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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1047
    ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    34

    स꣡ना꣢ च सोम꣣ जे꣡षि꣢ च꣣ प꣡व꣢मान꣣ म꣢हि꣣ श्र꣡वः꣢ । अ꣡था꣢ नो꣣ व꣡स्य꣢सस्कृधि ॥१०४७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स꣡न꣢꣯ । च꣣ । सोम । जे꣡षि꣢꣯ । च꣣ । प꣡व꣢꣯मान । म꣡हि꣢꣯ । श्र꣡वः꣢꣯ । अ꣡थ꣢꣯ । नः꣣ । व꣡स्य꣢꣯सः । ꣣कृधि ॥१०४७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सना च सोम जेषि च पवमान महि श्रवः । अथा नो वस्यसस्कृधि ॥१०४७॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सन । च । सोम । जेषि । च । पवमान । महि । श्रवः । अथ । नः । वस्यसः । कृधि ॥१०४७॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1047
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम मन्त्र में सोम नाम से जीवात्मा को उद्बोधन है।

    पदार्थ

    हे (पवमान) गतिशील, कर्मशूर, पवित्रतादायक (सोम) ऐश्वर्यवान्, शुभगुणकर्मों के प्रेरक जीवात्मन् ! तू (महि श्रवः) महान् यश व महान् शास्त्रश्रवण को (सन) प्राप्त कर, (जेषि च) और संसार के समराङ्गण में विजयलाभ कर। (अथ) और उसके अनन्तर (नः) हमें भी (वस्यसः) अतिशय ऐश्वर्यवान् (कृधि) कर ॥१॥

    भावार्थ

    जो स्वयं परमात्मा का उपासक, पुरुषार्थी, शास्त्र की मर्यादा को सीखा हुआ और विजयशील है, वही दूसरों को प्रशस्त गुण-कर्मोंवाला परमैश्वर्यशाली बना सकता है ॥१॥

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    पदार्थ

    (पवमान सोम) हे आनन्दधारा में प्राप्त होने वाले शान्तस्वरूप परमात्मन्! तू (महि श्रवः) ऊँचे यश को (सन) सेवन करा—प्राप्त करा (च) और (जेषि) विरोधी भाव पर विजय करा (अथ) अनन्तर (नः-वस्यसः-कृधि) हमें श्रेष्ठ करो—बनाओ॥१॥

    टिप्पणी

    [*27. “अमृतं वै हिरण्यम्” [तै॰ सं॰ ५.२.७.२]।]

    विशेष

    ऋषिः—हिरण्यस्तूपः (सुनहरे स्तूप—लक्ष्य वाला या अमृतलोक*27 मोक्ष उच्च लक्ष्य जिसका है ऐसा उपासक)॥ देवता—सोमः (शान्तस्वरूप परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>

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    विषय

    मही, श्रवस् तथा विजय

    पदार्थ

    प्रस्तुत मन्त्रों का ऋषि ‘हिरण्यस्तूप'=[हिरण्यम्-रेत:=वीर्यम्, स्तूप = to raise] है। सोम [वीर्य] की ऊर्ध्वगति होने पर जहाँ हमारे शरीर का अङ्ग-प्रत्यङ्ग शक्तिशाली बनता है, वहाँ हमारी बुद्धि
    सूक्ष्म होकर प्रभु-दर्शन के योग्य बनती है। एवं, यह सोम संसार को जन्म देनेवाले सोम=परमात्मा को प्राप्त करानेवाला होता है । इस सोम-रक्षा द्वारा दर्शन का विषय बने सोम- प्रभु से हिरण्यस्तूप आराधना करता है कि – हे सोम- सारे ब्रह्माण्ड को जन्म देनेवाले प्रभो ! हमें १. (महि) = बड़प्पन व बुद्धि [greatness; intellect] (सना) = प्राप्त कराइए। हम संसार में विशाल हृदय व बुद्धिमान् बनकर बर्त्ताव करनेवाले हों। हमारा कोई भी कार्य हमारे छोटेपन–अनुदारता, मूर्खता और नासमझी को प्रकट न करे । २. (श्रवः सना) = [ fame; wealth; hymn; praise worthy action; Ear] हमें यश व धन प्राप्त कराइए। हम सदा आपके स्तोत्रों का गायन करें, आपका स्मरण करते हुए प्रशंसनीय कर्मों में लगे रहें और सबसे बड़ी बात यह कि आप हमें कान दीजिए, अर्थात् हमारी वृत्ति को ऐसा बनाइए कि हम सुनें बहुत, बोलें कम । ३. हे प्रभो ! (जेषि च) = आप हमें सदा विजयी बनाइए। हम अध्यात्मसंग्राम मंन काम-क्रोधादि को जीतनेवाले बनें ।

    (अथ) और अब इस प्रकार (नः) = हमें (वस्यसः) = उत्कृष्ट जीवनवाला (कृधि) = कीजिए । उत्कृष्ट जीवन में १. बड़प्पन व बुद्धिमत्ता होती है; २. यश, धन, स्तोत्र व उत्तम कर्मों का वहाँ स्थान होता है, इस जीवनवाले व्यक्ति सुनते बहुत हैं, बोलते कम । और ३. सबसे बड़ी बात यह है कि ये अध्यात्मसंग्राम में विजेता बनने का प्रयत्न करते हैं ।

