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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1097
ऋषिः - शक्तिर्वासिष्ठः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - सतोबृहती
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
24
य꣡स्य꣢ त꣣ इ꣢न्द्रः꣣ पि꣢बा꣣द्य꣡स्य꣢ म꣣रु꣢तो꣣ य꣡स्य꣢ वार्य꣣म꣢णा꣣ भ꣡गः꣢ । आ꣡ येन꣢꣯ मि꣣त्रा꣡वरु꣢꣯णा꣣ क꣡रा꣢मह꣣ ए꣢न्द्र꣣म꣡व꣢से म꣣हे꣢ ॥१०९७॥
स्वर सहित पद पाठय꣡स्य꣢꣯ । ते꣣ । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । पि꣡बा꣢꣯त् । य꣡स्य꣢꣯ । म꣣रु꣡तः꣢ । य꣡स्य꣢꣯ । वा꣣ । अर्यम꣡णा꣢ । भ꣡गः꣢꣯ । आ । ये꣡न꣢꣯ । मि꣣त्रा꣢ । मि꣣ । त्रा꣢ । व꣡रु꣢꣯णा । क꣡रा꣢꣯महे । आ । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । अ꣡व꣢꣯से । म꣣हे꣢ ॥१०९७॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य त इन्द्रः पिबाद्यस्य मरुतो यस्य वार्यमणा भगः । आ येन मित्रावरुणा करामह एन्द्रमवसे महे ॥१०९७॥
स्वर रहित पद पाठ
यस्य । ते । इन्द्रः । पिबात् । यस्य । मरुतः । यस्य । वा । अर्यमणा । भगः । आ । येन । मित्रा । मि । त्रा । वरुणा । करामहे । आ । इन्द्रम् । अवसे । महे ॥१०९७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1097
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में पुनः परमेश्वर की महिमा वर्णित है।
पदार्थ
(यस्य ते) जिस जगत्स्रष्टा तुझ जगदीश्वर के उत्पन्न किये रस को (इन्द्रः) सूर्य (पिबात्) पीता है, (यस्य) जिस तेरे उत्पन्न किये रस को (मरुतः) पवन पीते हैं, (यस्य वा) और जिस तेरे उत्पन्न किये रस को (अर्यमणा) शत्रु का नियमन करनेवाले बुद्धितत्त्व के साथ (भगः) मन पीता है, (येन) जिस तुझ सर्वान्तर्यामी और सर्वप्रेरक परमेश्वर की सहायता से, हम (मित्रावरुणा) प्राण-अपान को (आ करामहे) अपने अनुकूल करते हैं और जिस तेरी सहायता से (महे अवसे) महान् रक्षा के लिए (इन्द्रम्) जीवात्मा को (आ करामहे) अनुकूल करते हैं। (सः) वह तू सोम परमेश्वर (सुनुषे) सब भौतिक रसों को वा दिव्य आनन्दरस को अभिषुत करता है। [यहाँ ‘स सुन्वे’ इसका परिवर्तित रूप ‘स सुनुषे’ पूर्वमन्त्र से लाया गया है।] ॥२॥
भावार्थ
परमेश्वर के ही रस और शक्ति से सब शरीरस्थ मन, बुद्धि, प्राण आदि और बाह्य सूर्य, चाँद, तारे, बादल, पहाड़, समुद्र, धरती-आकाश आदि रसवान् और शक्तिमान् दिखायी देते हैं ॥२॥
पदार्थ
(यस्य ते) हे सोम—शान्तस्वरूप परमात्मन्! जिस तेरे आनन्दरस को (इन्द्रः पिबात्) उपासक आत्मा पीता है ( यस्य मरुतः) जिस तेरे आनन्दरस को मुमुक्षुजन*82 पीते हैं (वा) और*83 (अर्यमणा भगः) आत्मसमर्पणकर्ता जन*84 तथा साथ ही भाग्यशाली आत्मतेज वाला पीता है (महे-अवसे येन मित्रावरुणा-आकरामहे) महती रक्षा के लिए जिस तुझ परमात्मा के द्वारा प्राण अपान को स्वच्छ प्रबल बनावें (इन्द्रम्-आ) जिस तुझ परमात्मा के द्वारा स्वात्मा को भी स्वच्छ प्रबल बनावें बनाते हैं उसका=तेरा समागम स्तवन करते हैं॥२॥
टिप्पणी
[*82. “मरुतो देवविशः” [श॰ २.५.१.१२]।] [*83. “अथापि वा समुच्चयार्थे भवति” [निरु॰ १.५]।] [*84. “यो ददाति सोऽर्यमा” [मै॰ २.३.६]।]
