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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1073
    ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    17

    य꣣ज्ञ꣢स्य꣣ हि꣢꣫ स्थ ऋ꣣त्वि꣢जा꣣ स꣢स्नी꣣ वा꣡जे꣢षु꣣ क꣡र्म꣢सु । इ꣡न्द्रा꣢ग्नी꣣ त꣡स्य꣢ बोधतम् ॥१०७३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ । हि । स्थः । ऋ꣣त्वि꣡जा꣢ । सस्नी꣢꣯इ꣡ति꣢ । वा꣡जे꣢꣯षु । क꣡र्म꣢꣯सु । इ꣡न्द्रा꣢꣯ग्नी । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अ꣣ग्नीइ꣡ति꣢ । त꣡स्य꣢꣯ । बो꣣धतम् ॥१०७३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यज्ञस्य हि स्थ ऋत्विजा सस्नी वाजेषु कर्मसु । इन्द्राग्नी तस्य बोधतम् ॥१०७३॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यज्ञस्य । हि । स्थः । ऋत्विजा । सस्नीइति । वाजेषु । कर्मसु । इन्द्राग्नी । इन्द्र । अग्नीइति । तस्य । बोधतम् ॥१०७३॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1073
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम मन्त्र में इन्द्राग्नी के नाम से जीवात्मा और प्राण तथा राजा और सेनापति को सम्बोधन करते हैं।

    पदार्थ

    हे (इन्द्राग्नी) जीवात्मा और प्राण एवं राजा और सेनापति ! तुम दोनों (यज्ञस्य) शरीर-यज्ञ एवं राष्ट्र-यज्ञ के (हि) निश्चय ही (ऋत्विजा) ऋत्विज्, संचालक (स्थः) हो, (वाजेषु) विज्ञानों में तथा (कर्मसु) कर्मों में (सस्नी) निष्णात हो। तुम दोनों (तस्य) उसे देहयज्ञ एवं राष्ट्रयज्ञ को (बोधतम्) करना वा कराना जानो ॥१॥

    भावार्थ

    जीवात्मा और प्राण के आधिपत्य में वैयक्तिक शरीर-यज्ञ को भली-भाँति सञ्चालित करके राजा और सेनापति के सहयोग से राष्ट्र को उन्नत करना चाहिए ॥१॥

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    पदार्थ

    (इन्द्राग्नी) हे ऐश्वर्यवन् तथा ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मन्! तू (यज्ञस्य) अध्यात्मयज्ञ के (सस्नी) विशुद्ध (ऋत्विजा) याजक—यज्ञ कराने वाले (स्थः) हो (वाजेषु कर्मसु) वाज—अमृत अन्न भोगवाले*49 अध्यात्मकर्मों में वर्तमान (तस्य बोधतम्) उस अध्यात्मयज्ञ को जान—अपना॥१॥

    टिप्पणी

    [*49. अकारो मत्वर्थीयः।]

    विशेष

    ऋषिः—श्यावाश्वः (उच्च गतिशील या निर्मल इन्द्रियरूप घोड़े जिसके हों ऐसा उपासक)॥ देवता—इन्द्राग्नी (ऐश्वर्यवान् तथा ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>

