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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1141
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
25
त्वां꣡ विश्वे꣢꣯ अमृत꣣ जा꣡य꣢मान꣣ꣳ शि꣢शुं꣣ न꣢ दे꣣वा꣢ अ꣣भि꣡ सं न꣢꣯वन्ते । त꣢व꣣ क्र꣡तु꣢भिरमृत꣣त्व꣡मा꣢य꣣न्वै꣡श्वा꣢नर꣣ य꣢त्पि꣣त्रो꣡रदी꣢꣯देः ॥११४१॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम् । वि꣡श्वे꣢꣯ । अ꣣मृत । अ । मृत । जा꣡य꣢꣯मानम् । शि꣡शु꣢꣯म् । न । दे꣣वाः꣢ । अ꣣भि꣢ । सम् । न꣣वन्ते । त꣡व꣢꣯ । क्र꣡तु꣢꣯भिः । अ꣣मृतत्व꣢म् । अ꣣ । मृतत्व꣢म् । आ꣣यन् । वै꣡श्वा꣢꣯नर । वै꣡श्व꣢꣯ । न꣣र । य꣢त् । पि꣣त्रोः꣢ । अ꣡दी꣢꣯देः ॥११४१॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वां विश्वे अमृत जायमानꣳ शिशुं न देवा अभि सं नवन्ते । तव क्रतुभिरमृतत्वमायन्वैश्वानर यत्पित्रोरदीदेः ॥११४१॥
स्वर रहित पद पाठ
त्वाम् । विश्वे । अमृत । अ । मृत । जायमानम् । शिशुम् । न । देवाः । अभि । सम् । नवन्ते । तव । क्रतुभिः । अमृतत्वम् । अ । मृतत्वम् । आयन् । वैश्वानर । वैश्व । नर । यत् । पित्रोः । अदीदेः ॥११४१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1141
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में परमात्मा और मोक्ष का विषय वर्णित है।
पदार्थ
हे (अमृत) अमर परमात्मन् ! (जायमानम् त्वाम्) अन्तरात्मा में प्रकट होते हुए आपकी (जायमानं शिशुं न) पैदा होते हुए शिशु के समान (विश्वे देवाः) सब विद्वान् उपासक लोग (अभि सं नवन्ते) स्तुति करते हैं। (तव क्रतुभिः) आपके कर्तृत्वों से, उपासक जन (अमृतत्वम्) मोक्ष को (आयन्) प्राप्त कर लेते हैं, (यत्) क्योंकि हे (वैश्वानर) सब मनुष्यों को धर्मकार्यों में प्रवृत्त करनेवाले परमात्मन् ! आप (पित्रोः) माता-पिता के समान विद्यमान द्यावापृथिवी में (अदीदेः) दीप्त हो, प्रख्यात हो ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥२॥
भावार्थ
जैसे घर में शिशु उत्पन्न होने पर सब गृहवासी हर्ष मनाते हैं, वैसे ही गुह्य परमात्मा के हृदय में प्रकट होने पर साधक जन प्रसन्न होते हैं। मोक्ष के लिए प्रयत्न करते हुए लोग परमात्मा की ही व्यवस्था से मोक्ष पाते हैं। विद्वान् भक्तजन आकाश में और भूमि पर सब जगह परमेश्वर की ही विभूति देखते हैं ॥२॥
पदार्थ
(अमृत वैश्वानर) हे अमृतस्वरूप या मरणरहित एकरस विश्वनायक परमात्मन्! (विश्वे देवाः) ब्राह्मण—ब्रह्मज्ञानी—मुमुक्षुजन*54 (त्वां जायमानम्-अभि सं नवन्ते) तुझे हृदय में प्रसिद्ध हुए—साक्षात् हुए परमात्मा को अभिसङ्गत होते हैं आलिङ्गित करते हैं*55 (शिशुं न) जैसे नव बालक को लोग आलिङ्गित करते हैं (तव क्रतुभिः) तेरे प्रज्ञानों—मन्त्रज्ञानों से*56 (अमृतत्वम्-आयन्) अमृतत्व—अमरत्व को प्राप्त हो जाते हैं (यत्) जब कि (पित्रोः-अदीदेः) मनों में—मन और बुद्धि में*57 प्रकाशमान हो जाता है*58॥२॥
टिप्पणी
[*54. “विश्वे ह्येतद् देवा.....यद् ब्राह्मणाः” [तै॰ सं॰ ३.१.१.४]।] [*55. “नवते गतिकर्मा” [निघं॰ २.१४]।] [*56. “क्रतुः प्रज्ञाननाम” [निघं॰ ३.९]।] [*57. “मनः पितरः” [श॰ १४.४.२.१३] द्विवचनाद् द्वे मनोबुद्धी गृह्येते।] [*58. “दीदयति ज्वलतिकर्मा” [निघं॰ १.१६]।]
विशेष
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विषय
ब्रह्मचारी का गृहस्थ
पदार्थ
