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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1145
    ऋषिः - यजत आत्रेयः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    16

    ता꣡ नः꣢ शक्तं꣣ पा꣡र्थि꣢वस्य म꣣हो꣡ रा꣣यो꣢ दि꣣व्य꣡स्य꣢ । म꣡हि꣢ वां क्ष꣣त्रं꣢ दे꣣वे꣡षु꣢ ॥११४५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ता । नः꣣ । शक्तम् । पा꣡र्थि꣢꣯वस्य । म꣣हः꣢ । रा꣣यः꣢ । दि꣣व्य꣡स्य꣢ । म꣡हि꣢꣯ । वा꣣म् । क्षत्र꣢म् । दे꣣वे꣡षु꣢ ॥११४५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ता नः शक्तं पार्थिवस्य महो रायो दिव्यस्य । महि वां क्षत्रं देवेषु ॥११४५॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ता । नः । शक्तम् । पार्थिवस्य । महः । रायः । दिव्यस्य । महि । वाम् । क्षत्रम् । देवेषु ॥११४५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1145
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आगे फिर उसी विषय का वर्णन है।

    पदार्थ

    (ता) वे तुम दोनों मित्र-वरुण अर्थात् परमात्मा और जीवात्मा (पार्थिवस्य) सांसारिक (दिव्यस्य) तथा आध्यात्मिक (महः) महान् (रायः) धन को (नः) हमारे लिए (शक्त्तम्) देने में समर्थ होओ। (देवेषु) सूर्य, चन्द्रमा, बिजली आदियों में तथा प्रकाशक मन, बुद्धि, प्राण आदियों में (वाम्) तुम्हारा (महि) महान् (क्षत्रम्) बल निहित है ॥३॥

    भावार्थ

    परमात्मा और जीवात्मा की सहायता से न केवल लौकिक, किन्तु पारमार्थिक दिव्य धन भी प्राप्त किया जा सकता है। शरीर में स्थित मन, बुद्धि आदि आत्मा और परमात्मा दोनों के बल से और सूर्य, ग्रह, नक्षत्र आदि परमात्मा के ही बल से बलवान् बने हुए हैं। अतः हम भी उन दोनों के बल को क्यों न प्राप्त करें ॥३॥

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    पदार्थ

    (ता) वह अभ्युदय का प्रेरक मोक्षार्थ अपनी ओर वरने वाला परमात्मा (नः) हम उपासकों के लिए (पार्थिवस्य महः-रायः) पृथिवी सम्बन्धी महान् पोष अभ्युदय साधन के (दिव्यस्य) मोक्षधाम सम्बन्धी महान् आनन्दधन निःश्रेयस रूप के प्रदान करने में (शक्तम्) समर्थ है (वाम्) तुम्हारा (क्षत्रं देवेषु महि) यह धनदान या बल मुमुक्षु उपासकों में महनीय—प्रशंसनीय है॥३॥

    विशेष

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    विषय

    रक्षक

    पदार्थ

    (ता) = ये प्राण और अपान (न:) = हमें (पार्थिवस्य रायः) = पार्थिव धन का, अर्थात् शरीर की नीरोगता का तथा (महः दिव्यस्य रायः) = महनीय दिव्य धन का, अर्थात् उत्तम हृदय के ज्ञान व प्रकाश का (शक्तम्) = दान करने में समर्थ हैं। ये प्राणपान हमें पार्थिव व दिव्य धन देकर हमारे शरीरों को स्वस्थ व मन को प्रकाशमय बनाकर हमें शक्तिशाली व योग्य बनाते हैं ।

    हे प्राणापानो! (वाम्) = आप दोनों का (देवेषु) = शरीरस्थ सभी देवताओं में (क्षत्रम्)  आक्रमण से रक्षण (महि) = सचमुच महनीय है। प्राणापान ही वस्तुतः शरीर के सब देवताओं को आसुर आक्रमण से बचाते हैं, शरीर पर रोग आक्रमण नहीं कर पाते और मन में वासनाएँ प्रविष्ट नहीं हो पातीं । अन्य सब देव जब सो जाते हैं, तब ये प्राणापान जागकर पहरा देते हैं । यह शरीर ('देवानां पू:') = देवनगरी है। ये प्राणापान इस देवनगरी के रक्षक हैं ।