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    विषय

    इन्द्र + अग्नि

    पदार्थ

    ("प्राणापानौ वा इन्द्राग्नी") – गो० २.१ से स्पष्ट है कि इन्द्राग्नी का अभिप्राय प्राणापान से है । तै० १.६.४.३ में (“प्राणापानौ वा एतौ देवानां यदिन्द्राग्नी") इन शब्दों में देवों के प्राणापान को इन्द्राग्नी नाम दिया है। जब मनुष्य प्राणापान का प्रयोग सामान्य क्षुधा - तृषा इत्यादि के मिटाने में ही न कर, खान-पान की दुनिया से ऊपर उठकर, आध्यात्मक्षेत्र में विचरता है और देवमार्ग पर चलता है तब प्राणापान ‘इन्द्राग्नी' नामवाले हो जाते हैं। ('ब्रह्मक्षत्रे वा इन्द्राग्नी') कौ० १२.८ के शब्दों में ये ज्ञान और बल के संस्थापक हैं । ऐ० २.३६ में इन्हें (“इन्द्राग्नी वै देवानामोजिष्ठौ बलिष्ठौ सहिष्ठौ सप्तमौ पारयिष्णुतमौ") कहा गया है। ये ओज, बल व साहस को देनेवाले हैं, श्रेष्ठतम हैं और सब कार्यों में सफल बनानेवाले हैं। ('इन्द्राग्नी वै विश्वेदेवाः') – शत० २.४.४.१३ के अनुसार इन्द्राग्नी ही सब दिव्य गुणों को जन्म देनेवाले हैं। प्रस्तुत मन्त्रों का ऋषि इन प्राणापान के द्वारा ही गतिशील बनकर ‘श्यावाश्व’ [गतिशील इन्द्रियोंवाला] कहलाया है, त्रिविध दुःखों व शोकों से ऊपर उठकर आत्रेय' हुआ है। यह प्राणापान को ही सम्बोधित करके कहता है कि – १. हे (इन्द्राग्नी) =प्राणापानो! (हि) = निश्चय से आप दोनों (यज्ञस्य) = मेरे जीवन-यज्ञ के (ऋत्विजा स्थ) = ऋत्विज हो । आपकी कृपा से ही मेरा यह जीवन-यज्ञ चल रहा है । २. आप ही (वाजेषु) = सब बलों में तथा (कर्मसु) = कर्मों में (सस्त्री) = मुझे खूब शुद्ध करनेवाले हो । शक्ति तथा कर्मों के द्वारा सब मलों को दूर करनेवाले हो । ३. इस प्रकार शुद्ध बनाकर हे प्राणापानो ! (तस्य) = उस प्रभु का (बोधतम्) = ज्ञान दो। प्राणापान की साधना से ही हमारे ब्रह्म व क्षत्र [ज्ञान+बल] विकसित होते हैं और हम ब्रह्म के समीप पहुँच जाते हैं।

    भावार्थ

    प्राणापान ही जीवन-यज्ञ को ठीक से चलाते हैं, हमारी शक्तियों व कर्मों को पवित्र करते हैं और अन्त में हमें प्रभु को प्राप्त कराते हैं ।
     

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    विषय

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    भावार्थ

    हे (इन्द्राग्नी) इन्द्र, गुरो ! और अग्ने ! विद्वन् ! आचार्य और अध्यापक आप दोनों (यज्ञस्य) इस महान् अध्ययनाध्यापन ज्ञान दानरूप यज्ञ और परमेश्वर के (ऋत्विजौ) यथाऋतु प्रवर्त्तक एवं प्राण साधना द्वारा उपासना करने हारे (स्थः) हो। और (वाजेषु) ज्ञान यज्ञों में और (कर्मसु) सब कर्मों में (सस्त्री) स्नातक, पारंगत हो। (तस्य) उस उक्त यज्ञ के विषय में आप (बोधतम्) हमें ज्ञान कराइये।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ (१) आकृष्टामाषाः (२, ३) सिकतानिवावरी च। २, ११ कश्यपः। ३ मेधातिथिः। ४ हिरण्यस्तूपः। ५ अवत्सारः। ६ जमदग्निः। ७ कुत्सआंगिरसः। ८ वसिष्ठः। ९ त्रिशोकः काण्वः। १० श्यावाश्वः। १२ सप्तर्षयः। १३ अमहीयुः। १४ शुनःशेप आजीगर्तिः। १६ मान्धाता यौवनाश्वः। १५ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। १७ असितः काश्यपो देवलो वा। १८ ऋणचयः शाक्तयः। १९ पर्वतनारदौ। २० मनुः सांवरणः। २१ कुत्सः। २२ बन्धुः सुबन्धुः श्रुतवन्धुविंप्रबन्धुश्च गौपायना लौपायना वा। २३ भुवन आप्त्यः साधनो वा भौवनः। २४ ऋषि रज्ञातः, प्रतीकत्रयं वा॥ देवता—१—६, ११–१३, १७–२१ पवमानः सोमः। ७, २२ अग्निः। १० इन्द्राग्नी। ९, १४, १६, इन्द्रः। १५ सोमः। ८ आदित्यः। २३ विश्वेदेवाः॥ छन्दः—१, ८ जगती। २-६, ८-११, १३, १४,१७ गायत्री। १२, १५, बृहती। १६ महापङ्क्तिः। १८ गायत्री सतोबृहती च। १९ उष्णिक्। २० अनुष्टुप्, २१, २३ त्रिष्टुप्। २२ भुरिग्बृहती। स्वरः—१, ७ निषादः। २-६, ८-११, १३, १४, १७ षड्जः। १-१५, २२ मध्यमः १६ पञ्चमः। १८ षड्जः मध्यमश्च। १९ ऋषभः। २० गान्धारः। २१, २३ धैवतः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्रादाविन्द्राग्निनाम्ना जीवात्मप्राणौ नृपतिसेनापती च सम्बोधयति।

