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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1074
    ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    21

    तो꣣शा꣡सा꣢ रथ꣣या꣡वा꣢ना वृत्र꣣ह꣡णाप꣢꣯राजिता । इ꣡न्द्रा꣢ग्नी꣣ त꣡स्य꣢ बोधतम् ॥१०७४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तोशा꣡सा꣢ । र꣣थया꣡वा꣢ना । र꣣थ । या꣡वा꣢꣯ना । वृ꣣त्रह꣡णा꣢ । वृ꣣त्र । ह꣡ना꣢꣯ । अ꣡प꣢꣯राजिता । अ । प꣣राजिता । इ꣡न्द्रा꣢꣯ग्नी । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अ꣣ग्नीइ꣡ति꣢ । त꣡स्य꣢꣯ । बो꣣धतम् ॥१०७४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तोशासा रथयावाना वृत्रहणापराजिता । इन्द्राग्नी तस्य बोधतम् ॥१०७४॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तोशासा । रथयावाना । रथ । यावाना । वृत्रहणा । वृत्र । हना । अपराजिता । अ । पराजिता । इन्द्राग्नी । इन्द्र । अग्नीइति । तस्य । बोधतम् ॥१०७४॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1074
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आगे फिर वही विषय वर्णित है।

    पदार्थ

    हे (इन्द्राग्नी) जीवात्मा और प्राण एवं राजा और सेनापति ! (तोशासा) सन्तुष्टि करनेवाले, (रथयावाना) देहरूप रथ से वा विमान आदि यान से गमन करनेवाले, (वृत्रहणा) शत्रु, विघ्न, पाप आदि को नष्ट करनेवाले, (अपराजिता) पराजित न होनेवाले तुम दोनों (तस्य) उस-उस कर्म को (बोधतम्) करना वा कराना जानो ॥२॥

    भावार्थ

    जीवात्मा और प्राण एवं राजा और सेनापति को नेता बनाकर वैयक्तिक, सामाजिक और राष्ट्रिय उन्नति सबको सिद्ध करनी चाहिए ॥२॥

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    पदार्थ

    (तोशासा) हे तुष्ट करनेवाले! (रथयावाना) संसाररथ पर आरूढ—संसाररथ के स्वामी—संसाररथ के चालक (वृत्रहणा) पापहन्ता (अपराजिता) किसी पराजित करनेवाले से रहित (इन्द्राग्नी) ऐश्वर्यवन् तथा ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मन्! तू (तस्य बोधतम्) उस अध्यात्मयज्ञ को जान—अपना॥२॥

    विशेष

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    विषय

    सदा अपराजित

    पदार्थ

    हे प्राणापानो! आप १. (तोशासा) = शरीर में रोगों का कारण बननेवाले सब कृमियों का संहार करनेवाले हो [तोश= हिंसा] । प्राणापान की साधना का पहला परिणाम' आरोग्य' है । २. नीरोगता प्राप्त कराके (रथयावाना) = आप इस शरीररूप रथ को जीवन-यात्रा की पूर्ति के लिए मार्ग पर ले-चलनेवाले हो । जीवन-यज्ञ के ऋत्विज हो । जीवन-यात्रा की पूर्ति के लिए प्रभु ने यह शरीररूप रथ दिया है। इसमें ये प्राणापान किसी प्रकार की कमी नहीं आने देते । ३. (वृत्रहणा) = मन में उत्पन्न हो जानेवाली वासनाएँ ही ‘वृत्र’ हैं। ये वासनाएँ मनुष्य के ज्ञान पर पर्दा-सा डाल देती है, तभी तो ‘वृत्र' हैं । ज्ञान के आवृत हो जाने पर अन्धकार में रथ यात्रा मार्ग से भ्रष्ट हो जाता है या कहीं टकराकर टूट-फूट जाता है। ये प्राणापान इन वृत्रों का हनन कर देते हैं और यात्रा मार्ग को प्रकाशमय रखते हैं। ४. (अपराजिता) = ये प्राणापान इन विघ्नों से कभी पराजित नहीं होते। असुरों ने इन्द्रियों पर आक्रमण करके उन्हें पराजित कर दिया था, परन्तु प्राणापान से टकराकर वे स्वयं चूर्ण हो गये थे। ये इन्द्राग्नी पराजित होनेवाले नहीं । ('इन्द्राग्नी देवानामोजस्वितमौ') – शत० १३.१.२.६ ये प्राणापान सर्वाधिक ओजस्वी हैं—ये सब विघ्नों को जीतनेवाले, सदा अपराजित हैं । ५. (इन्द्राग्री) = हे प्राणापानो ! आप हमारी यात्रा को निर्विघ्न पूर्ण करके हमें (तस्य) = उस प्रभु का (बोधतम्) = ज्ञान प्राप्त कराओ। 

    भावार्थ

    प्राणापान शरीर को नीरोग कर, शरीररूप रथ को मार्ग पर ले-चलते हैं, मार्ग में आनेवाले विघ्नों को नष्ट करते हैं। सदा अपराजित होते हुए प्रभु को प्राप्त कराते हैं।