    भावार्थ

    प्राणापान देवताओं की नगरी के रक्षक हैं ।

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    विषय

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    भावार्थ

    (ता) वे दोनों (नः) हमारे लिये (पार्थिवस्य) पृथिवी और (दिव्यस्य) आकाश से होने वाले (महः) बड़े भारी (रायः) ऐश्वर्य सामर्थ्य को (शक्तं) भोगने और धारण करने में समर्थ हैं। (देवेषु) समस्त दिव्य पदार्थों और विद्वानों में (वां) आप दोनों का भी (महि क्षत्रं) बड़ा भारी बल है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ वृषगणो वासिष्ठः। २ असितः काश्यपो देवलो वा। ११ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निः। ८ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ४ यजत आत्रेयः। ५ मधुच्छन्दो वैश्वामित्रः। ७ सिकता निवावरी। ८ पुरुहन्मा। ९ पर्वतानारदौ शिखण्डिन्यौ काश्यप्यावप्सरसौ। १० अग्नयो धिष्ण्याः। २२ वत्सः काण्वः। नृमेधः। १४ अत्रिः॥ देवता—१, २, ७, ९, १० पवमानः सोमः। ४ मित्रावरुणौ। ५, ८, १३, १४ इन्द्रः। ६ इन्द्राग्नी। १२ अग्निः॥ छन्द:—१, ३ त्रिष्टुप्। २, ४, ५, ६, ११, १२ गायत्री। ७ जगती। ८ प्रागाथः। ९ उष्णिक्। १० द्विपदा विराट्। १३ ककुप्, पुर उष्णिक्। १४ अनुष्टुप्। स्वरः—१-३ धैवतः। २, ४, ५, ६, १२ षड्ज:। ७ निषादः। १० मध्यमः। ११ ऋषभः। १४ गान्धारः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि स एव विषयो वर्ण्यते।

    पदार्थः

    (ता) तौ युवाम् मित्रावरुणौ परमात्मजीवात्मानौ (पार्थिवस्य) सांसारिकस्य (दिव्यस्य) आध्यात्मिकस्य च (महः) महतः (रायः) धनस्य (नः) अस्मभ्यम् (शक्तम्) दातुं शक्नुतम्। (देवेषु) सूर्यचन्द्रविद्युदादिषु मनोबुद्धिप्राणादिषु वा (वाम्) युवयोः (महि) महत् (क्षत्रम्) बलं निहितमस्ति ॥३॥२

    भावार्थः

    परमात्मजीवात्मनोः साहाय्येन न केवलं लौकिकं किन्तु पारमार्थिकं दिव्यं धनमपि प्राप्तुं शक्यते। शरीरस्थानि मनोबुद्ध्यादीन्यात्मनः परमात्मनश्चोभयोर्बलेन, सूर्यग्रहनक्षत्रादीनि च परमात्मन एव बलेन बलवन्ति सन्ति। अतोऽस्माभिरपि तयोर्बलं कुतो न प्राप्तव्यम् ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ५।६८।३, साम० १४६५। २. दयानन्दर्षिर्ऋग्भाष्ये मन्त्रमिमं राज्यं कथमुन्नेयमिति विषये व्याचष्टे।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ye are competent to grant us great terrestrial and celestial wealth. Great is the strength of Ye both amongst the organs of senses.

    Translator Comment

    Ye refers to Mitra and Varuna, i.e., teacher and preacher.

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    Meaning

    Great is your power and potential for us over the wealth and excellence of heavenly and earthly values, culture and conduct and behaviour. Great is your rule and order over the divinities of nature and humanity. (Rg. 5-68-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (ता) તે અભ્યુદયના પ્રેરક મોક્ષ માટે પોતાની તરફ વરણીય પરમાત્મા (नः) અમારે-ઉપાસકોને માટે (पार्थिवस्य महः रायः) પૃથિવી સંબંધી મહાન પોષ અભ્યુદય સાધનના (दिव्यस्य) મોક્ષધામ સંબંધી મહાન આનંદધન નિઃશ્રેયસ-મોક્ષ રૂપના પ્રદાન કરવામાં (शक्तम्) સમર્થ છે. (वाम्) તમારું (क्षत्रं देवेषु महि) એ ધનદાન અથવા બળ મુમુક્ષુ ઉપાસકોમાં મહનીય-પ્રશંસનીય છે. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा व जीवात्म्याच्या साह्याने केवळ लौकिकच नव्हे तर पारमार्थिक दिव्य धनही प्राप्त केले जाते. शरीरात स्थित मन, बुद्धी इत्यादी व आत्मा आणि परमात्मा या दोन्हींच्या बलाने तसेच सूर्य, ग्रह, नक्षत्र इत्यादीही परमात्म्याच्या बलाने बलवान झालेले आहेत. त्यासाठी आम्ही त्या दोन्हींचे बल का प्राप्त करू नये? ॥३॥

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