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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1106
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
    41

    म꣢ही꣣मे꣡ अ꣢स्य꣣ वृ꣢ष꣣ ना꣡म꣢ शू꣣षे꣡ माꣳश्च꣢꣯त्वे वा꣣ पृ꣡श꣢ने वा꣣ व꣡ध꣢त्रे । अ꣡स्वा꣢पयन्नि꣣गु꣡तः꣢ स्ने꣣ह꣢य꣣च्चा꣢पा꣣मि꣢त्रा꣣ꣳ अ꣢पा꣣चि꣡तो꣢ अचे꣣तः꣢ ॥११०६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म꣡ही꣢꣯ । इ꣣मे꣡इति꣢ । अ꣣स्य । वृ꣡ष꣢꣯ । ना꣡म꣢꣯ । शू꣣षे꣡इति꣢ । मा꣡ꣳश्च꣢꣯त्वे । वा꣣ । पृ꣡श꣢꣯ने । वा꣣ । व꣡ध꣢꣯त्रे꣣इ꣡ति꣢ । अ꣡स्वा꣢꣯पयत् । नि꣣गु꣡तः꣢ । नि꣣ । गु꣡तः꣢꣯ । स्ने꣣ह꣡य꣢त् । च꣣ । अ꣡प꣢꣯ । अ꣣मि꣡त्रा꣢न् । अ꣣ । मि꣡त्रा꣢꣯न् । अ꣡प꣢꣯ । अ꣣चि꣡तः꣢ । अ꣣ । चि꣡तः꣢꣯ । अ꣣च । इतः꣢ ॥११०६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    महीमे अस्य वृष नाम शूषे माꣳश्चत्वे वा पृशने वा वधत्रे । अस्वापयन्निगुतः स्नेहयच्चापामित्राꣳ अपाचितो अचेतः ॥११०६॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मही । इमेइति । अस्य । वृष । नाम । शूषेइति । माꣳश्चत्वे । वा । पृशने । वा । वधत्रेइति । अस्वापयत् । निगुतः । नि । गुतः । स्नेहयत् । च । अप । अमित्रान् । अ । मित्रान् । अप । अचितः । अ । चितः । अच । इतः ॥११०६॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1106
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 21; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 6; सूक्त » 5; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अब नास्तिक शत्रुओं के पराजय के लिए तथा राष्ट्र में परमात्मा के प्रचार के लिए राजा का विषय वर्णित करते हैं।

    पदार्थ

    (अस्य) इस सोम अर्थात् वीररस के भण्डार राजा की (इमे) ये (वृष नाम) वर्षक गुणवाली, (शूषे)बलवान् (मही) विशाल भुजाएँ हैं, जो (मांश्चत्वे वा) घोड़ों से होनेवाले संग्राम में (पृशने वा) अथवा परस्पर स्पर्श जिसमें होता है, ऐसे मल्लयुद्ध में (वधत्रे) शत्रुओं का वध करनेवाली हैं। वह वीर राजा (निगुतः) किले, खाई आदि में छिपे हुए शत्रुओं को (अस्वापयत्) सुला देता है, अर्थात् धराशायी कर देता है, (स्नेहयत् च) और मित्रों पर स्नेह करता है। आगे प्रत्यक्षरूप से वर्णन है—हे सोम, शान्तिप्रिय प्रजाध्यक्ष ! आप (इतः) इस राष्ट्र से (अमित्रान्) द्रोहकारी रिपुओं को (अप अच) दूर कर दो, (अचितः) अविवेकी, अधार्मिक नास्तिकों को (अप अच) दूर कर दो। इस प्रकार राष्ट्र में परमेश्वर के प्रचार के लिए और वेदप्रचार के लिए कटिबद्ध होवो ॥३॥

    भावार्थ

    सभी वीर राष्ट्रवासी शत्रुओं को नष्ट करनेवाले तथा परमात्मा की पूजा करनेवाले तभी होते हैं, जब राष्ट्र का अध्यक्ष उसमें रुचि ले ॥३॥ इस खण्ड में गुरु-शिष्य, उपास्य-उपासक और आस्तिक राजा के विषयों का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ सप्तम अध्याय में षष्ठ खण्ड समाप्त ॥

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    पदार्थ

    (अस्य) इस सोम—शान्तस्वरूप परमात्मा के (इमे मही वृष नाम) महान् कामवर्षण—उपासकों के लिए कमनीय पदार्थों की वृष्टि करना और नास्तिकों को नमाना—दबाना दण्ड देना ये दो धर्म*103 (शूषे) सुखरूप—सुखकर*104 और बलरूप*105 हैं (मांश्चत्वे) मननीय (वा) और (पृशने) स्पर्शनीय—स्मरणीय और (वधत्रे) वध से त्राण करने वाले हैं (निगुतः) आन्तरिकभाव से तुझे आमन्त्रित करने वालों को (अस्वापयत्-च) और शान्ति की नींद सुलाता है (स्नेहयत्) स्नेह करता है (अमित्रान्-अप-अचेतः) शत्रुओं—नास्तिकों को मूढ बनाता है (अचितः-अप) धर्मकर्मरहितों को मूढ बनाता है॥३॥