    पदार्थः

    हे (इन्द्राग्नी) जीवात्मप्राणौ नृपतिसेनापती वा ! युवाम् (यज्ञस्य) देहयज्ञस्य राष्ट्रयज्ञस्य वा (हि) निश्चयेन (ऋत्विजा) ऋत्विजौ, सञ्चालकौ (स्थः) वर्तेथे, (वाजेषु) विज्ञानेषु (कर्मसु) क्रियासु च (सस्नी) निष्णातौ स्थ। [ष्णा शौचे धातोः ‘आदृगमहनजनः किकिनौ लिट् च’ अ० ३।२।१७१ इति किन् प्रत्ययः। लिड्वद्भावाद् धातोर्द्वित्वम्।] युवाम् (तस्य) तं देहयज्ञं राष्ट्रयज्ञं वा। [द्वितीयार्थे षष्ठी।] (बोधतम्) कर्तुं कारयितुं च जानीतम् ॥१॥

    भावार्थः

    जीवात्मप्राणयोराधिपत्ये वैयक्तिकं देहयज्ञं सम्यक् सञ्चाल्य नृपतिसेनापत्योः सहयोगेन राष्ट्रमुन्नेतव्यम् ॥१॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।३८।१।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God and Guru (Teacher) Ye both are verily the promoters of the Yajna of life. Ye are well versed in knowledge and action. Keep me awake in this life’s struggle!

    Translator Comment

    Yajna means struggle.

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    Meaning

    Indra, wielder of power and justice, ruler of the nation, Agni, enlightened sage and scholar, high priest and leading authority on the values of the system of governance, be firmly joined together in the cleanest programme of government in all decisions, actions and developmental plans and their completion for advancement, and know it well that this is the purpose of governance and the social order. You are two leading participants in this sacred yajna. Know this and abide in your position. (Rg. 8-38-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्द्राग्नी) હે ઐશ્વર્યવાન તથા જ્ઞાન-પ્રકાશ સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું (यज्ञस्य) અધ્યાત્મયજ્ઞનો (सस्नी) વિશુદ્ધ (ऋत्विजा) યાજક-યજ્ઞ કરાવનાર (स्थः) છે (वाजेषु कर्मसु) વાજ = અમૃત અન્નભોગવાળા અધ્યાત્મકર્મોમાં વિદ્યમાન (तस्य बोधतम्) તે અધ્યાત્મયજ્ઞને જાણ-અપનાવ. (૧)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जीवात्मा व प्राण यांच्या आधिपत्यात वैयक्तिक शरीर यज्ञाला चांगल्या प्रकारे संचालित करून राजा व सेनापती यांच्या सहयोगाने राष्ट्र उन्नत करावे. ॥१॥

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