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    विषय

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    भावार्थ

    आप दोनों (रथयावाना) रथरूप देह या रसस्वरूप प्रभु को प्राप्त होने हारे (वृत्रहणा) समस्त अज्ञान आवरण का नाश करने हारे (अपराजिता) कभी पराजित न होने वाले, (तोशासा) विघ्नों के नाशक हैं, (इन्द्राग्नी) आप इन्द्र और अग्नि परमात्मा और आचार्यस्वरूप दोनों मुझको उस यज्ञ का ज्ञान कराइये।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ (१) आकृष्टामाषाः (२, ३) सिकतानिवावरी च। २, ११ कश्यपः। ३ मेधातिथिः। ४ हिरण्यस्तूपः। ५ अवत्सारः। ६ जमदग्निः। ७ कुत्सआंगिरसः। ८ वसिष्ठः। ९ त्रिशोकः काण्वः। १० श्यावाश्वः। १२ सप्तर्षयः। १३ अमहीयुः। १४ शुनःशेप आजीगर्तिः। १६ मान्धाता यौवनाश्वः। १५ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। १७ असितः काश्यपो देवलो वा। १८ ऋणचयः शाक्तयः। १९ पर्वतनारदौ। २० मनुः सांवरणः। २१ कुत्सः। २२ बन्धुः सुबन्धुः श्रुतवन्धुविंप्रबन्धुश्च गौपायना लौपायना वा। २३ भुवन आप्त्यः साधनो वा भौवनः। २४ ऋषि रज्ञातः, प्रतीकत्रयं वा॥ देवता—१—६, ११–१३, १७–२१ पवमानः सोमः। ७, २२ अग्निः। १० इन्द्राग्नी। ९, १४, १६, इन्द्रः। १५ सोमः। ८ आदित्यः। २३ विश्वेदेवाः॥ छन्दः—१, ८ जगती। २-६, ८-११, १३, १४,१७ गायत्री। १२, १५, बृहती। १६ महापङ्क्तिः। १८ गायत्री सतोबृहती च। १९ उष्णिक्। २० अनुष्टुप्, २१, २३ त्रिष्टुप्। २२ भुरिग्बृहती। स्वरः—१, ७ निषादः। २-६, ८-११, १३, १४, १७ षड्जः। १-१५, २२ मध्यमः १६ पञ्चमः। १८ षड्जः मध्यमश्च। १९ ऋषभः। २० गान्धारः। २१, २३ धैवतः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि तमेव विषयमाह।

    पदार्थः

    हे (इन्द्राग्नी) जीवात्मप्राणौ नृपतिसेनापती वा ! (तोशासा२) तोशसौ सन्तुष्टिकरौ। [तुष प्रीतौ, बाहुलकादौणादिकः असच् प्रत्ययः। मध्यस्थस्य अत्त्वस्य दीर्घश्छान्दसः। वर्णव्यत्ययेन षकारस्य तालव्यादेशः।] (रथयावाना) रथयावानौ रथेन देहरथेन विमानादियानेन वा गन्तारौ। [रथोपपदात् या प्रापणे धातोः छन्दसीवनिपौ च वक्तव्यौ। वा०, अ० ५।२।१२२ इत्यनेन वनिप् प्रत्ययः।] (वृत्रहणा) शत्रुविघ्नपापादीनां हन्तारौ, (अपराजिता) अपराजितौ च युवाम् (तस्य) तत्तत्कर्मणः (बोधतम्) कर्तुं कारयितुं च जानीतम् ॥२॥

    भावार्थः

    जीवात्मप्राणौ नृपतिसेनापती च नेतारौ वृत्वा वैयक्तिकी सामाजिकी राष्ट्रिया चोन्नतिः सर्वैः साधनीया ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।३८।२। २. तोशासा शत्रून् हिंसन्तौ—इति सा०। दीप्तिसम्पन्नौ—इति वि०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God and Guru, in my life’s struggle. Ye are the Removers of obstacles, the contributors to happiness, the Dispellers of ignorance, and invincible. Keep me awake in this life’s struggle!

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    Meaning

    Ruling to the satisfaction of the people, going by chariot and reaching fast wherever needed, destroying the evils of darkness, ignorance, want and demonic injustice and exploitation, never frustrated or defeated but always victorious, Indra and Agni, ruler and enlightened sage and scholar, know this purpose well, follow and never relent. (Rg. 8-38-2)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (तोशासा) હે તુષ્ટ કરનાર (रथयवाना) સંસારરથ પર આરૂઢ-સંસારના સ્વામી-સંસાર રથના ચાલક (वृत्रहणा) પાપનાશક (अपराजिता) કોઈથી નહિ હારનાર (इन्द्राग्नी) ઐશ્વર્યવાન તથા જ્ઞાનપ્રકાશ સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું (तस्य बोधतम्) તે અધ્યાત્મયજ્ઞને જાણ-અપનાવ. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जीवात्मा व प्राण आणि राजा व सेनापती यांना नेते बनवून सर्वानीच वैयक्तिक, सामाजिक व राष्ट्रीय उन्नती करावी. ॥२॥

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