    टिप्पणी

    [*103. ‘वृषा च नाम च-वृषनाम’ “सुपां सुलुक्....” [अष्टा॰ ७.१.३९]।] [*104. “शूषं सुखनाम” [निघं॰ ३.६]।] [*105. “शूषं बलम्” [निघं॰ २.९]।]

    विशेष

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    विषय

    वृष-नाम [ वर्षण- नमन ]

    पदार्थ

    [वर्षणं = वृष:, नमनं = नाम] (अस्य) = इस प्रभु के (इमे) = ये (वृष नाम) = वर्षण और नमन-[झुका देना]-रूप दो कार्य (महि) = महनीय हैं— बड़े महत्त्वपूर्ण हैं । इसका वर्षण तो (शूषे) = बल के विषय में [नि० २.९] और मांश्चत्वे- [अश्वनाम नि० अश्व-उत्तम कर्मशक्ति, मन् धातु से बनाएँ तो इसका अर्थ 'ज्ञान' होगा] कर्म तथा ज्ञान के विषय में है और नमन पृशने-आसक्ति के विषय में [पृशन्-attachment] (वा) = तथा (वधत्रे) - विषयासक्ति के [sexual passion] या अनुचित प्रेम के विषय में है, अर्थात् जब हम प्रभु से अपना सम्पर्क बनाते हैं तब हमपर बल, सुख तथा कर्मशक्ति व ज्ञान की वर्षा होती है और हमारी आसक्ति व वासना का विनाश हो जाता है ।

    वे प्रभु (निगुतः) = [ नितरां शब्दायन्ते प्रभुम् ] नितरां अपना आह्वान करनेवाले भक्तों को (अस्वापयत्) = [यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः] उन विषयों में सुला देते हैं, जिनमें सामान्य लोग बड़े जागरित हो रहे हैं, अर्थात् प्रभुकृपा से एक भक्त का सांसारिक विषय-वासनाओं की ओर सुझाव ही नहीं रहता ।

    ये प्रभु (अमित्रान्) = काम-क्रोधादि शत्रुओं को (अपस्नेहयत्) = दूर नष्ट करते हैं। [स्नेहयति to kill]। (अचितः) = सत्कर्मों का चयन न करनेवाले दुष्ट लोगों को ये प्रभु अप हमसे दूर करते हैं और वे प्रभु (अचेत:) = चेतनाशून्य [absent mindedness] अवस्था को हमसे (अप) = दूर करते हैं । 

    भावार्थ

    प्रभुकृपा से हमपर बल, सुख, कर्मशक्ति व ज्ञान की वर्षा हो । हमारी आसक्ति व वासना विनष्ट हो। हम प्रभुभक्त बन सांसारिक विषयों में सोये रहें । हमारे काम-क्रोधादि नष्ट हों, दुष्ट लोगों का सङ्ग दूर हो, चेतनाशून्यावस्था से हम बचें।

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    विषय

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    भावार्थ

    (अस्य) इस आत्मा के (इमे) ये (वृष नाम) सुखों का वर्षण और उद्धतों का नमन ये दोनों काम (मही) बड़े भारी (शूषे) सुखकारी, मन के एकमात्र गतिस्थान हृदय में होते हैं। हे साधक (वा) और (पृशने) स्पर्शन करने वाले (बधत्रे) हिंसा या पीड़ा से बचाने वाले आश्रय त्वगिन्द्रिय में (निगुतः) छुपे हुए, निगूढ, काम और क्रोध आदि शत्रुओं को (अस्वापयन्) सुलाता हुआ (स्नेहयतं च) और उन का नाश करता हुआ तू (अमित्रान्) उन शत्रुओं और (अचितः अप) ज्ञान रहितों को दूर कर और (अचेतः) चेतना रहित जड़ पदार्थों मूर्खों, हृदयहीनों को भी (अप) दूर कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ (१) आकृष्टामाषाः (२, ३) सिकतानिवावरी च। २, ११ कश्यपः। ३ मेधातिथिः। ४ हिरण्यस्तूपः। ५ अवत्सारः। ६ जमदग्निः। ७ कुत्सआंगिरसः। ८ वसिष्ठः। ९ त्रिशोकः काण्वः। १० श्यावाश्वः। १२ सप्तर्षयः। १३ अमहीयुः। १४ शुनःशेप आजीगर्तिः। १६ मान्धाता यौवनाश्वः। १५ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। १७ असितः काश्यपो देवलो वा। १८ ऋणचयः शाक्तयः। १९ पर्वतनारदौ। २० मनुः सांवरणः। २१ कुत्सः। २२ बन्धुः सुबन्धुः श्रुतवन्धुविंप्रबन्धुश्च गौपायना लौपायना वा। २३ भुवन आप्त्यः साधनो वा भौवनः। २४ ऋषि रज्ञातः, प्रतीकत्रयं वा॥ देवता—१—६, ११–१३, १७–२१ पवमानः सोमः। ७, २२ अग्निः। १० इन्द्राग्नी। ९, १४, १६, इन्द्रः। १५ सोमः। ८ आदित्यः। २३ विश्वेदेवाः॥ छन्दः—१, ८ जगती। २-६, ८-११, १३, १४,१७ गायत्री। १२, १५, बृहती। १६ महापङ्क्तिः। १८ गायत्री सतोबृहती च। १९ उष्णिक्। २० अनुष्टुप्, २१, २३ त्रिष्टुप्। २२ भुरिग्बृहती। स्वरः—१, ७ निषादः। २-६, ८-११, १३, १४, १७ षड्जः। १-१५, २२ मध्यमः १६ पञ्चमः। १८ षड्जः मध्यमश्च। १९ ऋषभः। २० गान्धारः। २१, २३ धैवतः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ नास्तिकानां शत्रूणां पराजयाय राष्ट्रे ब्रह्मप्रचाराय च नृपतिविषयमाह।