विशेष
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विषय
सोमरक्षा के साधन व लाभ
पदार्थ
सोमरस का चयन करनेवाला 'ऋणञ्चय' गत मन्त्र का ऋषि था [ऋण=जल=सोम] । वह शक्ति-सम्पन्न होकर 'शक्ति' नामवाला हो जाता है । यह सोम को ही सम्बोधित करके कहता है कि तू वह है (यस्य ते) = जिस तेरा १. (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय पुरुष (पिबात्) = पान करता है । (यस्य) = जिसका २. (मरुतः) = प्राणसाधना करनेवाले पुरुष (पिबात्) = पान करते हैं । (यस्य वा) = या जिसका ३. (अर्यमणा) = दानवृत्ति के साथ (भगः) = प्रभु का भजन करनेवाला व्यक्ति पान करता है । (येन) = जिस तुझसे १. (मित्रावरुणा) = हम अपने प्राणापानों को और जिस तुझसे हम २. (इन्द्रम् आकरामहे) = अपने को शक्तिशाली बनाते हैं । जिस तेरे द्वारा हम ३. (अवसे) = शरीर की रोगों से रक्षा करने में समर्थ होते हैं और ४. जिस तुझसे (महे) = हम हृदय के महत्त्व को सिद्ध करनेवाले होते हैं।
एवं, सोम-रक्षा के चार साधन हैं—जितेन्द्रियता, प्राणायाम, दानवृत्ति तथा प्रभु-भजन । सोमरक्षा के चार लाभ हैं—प्राणापान की शक्ति की वृद्धि, इन्द्रत्व की प्राप्ति, नीरोगता तथा हृदय की विशालता।
भावार्थ
हम सोमरक्षा के साधनों का प्रयोग करके उसके लाभों को प्राप्त करें ।
विषय
missing
भावार्थ
हे (सोम) परमेश्वर (यस्य) जिस (ते) तेरे रस को (इन्द्रः) यह आत्मा (पिबात्) पान करता है (यस्य) जिस तेरे रस को (मरुतः) ये दश प्राण और समस्त विद्वान् गण और (यस्य वा) जिस तेरे रस या बल को (अर्यम्णा) अर्यमा अर्थात् समान वायु के साथ (भगः) उदान वायु और सूर्य पान करते हैं और (येन) जिसके बल पर (मित्रावरुणा) प्राण और अपान दोनों को (आ करामहे) परिचालित करते हैं और (इन्द्रम्) जिसके बल पर विद्वानजन आत्मा को (आ) साक्षात् करते हैं। वह तू (महे अवसे) बड़ी रक्षा प्राप्त करने के लिये है तू ही शान्तिप्रद अभय स्वरूप हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ (१) आकृष्टामाषाः (२, ३) सिकतानिवावरी च। २, ११ कश्यपः। ३ मेधातिथिः। ४ हिरण्यस्तूपः। ५ अवत्सारः। ६ जमदग्निः। ७ कुत्सआंगिरसः। ८ वसिष्ठः। ९ त्रिशोकः काण्वः। १० श्यावाश्वः। १२ सप्तर्षयः। १३ अमहीयुः। १४ शुनःशेप आजीगर्तिः। १६ मान्धाता यौवनाश्वः। १५ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। १७ असितः काश्यपो देवलो वा। १८ ऋणचयः शाक्तयः। १९ पर्वतनारदौ। २० मनुः सांवरणः। २१ कुत्सः। २२ बन्धुः सुबन्धुः श्रुतवन्धुविंप्रबन्धुश्च गौपायना लौपायना वा। २३ भुवन आप्त्यः साधनो वा भौवनः। २४ ऋषि रज्ञातः, प्रतीकत्रयं वा॥ देवता—१—६, ११–१३, १७–२१ पवमानः सोमः। ७, २२ अग्निः। १० इन्द्राग्नी। ९, १४, १६, इन्द्रः। १५ सोमः। ८ आदित्यः। २३ विश्वेदेवाः॥ छन्दः—१, ८ जगती। २-६, ८-११, १३, १४,१७ गायत्री। १२, १५, बृहती। १६ महापङ्क्तिः। १८ गायत्री सतोबृहती च। १९ उष्णिक्। २० अनुष्टुप्, २१, २३ त्रिष्टुप्। २२ भुरिग्बृहती। स्वरः—१, ७ निषादः। २-६, ८-११, १३, १४, १७ षड्जः। १-१५, २२ मध्यमः १६ पञ्चमः। १८ षड्जः मध्यमश्च। १९ ऋषभः। २० गान्धारः। २१, २३ धैवतः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनः परमेश्वरस्य महिमानमाह।
