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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1142
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
    23

    ना꣡भिं꣢ य꣣ज्ञा꣢ना꣣ꣳ स꣡द꣢नꣳ रयी꣣णां꣢ म꣣हा꣡मा꣢हा꣣व꣢म꣣भि꣡ सं न꣢꣯वन्त । वै꣣श्वानर꣢ꣳ र꣣꣬थ्य꣢꣯मध्व꣣रा꣡णां꣡ य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ के꣣तुं꣡ ज꣢नयन्त दे꣣वाः꣢ ॥११४२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ना꣡भि꣢꣯म् । य꣣ज्ञा꣡ना꣢म् । स꣡द꣢꣯नम् । र꣣यीणा꣢म् । म꣣हा꣢म् । आ꣣हाव꣢म् । आ꣣ । हाव꣢म् । अ꣣भि꣢ । सम् । न꣣वन्त । वैश्वानर꣢म् । वै꣣श्व । नर꣢म् । र꣣थ्य꣢म् । अ꣣ध्वरा꣡णा꣢म् । य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ । के꣣तु꣢म् । ज꣣नयन्त । देवाः꣢ ॥११४२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नाभिं यज्ञानाꣳ सदनꣳ रयीणां महामाहावमभि सं नवन्त । वैश्वानरꣳ रथ्यमध्वराणां यज्ञस्य केतुं जनयन्त देवाः ॥११४२॥


    स्वर रहित पद पाठ

    नाभिम् । यज्ञानाम् । सदनम् । रयीणाम् । महाम् । आहावम् । आ । हावम् । अभि । सम् । नवन्त । वैश्वानरम् । वैश्व । नरम् । रथ्यम् । अध्वराणाम् । यज्ञस्य । केतुम् । जनयन्त । देवाः ॥११४२॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1142
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में पुनः परमात्मा का विषय है।

    पदार्थ

    (यज्ञानाम्) पूजा-कर्मों के (नाभिम्) केन्द्र, (रयीणाम्) धनों के (सदनम्) सदन, (महाम्) महान् तेजों के (आहावम्) कूप परमात्मा की, लोग (अभि सं नवन्त) चारों ओर भली-भाँति स्तुति करते हैं। (अध्वराणाम्) हिंसारहित व्यवहारों के (रथ्यम्) रथी, (यज्ञस्य) परोपकाररूप यज्ञ के (केतुम्) ध्वज के समान स्थित, (वैश्वानरम्) सबके नेता परमात्मा को (देवाः) विद्वान् उपासक (जनयन्त) अपने अन्तरात्मा में प्रकट करते हैं ॥३॥

    भावार्थ

    विविध गुणों के भण्डार जगदीश्वर की पूजा करके योगाभ्यास द्वारा उसका साक्षात्कार अपने अन्तरात्मा में सबको करना चाहिए ॥३॥

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    पदार्थ

    (यज्ञानां नाभिम्) श्रेष्ठतम कर्मों के*59 केन्द्र—जिसे लक्ष्य कर श्रेष्ठ कर्म किए जाते हैं उसे (रयीणां सदनम्) विविध ऐश्वर्यों के स्थान को (महाम्-आहावम्) महान् अध्यात्म रसपान*60 आनन्दसरोवररूप परमात्मा को (अभि सं नवन्ते) मुमुक्षु उपासक जन अभिसङ्गत होते हैं तथा (अध्वराणां रथ्यं यज्ञस्य केतुं वैश्वानरम्) प्राणों के इन्द्रियों के*61 विषयरस वाहक*62 अध्यात्मज्ञापक विश्वनायक परमात्मा को (देवाः-जनयन्त) मुमुक्षु उपासक प्रसिद्ध करते हैं अपने अन्दर साक्षात् करते हैं॥३॥

    टिप्पणी

    [*59. “यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म” [काठ॰ ३०.१८]।] [*60. “निपानमाहावः” [अष्टा॰ ३.३.७४]।] [*61. “प्राणोऽध्वरः” [श॰ ७.३.१.५] “प्राणा इन्द्रियाणि” [काठ॰ ८.१]।] [*62. “तं वा एतं रसं सन्तं रथ इत्याचक्षते” [गो॰ १.२.२१]।]