    पदार्थः

    (अस्य) सोमस्य वीररसागारस्य नृपतेः (इमे) प्रत्यक्षं दृश्यमाने (वृष नाम) वृषनाम्नी वर्षकगुणे, (शूषे) बलवती (मही) महत्यौ बाहुयष्टी स्तः, ये (मांश्चत्वे वा) अश्वसंग्रामे वा (पृशने वा) परस्परस्पर्शयुक्ते मल्लयुद्धे वा (वधत्रे) शत्रूणां वधकरे भवतः। [मांश्चत्वः इत्यश्वनाम। निघं० १।१४, पृशनं स्पृशतेः, सकारलोपश्छान्दसः। हन्ति येन तद् वधत्रम्, ‘अभिनक्षियजिवधिपतिभ्योऽत्रन्’ उ० ३।१०५ इत्यनेन अत्रन् प्रत्ययः।] असौ सोमः वीरः नृपतिः (निगुतः) निगुप्तान् दुर्गखातादिषु प्रच्छन्नान् शत्रून् (अस्वापयत्) स्वापयति, धराशायिनः करोतीत्यर्थः। (स्नेहयत् च) मित्रेषु स्निह्यति च। अथ प्रत्यक्षकृतमाह—हे सोम शान्तिप्रिय प्रजाध्यक्ष ! त्वम् (इतः) अस्माद् राष्ट्रात् (अमित्रान्) द्रोहकारिणः रिपून् (अप अच) अपगमय, (अचितः) अविवेकिनः अधार्मिकान् नास्तिकान् (अप अच) अपगमय। एवं च राष्ट्रे परमेश्वरप्रचाराय वेदप्रचाराय च बद्धपरिकरो भव ॥३॥

    भावार्थः

    सर्वेऽपि वीरा राष्ट्रवासिनः शत्रूच्छेदकाः परमात्मपूजकाश्च तदैव भवन्ति यदा राष्ट्राध्यक्षस्तत्र रुचिं गृह्णाति ॥३॥ अस्मिन् खण्डे गुरुशिष्ययोरुपास्योपासक-योरास्तिकस्य नृपतेश्च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।९७।५४।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The two big tasks the soul has to perform in the heart, are the spread of happiness, and the suppression of evil conceptions. They are pleasant and nice! concern all and save all from misery. Sending to sleep lust and anger, the hidden foes, and exterminating them, O soul, drive away these foes of morality, drive away the ignorant and heartless persons !

    Translator Comment

    They' refers to tasks.

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    Meaning

    These are the mighty great and constructive works of the virile and generous Soma in the battles of life either in social dynamics or close encounters or in fierce conflicts: sending the destroyers to sleep, separating off the unfriendly and removing the unawake and unaware from here where they are, (by constructive, waking up friendly exercise). (Rg. 9-97-54)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अस्य) એ સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્માના (इमे मही वृष नाम) મહાન કામ વર્ષણ-ઉપાસકોને માટે શ્રેષ્ઠ પદાર્થોની વૃષ્ટિ કરવી અને નાસ્તિકોને નમાવવા-દબાવવા દંડ આપવો એ બે ધર્મ (शूषे) સુખરૂપ સુખકર અને બળરૂપ છે. (मांश्चत्वे) મનનીય (वा) તથા (पृशने) સ્પર્શનીય-સ્મરણીય અને (वधत्रे) વધથી ત્રાણરક્ષા કરનાર છે. (निगुतः) આન્તરિક ભાવથી તને આમંત્રિત કરનારાઓને (अस्वापयत् च) અને શાન્તિની નિદ્રામાં સુવડાવે છે. (स्नेहयत्) સ્નેહ કરે છે. (अमित्रान् अप अचेतः) શત્રુઓ-નાસ્તિકોને મૂઢ બનાવે છે. (अचितः अपः) ધર્મ-કર્મ રહિતોને મૂઢ બનાવે છે.
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सर्व वीर राष्ट्रातील शत्रूंना नष्ट करणारे व परमेश्वराची पूजा करणारे तेव्हाच बनतात जेव्हा राष्ट्राचा अध्यक्ष त्यात रुची घेतो. ॥३॥

    टिप्पणी

    या खंडात गुरू-शिष्य, उपास्य-उपासक व आस्तिक राजाच्या विषयाचे वर्णन असल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती आहे

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