદા રક્ષક છે. (૮)
उर्दू (1)
Mazmoon
بھگوان کی سُپردگی میں رہنے والے کا دُشمن بھی کچھ نہیں بِگاڑ سکتا
Lafzi Maana
(ہوّیہ داتیئے) دان اور استعمال کے لئے زر و مال دینے والے (اگنئے) اُس اگنی پرمیشور کے لئے (یہ مرتیہ) جو اُپاسک عابد (دداش) اپنا سب کچُھ ارپن کر دیتا ہے یہ کہہ کر کہ ع کہ تُو دانی حسابِ کم و بیش را۔ (ستیہ) اُس کا (رِپُو) دشمن (ماییاچن نہ اِیشت) چٰھل کٰپٹ دھوکا فریب سے بھی کچھ نہیں بِگاڑ سکتا۔
Tashree
داتا کے قدموں میں پڑ کر اپنے کو پامال کریں، ایسے بھگت پربھُوجن کا دُشمن نہ بینکا بال کریں۔
मराठी (2)
भावार्थ
या जगात अनेक प्रकारच्या विघ्न-बाधा व संकटे आहेत. अनेक शत्रू विद्वेषरूपी विषात लिप्त असतात. ठगी, लूट, जाळपोळ, मारणे असा सज्जनांशी व्यवहार करतात. परंतु जे लोक परमात्म्याला समर्पित होऊन शत्रूचा पराजय व्हावा यासाठी बलाची याचना करतात, त्यांना तो पुरुषार्थात नियुक्त करतो व विजय प्राप्त करण्यासाठी समर्थ बनवितो. बलवान व संख्येने अधिक असलेले शत्रूही संपत्तीद्वारे त्यांना वशमध्ये आणू शकत नाहीत. ॥८॥
विषय
आता त्या परमात्म रूप अग्नीला हवी दिल्याने काय लाभ प्राप्त होतो, याविषयी वर्णन केले आहे -
शब्दार्थ
(मायया च न) कपटाने वा धोका देऊन देखील (तस्य) त्या परमेश्वराच्या उपासकाला (मर्व्यः) कोणी मानव (रिपुः) शत्रू (न ईशीत) वशीभूत करू शकत नाही (यः) की जो उपासक (हव्य दातये) देय पराक्रम, विजय आदी यश देणाऱ्या (अग्नये) परमेश्वरासाठी (दयाश) आत्म समर्पणरूप हवी प्रदान करतो. ।। ८।।
भावार्थ
विविध विघ्ने आणि संकटांच्या तडाख्यात सापडलेल्या या संसारात अनेक मानव - शत्रू विद्वेष रूप विषाने लिप्त होऊन सज्जनांना लुटण्याचा, फसविण्याचा प्रयत्न करतात, त्यांना जाळण्याचे वा ठार मारण्याचे प्रयत्न करतात, पण जे लोक परमेश्वर चरणी आत्मसमर्पण करून त्याला शत्रू- पराजयासाठी शक्ती देण्याची याचना करतात, त्या उपासकांना परमेश्वर पुरुषार्थात उद्युक्त करून विजयी होण्याकरिता एवढे समर्त बनवितो की मोठ्या संख्येने असलेले बली शत्रूदेखील पराक्रमाने वा मायावी शक्तीने त्यांना पराभूत वा वशीभूत करू शकत नाहीत. ।। ८।।
तमिल (1)
Word Meaning
திவ்யமாய் நாடவும். ஹவ்யமளிக்கும் அக்னியை நாடுபவனில், [1]மாயையால் எந்த மனிதனும் தலைவனாவதில்லை.
FootNotes
[1].மாயையால் - அற்புதத்தால், அதாவது அக்னியை அனுசரிப்பவனை எவனும் ஜயிக்கமுடியாது
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