    विशेष

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    विषय

    पुरुषो वाव यज्ञः

    पदार्थ

    (देवाः) = वे माता-पिता व आचार्यरूप देव (जनयन्त) = जन्म देते हैं । किसको ? 
    १. (यज्ञानाम्) = देवपूजा, संगतीकरण व दानरूप धर्मों को (नाभिः) = [गह बन्धने] अपने में बाँधनेवाले को। जो अपने बड़ों का आदर करता है, सबके साथ मिलकर चलता है और दान की वृत्तिवाला है, ऐसे ब्रह्मचारी को ये जन्म देते हैं । २. (रयीणां सदनम्) = 'वीर्यं वै रयिः, पुष्टं वै रयिः ' इन शतपथवाक्यों के अनुसार जो शक्ति व पुष्ट शरीर का घर है । जिसका शरीर शक्ति-सम्पन्न और हृष्ट-पुष्ट है । ३. महाम्- [मह पूजायाम्] जो प्रभुपूजा की वृत्तिमाला है । ४. (आहावम्) =[आहाव= निपात] जैसे प्यासे पशु प्यास बुझाने के लिए निपान पर आते हैं, इसी प्रकार ज्ञान की पिपासा को शान्त करने के लिए, अभिनवन्ते - जिसके पास लोग आते हैं। ५. (वैश्वानरम्) = जो लोगों का हित करता है और सबको नेतृत्व देता है । ६. (अध्वराणां रथ्यम्) = हिंसारहित कर्मों के रथी को । जो अपने जीवन में ‘सर्वभूतहित' के कर्मों को ही करता है । ७. (यज्ञस्य केतुम्) = जो यज्ञों का प्रकाशक है। स्वयं यज्ञों को करता हुआ औरों में यज्ञिय भावना का प्रसार करता है।

    इस प्रकार सात विशेषताओं से सम्पन्न व्यक्ति का निर्माण माता-पिता व आचार्य करते हैं । इन सात विशेषताओं में ‘नाभिः यज्ञानाम्' का स्थान प्रथम और 'यज्ञस्य केतुम्' पर इनकी समाप्ति है । शेष सब विशेषताएँ इस यज्ञ में ही समाविष्ट हो जाती है । एवं, यज्ञ है तो सब विशेषताएँ हैं, यज्ञ नहीं है तो कुछ भी नहीं है । इसी बात को ध्यान में रखकर उपनिषद् ने लिखा 'पुरुषो वाव यज्ञः ' पुरुष तो है ही 'यज्ञ' । यज्ञमय जीवन ही श्रेष्ठ जीवन है ।

    भावार्थ

    हम अपने जीवनों को यज्ञमय बनाएँ ।

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    विषय

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    भावार्थ

    (यज्ञानां) देवपूजा, सत्संग, मैत्री और समस्त दान पुण्य आदि परोपकार के कार्यों के (नाभिं) एकमात्र आश्रय, केन्द्र (रयीणां सदन) समस्त ऐश्वर्यों और वीर्य-सामर्थ्यों के भण्डार (महां) बड़े भारी (आहावं) तृष्णा का शान्त करने के निमित्त सब को अपने प्रति बुलाने वाले जलाशय के समान जीवनाधार रस के समुद्र, आपको (देवाः) विद्वान् लोग (अभि सं नवन्ते) साक्षात् स्तुति करते हैं। और उसक (अध्वराणां) समस्त हिंसा रहित पवित्र कार्यों के (रथ्यम्) महारथी के समान वहन करने हारे (वैश्वानरं) समस्त हृदयों में व्यापक, सबके नेता और (यज्ञस्य) आत्मा का (केतुं) ज्ञापक (जनयन्त) बतलाते हैं।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ वृषगणो वासिष्ठः। २ असितः काश्यपो देवलो वा। ११ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निः। ८ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ४ यजत आत्रेयः। ५ मधुच्छन्दो वैश्वामित्रः। ७ सिकता निवावरी। ८ पुरुहन्मा। ९ पर्वतानारदौ शिखण्डिन्यौ काश्यप्यावप्सरसौ। १० अग्नयो धिष्ण्याः। २२ वत्सः काण्वः। नृमेधः। १४ अत्रिः॥ देवता—१, २, ७, ९, १० पवमानः सोमः। ४ मित्रावरुणौ। ५, ८, १३, १४ इन्द्रः। ६ इन्द्राग्नी। १२ अग्निः॥ छन्द:—१, ३ त्रिष्टुप्। २, ४, ५, ६, ११, १२ गायत्री। ७ जगती। ८ प्रागाथः। ९ उष्णिक्। १० द्विपदा विराट्। १३ ककुप्, पुर उष्णिक्। १४ अनुष्टुप्। स्वरः—१-३ धैवतः। २, ४, ५, ६, १२ षड्ज:। ७ निषादः। १० मध्यमः। ११ ऋषभः। १४ गान्धारः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनः परमात्मविषयमाह।