पदार्थः
(यस्य ते) यस्य तव सोमस्य जगत्स्रष्टुर्जगदीश्वरस्य रसम् (इन्द्रः) सूर्यः (पिबात्) पिबति, (यस्य) यस्य तव रसम् (मरुतः) पवनाः पिबन्ति, (यस्य वा) यस्य च तव रसम् (अर्यमणा) अरि नियमनकर्त्रा बुद्धितत्त्वेन सह (भगः) मनः पिबति, (येन) त्वया सोमेन सर्वान्तर्यामिणा सर्वप्रेरकेण परमेश्वरेण, वयम् (मित्रावरुणा) मित्रावरुणौ प्राणापानौ (आ करामहे) अनुकूलं कुर्महे, येन च (महे अवसे) महते रक्षणाय (इन्द्रम्) जीवात्मानम् (आ करामहे) अनुकूलं कुर्मः, (सः) असौ त्वं सोमः परमेश्वरः (सुनुषे) सर्वं भौतिकं रसं दिव्यमानन्दरसं च अभिषुणोषि। अत्र ‘स सुन्वे’ इत्यस्य परिवर्तितं रूपं ‘स सुनुषे’ इति पूर्वमन्त्रादाकृष्यते ॥२॥
भावार्थः
परमेश्वरस्यैव रसेन शक्त्या च सर्वे दैहिका मनोबुद्धिप्राणादयो बाह्याः सूर्यचन्द्रनक्षत्रपर्जन्यपर्वतसमुद्रद्यावापृथिव्यादयश्च रसवन्तः शक्तिमन्तश्च दृश्यन्ते ॥२॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।१०८।१४, ‘त इन्द्रः’ इत्यत्र ‘न॒ इन्द्रः॒’।
इंग्लिश (2)
Meaning
O God, the soul drinks of Thy felicity, all learned persons derive happiness from Thee, our powers of discernment and worldly enjoyment depend upon Thee. On Thy strength we set in motion the Prana and Apana. On Thy strength we visualise the soul. Thou art our Refuge and Giver of happiness!
Meaning
Soma is the omniscient and omnipotent divine spirit, whose ecstatic presence, our soul experiences, whose powers, our vibrant forces experience and adore, by whose path and guidance our power and honour moves and moves forward, by whose grace we develop our pranic energies and our sense of love and judgement, and by whose word and grace we anoint and consecrate our ruler for our high level of defence and security. (Rg. 9-108-14)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (यस्य ते) હે સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! જે તારા આનંદરસનો (इन्द्रः पिबात्) ઉપાસક આત્મા પાન કરે છે, (यस्य मरुतः) જે તારા આનંદરસનું મુમુક્ષુજનો પાન કરે છે (वा) અને (अर्यमणा भगः) આત્મસમર્પણકર્તા જનો તથા સાથે જ ભાગ્યશાળી આત્મ તેજવાળા પાન કરે છે. (महे अवसे येन मित्रावरुणा आकरामहे) મહાન રક્ષાને માટે જે તારા પરમાત્મા દ્વારા પ્રાણ અપાનને સ્વચ્છ પ્રબળ બનાવે. (इन्द्रम् आ) જે તારા - પરમાત્મા દ્વારા સ્વાત્માને પણ સ્વચ્છ પ્રબણ બનાવે - બનાવે છે. તેનો = તારો સમાગમ સ્તવન કરે છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराच्याच रसाने व शक्तीने सर्व शरीरस्थ मन, बुद्धी, प्राण इत्यादी व बाह्य सूर्य, चंद्र, तारे, मेघ, पर्वत, समुद्र, धरती, आकाश इत्यादी रसयुक्त व शक्तियुक्त दिसतात. ॥२॥
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