    भावार्थ

    सुरक्षित सोम हमारे जीवनों में १. महि, २. श्रवस् तथा ३. विजय का कारण बने । 
     

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    विषय

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    भावार्थ

    हे (पवमान) सर्वव्यापक ! हमें (महि) बहुत बड़ा (श्रवः) यश और ज्ञान का (सन) दान करो और (जेषि च) विघ्नों पर विजय करो। (अथ) और बाद में (नः) हमें (वस्यसः) ऐश्वर्य से युक्त या ज्ञानियों में श्रेष्ठ (कृषि) करो।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ (१) आकृष्टामाषाः (२, ३) सिकतानिवावरी च। २, ११ कश्यपः। ३ मेधातिथिः। ४ हिरण्यस्तूपः। ५ अवत्सारः। ६ जमदग्निः। ७ कुत्सआंगिरसः। ८ वसिष्ठः। ९ त्रिशोकः काण्वः। १० श्यावाश्वः। १२ सप्तर्षयः। १३ अमहीयुः। १४ शुनःशेप आजीगर्तिः। १६ मान्धाता यौवनाश्वः। १५ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। १७ असितः काश्यपो देवलो वा। १८ ऋणचयः शाक्तयः। १९ पर्वतनारदौ। २० मनुः सांवरणः। २१ कुत्सः। २२ बन्धुः सुबन्धुः श्रुतवन्धुविंप्रबन्धुश्च गौपायना लौपायना वा। २३ भुवन आप्त्यः साधनो वा भौवनः। २४ ऋषि रज्ञातः, प्रतीकत्रयं वा॥ देवता—१—६, ११–१३, १७–२१ पवमानः सोमः। ७, २२ अग्निः। १० इन्द्राग्नी। ९, १४, १६, इन्द्रः। १५ सोमः। ८ आदित्यः। २३ विश्वेदेवाः॥ छन्दः—१, ८ जगती। २-६, ८-११, १३, १४,१७ गायत्री। १२, १५, बृहती। १६ महापङ्क्तिः। १८ गायत्री सतोबृहती च। १९ उष्णिक्। २० अनुष्टुप्, २१, २३ त्रिष्टुप्। २२ भुरिग्बृहती। स्वरः—१, ७ निषादः। २-६, ८-११, १३, १४, १७ षड्जः। १-१५, २२ मध्यमः १६ पञ्चमः। १८ षड्जः मध्यमश्च। १९ ऋषभः। २० गान्धारः। २१, २३ धैवतः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सोमनाम्ना जीवात्मानमुद्बोधयति।

    पदार्थः

    हे (पवमान) गतिशील, कर्मशूर पवित्रताप्रद (सोम) ऐश्वर्यवन् शुभगुणकर्मप्रेरक जीवात्मन् ! त्वम् (महि श्रवः) महद् यशः, महत् शास्त्रश्रवणं वा (सन२) संभजस्व। [षण सम्भक्तौ, लोटि मध्यमैकवचने रूपम्। संहितायां ‘द्व्यचोऽतस्तिङः। अ० ६।३।१३५’ इति दीर्घः।] (जेषि च) संसारसमराङ्गणे विजयस्व च। अथ तदनन्तरं च (नः) अस्मानपि (वस्यसः) वसीयसः, अतिशयेन वसुमतः (कृधि) कुरु। [संहितायाम् ‘कः करत्करतिकृधिकृतेष्वनदितेः। अ० ८।३।५०’ इत्यनेन विसर्जनीयस्य सकारादेशः] ॥१॥

    भावार्थः

    यः स्वयं परमात्मोपासकः पुरुषार्थी गृहीतशास्त्रमर्यादो विजयशीलश्चास्ति स एवान्यान् प्रशस्तगुणकर्मवतः परमैश्वर्यशालिनः कर्त्तुं शक्नोति ॥१॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।४।१। २. सनाशब्दः सदावाची। सदा जेषि च शत्रून्—इति वि०। सायणमते तु ‘सना’ इति क्रियापदम् ‘द्व्यचोऽतस्तिङः’ (६।३।१३५) इति दीर्घः। विवरणकारमते तु ‘सना’ सदार्थमव्ययमिति ‘निपातस्य च’ (६।३।१३६) इति दीर्घः—इति सामश्रमी।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Immaculate God, bring us victory, make us win high renown. May Thou make us better than we are !

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    Meaning

    O Soma, divine spirit of peace and joy, eternal power of love and friendship, most renowned giver of food and sustenance, win over the opponents and make us happy and prosperous, more and ever more. (Rg. 9-4-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (पवमान सोम) આનંદધારામાં પ્રાપ્ત થનાર સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું (महि श्रवः) મહાન યશનું (सन) સેવન કરાવ-પ્રાપ્ત કરાવ (च) અને (जेषि) વિરોધી ભાવ પર વિજય કરાવ. (अथ) અનન્તર (नः वस्यसः कृधे) અમને શ્રેષ્ઠ કરો-બનાવો. (૧)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो स्वत: परमेश्वराचा उपासक, पुरुषार्थी शास्त्रमर्यादा जाणणारा, विजयशील असतो, तोच दुसऱ्यांनी प्रशंसनीय गुणकर्मयुक्त, अत्यंत ऐश्वर्यवान बनवू शकतो. ॥१॥

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