ब्रह्मचारी आचार्यकुल में प्रविष्ट होते हैं और आचार्य - गर्भ में रहकर उचित विकास प्राप्त करके फिर बाहर आते हैं, उस दिन बड़े-बड़े विद्वान् उसे देखने के लिए उपस्थित होते हैं । (विश्वे देवाः) = सब देव (शिशुं न जायमानम्) = शिशु के समान उत्पन्न होते हुए (त्वाम्) = तुझे (अभिसंनवन्ते) = लक्ष्य करके प्राप्त होते हैं [अभिसंनवन्ते=अभिसंयन्ति] । आचार्य प्रयत्न करता है कि विद्यार्थी का मन वासनाओं से आक्रान्त न हो और इस प्रकार वह 'अ-मृत' बना रहे । ब्रह्मचर्य के द्वारा देव मृत्यु को जीत लेते हैं। इस ब्रह्मचर्य के कारण इसकी बुद्धि अत्यन्त तीव्र हो जाती है, अतः इसे 'शिशु' कहा गया है ‘शो तनूकरणे'- जिसने बुद्धि को सूक्ष्म बनाया है।
हे (अमृत) = मृत्यु को जीतनेवाले ब्रह्मचारिन् ! (तव क्रतुभिः) = तेरे प्रज्ञानों व कर्मों से, अर्थात् तेरे द्वारा किये गये ज्ञान के प्रसार से लोग (अमृतत्वम्) = अमरता को (आयन्) = प्राप्त होते हैं । हे (वैश्वानरः) = [विश्वनर हित] सब लोगों का हित करनेवाले तथा सब लोगों को ['नृ नये'] शुभ मार्ग पर ले-चलनेवाले (यत्) = जब तू (पित्रो:) = [ज्ञानप्रदः पिता] ज्ञान देनेवाले माता-पिता के रूप में (अदीदेः) = चमकता है, अर्थात् जब ये ब्रह्मचारी व ब्रह्मचारिणी आचार्यकुल से बाहर आते हैं और द्वितीयाश्रम में प्रवेश करके माता-पिता के रूप में उज्ज्वल जीवन बिताते हुए क्रियात्मकरूप से ज्योति फैलाते हैं तब इनके इन कर्मों से लोग भी अमरता को प्राप्त होते हैं । वे भी इनके पदचिह्नों पर चलते हुए रोगादि पर विजय पाते हैं।
भावार्थ
विद्यार्थी आचार्यकुल में नीरोगता द्वारा अमर बनने तथा बुद्धि को तीव्र बनाने का प्रयत्न करें । आचार्यकुल से बाहर आकर माता-पिता के रूप में इस प्रकार दीप्त व्यवहारवाले हों कि उनके कर्म सभी के लिए हितकर हों ।
विषय
missing
भावार्थ
हे (अमृत) मरणहित अमृतस्वरूप ! हे (अग्ने) ज्ञानस्वरूप परमात्मन् ! आत्मन् ! (शिशुं न) लोग बालक के प्रति जिस प्रकार प्रेम से आकृष्ट होकर उसको बार बार देखने की इच्छा से उस पर झुकते और प्रेम प्रकाश करते हैं (विश्वे देवाः) समस्त दिव्यगुणयुक्त सूर्य, चन्द्र, वायु आदि पदार्थ और विद्वान् गण उसी प्रकार (शिशुं) सर्वत्र गुप्त रूप से व्यापक (जायमानं) अपने सामर्थ्य से सर्वत्र प्रकट होने हारे आपको (अभि संनवन्ते) साक्षात् कर स्तुति करते हैं। हे (वैश्वानर) समस्त मनुष्यों के हृदयों में व्यापक ! वे विद्वान् योगी लोग (तव) आपके ही (ऋतुभिः) उपदिष्ट कर्मों और ज्ञानों द्वारा (अमृतत्वम् आयन्) अमृतत्व या मोक्षपद को प्राप्त करते हैं। और आपका रसरूप तेज (पित्रोः) मात पिता के बीच में पुत्र के समान ही देह के पालक प्राण और अपान के मध्य सुषुम्ना नाड़ी में (अदीदेः) प्रकाशित होता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ वृषगणो वासिष्ठः। २ असितः काश्यपो देवलो वा। ११ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निः। ८ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ४ यजत आत्रेयः। ५ मधुच्छन्दो वैश्वामित्रः। ७ सिकता निवावरी। ८ पुरुहन्मा। ९ पर्वतानारदौ शिखण्डिन्यौ काश्यप्यावप्सरसौ। १० अग्नयो धिष्ण्याः। २२ वत्सः काण्वः। नृमेधः। १४ अत्रिः॥ देवता—१, २, ७, ९, १० पवमानः सोमः। ४ मित्रावरुणौ। ५, ८, १३, १४ इन्द्रः। ६ इन्द्राग्नी। १२ अग्निः॥ छन्द:—१, ३ त्रिष्टुप्। २, ४, ५, ६, ११, १२ गायत्री। ७ जगती। ८ प्रागाथः। ९ उष्णिक्। १० द्विपदा विराट्। १३ ककुप्, पुर उष्णिक्। १४ अनुष्टुप्। स्वरः—१-३ धैवतः। २, ४, ५, ६, १२ षड्ज:। ७ निषादः। १० मध्यमः। ११ ऋषभः। १४ गान्धारः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मनो मोक्षस्य च विषयो वर्ण्यते।