    पदार्थः

    (यज्ञानाम्) पूजाकर्मणाम् (नाभिम्) केन्द्रम्, (रयीणाम्) धनानाम् (सदनम्) गृहम्, (महाम्) महतां तेजसाम् (आहावम्) निपानभूतम् परमात्मानं, जनाः (अभि सं नवन्त) अभि सं स्तुवन्ति। (अध्वराणाम्) हिंसारहितानां व्यवहाराणाम् (रथ्यम्) रथिनम्, (यज्ञस्य) परोपकारयज्ञस्य (केतुम्२) ध्वजमिव स्थितम् (वैश्वानरम्) विश्वेषां नेतारं परमात्मानम् (देवाः३) विद्वांसः उपासकाः (जनयन्त) स्वान्तरात्मनि प्रकटयन्ति ॥३॥४

    भावार्थः

    विविधगुणागारं जगदीश्वरं सम्पूज्य योगाभ्यासेन तत्साक्षात्कारः स्वान्तरात्मनि सर्वैः कर्तव्यः ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ६।७।२। २. केतुम् प्रज्ञापकम्—इति सा०। ध्वजम्—इति वि०। ३. देवाः स्तोतार ऋत्विजो देवा एव वा—इति सा०। दानवन्त ऋत्विजः—इति वि०। ४. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयं भौतिकाग्निविषये व्याख्यातः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The learned praise God, the solitary Refuge for worship. Comradeship, love and charity, the House of riches, the Almighty, and the Ocean of life. They describe Him as the Impeller of all noble acts of non-violence, the Leader of all, and the Commander of the soul.

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    Meaning

    Divines and brilliant people light and sing in praise of Vaishvanara, sacred fire of the world, centre- hold of yajna and creative programmes of development, treasure source of wealths, divine challenge and cherished deity of their service, motive power of non- violent projects, the real symbol and the very life of yajna. (Rg. 6-7-2)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (यज्ञानां नाभिम्) શ્રેષ્ઠતમ કર્મોનું કેન્દ્ર-જેને લક્ષ્ય કરીને શ્રેષ્ઠકર્મ કરવામાં આવે છે તેને (रयीणां सदनम्) વિવિધ ઐશ્વર્યના સ્થાનોને (महाम् आहावम्) મહાન અધ્યાત્મરસપાન આનંદ સરોવરરૂપ પરમાત્માને (अभि सं नवन्ते) મુમુક્ષુ ઉપાસકજનો ભેટે છે. તથા (अध्वराणां रथ्यं यज्ञस्य केतुं वैश्वानरम्) પ્રાણોના, ઇન્દ્રિયોના વિષયરસ વાહક, અધ્યાત્મ જ્ઞાપક, વિશ્વનાયક પરમાત્માને (देवाः जनयन्त) મુમુક્ષુ ઉપાસક પ્રસિદ્ધ કરે છે-પોતાની અંદર સાક્ષાત્ કરે છે. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विविध गुणांचे भांडार असलेल्या जगदीश्वराची पूजा करावी. योगाभ्यासाद्वारे सर्वांनी त्याचा साक्षात्कार आपल्या अंतरात्म्यात केला पाहिजे. ॥३॥

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