पदार्थः
हे (अमृत) अमर परमात्मन् ! (जायमानं त्वाम्) अन्तरात्मनि आविर्भवन्तं त्वाम् (जायमानं शिशुं न) उत्पद्यमानं शिशुमिव (विश्वे देवाः) सर्वे विद्वांसः उपासकाः (अभि सं नवन्ते) अभि संस्तुवन्ति। (तव क्रतुभिः) त्वदीयैः कर्तृत्वैः, उपासकाः (अमृतत्वम्) मोक्षम् (आयन्) प्राप्नुवन्ति, (यत्) यस्मात्, हे (वैश्वानर) विश्वान् नरान् धर्मकार्येषु यो नयति तथाविध परमात्मन् ! त्वम् (पित्रोः) मातापित्रोरिव विद्यमानयोः द्यावापृथिव्योः (अदीदेः) दीप्तो भवसि ॥२॥२ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥
भावार्थः
यथा गृहे शिशौ जाते सर्वे गृहवासिनो हृष्यन्ति तथैव परमात्मनि हृदये प्रकटीभूते सति साधका जनाः प्रसीदन्ति। मोक्षाय प्रयतमाना जनाः परमात्मन एव व्यवस्थया मोक्षं लभन्ते। विद्वांसो भक्तजनाः दिवि भुवि च सर्वत्र परमेश्वरस्यैव विभूतिं पश्यन्ति ॥२॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ६।७।४। २. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं द्वितीयजन्मविषये व्याख्यातवान्।
इंग्लिश (2)
Meaning
O Immortal God, just as people like, love and praise a newly born child, so do all learned persons praise Thee, Who is All-pervading, and Who manifests Himself in all places through His strength. O pervader in the hearts of all men, the learned Yogis attain to salvation by following the laws of action and knowledge preached by Thee. Thy majestic lustre is perceived in the Sushumna artery!
Translator Comment
Sushumna; A particular artery of the human body, said to lie between Ida and Pingla two of the vessels of the body. When a Yogi concentrates his attention on the Sushumna artery, he feels the spiritual force and majestic lustre of God.
Meaning
O Vaishvanara Agni, light and vitality of the world, all brilliant scholars and divines of humanity love you as a baby and celebrate you all round like the rising sun at dawn, or like a young scholar emerging from the home of his parents and teachers like the sun from heaven over the earth. By virtue of your holy acts, the mortals achieve the immortality of holiness and excellence. (Rg. 6-7-4)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (अमृत वैश्वानर) હે અમૃત સ્વરૂપ અથવા મરણ રહિત એકરસ વિશ્વનાયક પરમાત્મન્ ! (विश्वे देवाः) બ્રાહ્મણ-બ્રહ્મજ્ઞાની-મુમુક્ષુજન (त्वां जायमानम् अभि सं नवन्ते) તને હૃદયમાં પ્રસિદ્ધ થયેલસાક્ષાત્ થયેલ પરમાત્માને અભિસંગત બનીએ છીએ-આલિંગન કરીએ છીએ. (शिशुं न) જેમ ઉત્પન્ન બાળકને લોકો આલિંગન કરે છે. (तव क्रतुभिः) તારા પ્રજ્ઞાનો-મંત્રજ્ઞાનો દ્વારા (अमृतत्वम् आयन्) અમરત્વ - અમરતાને પ્રાપ્ત થાય છે. (यत्) જે (पित्रोः अदीदेः) મનોમાં-મન અને બુદ્ધિમાં પ્રકાશમાન થઈ જાય છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
जसे घरात शिशु उत्पन्न झाल्यावर सर्व कुटुंबीय आनंदोत्सव करतात, तसेच गुह्य परमात्मा हृदयात प्रकट झाल्यावर साधक लोक प्रसन्न होतात. मोक्षासाठी प्रयत्न करणारे लोक परमात्म्याच्याच व्यवस्थेनुसार मोक्ष प्राप्त करतात. विद्वान भक्तजन आकाशात व भूमीवर सर्व स्थानी परमेश्वराचीच विभूती पाहतात. ॥२॥
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