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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1149
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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    त꣡मी꣢डिष्व꣣ यो꣢ अ꣣र्चि꣢षा꣣ व꣢ना꣣ वि꣡श्वा꣢ परि꣣ष्व꣡ज꣢त् । कृ꣣ष्णा꣢ कृ꣣णो꣡ति꣢ जि꣣ह्व꣡या꣢ ॥११४९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त꣢म् । ई꣣डिष्व । यः꣢ । अ꣣र्चि꣡षा꣢ । व꣡ना꣢꣯ । वि꣡श्वा꣢꣯ । प꣣रिष्व꣡ज꣢त् । प꣣रि । स्व꣡ज꣢꣯त् । कृ꣣ष्णा꣢ । कृ꣣णो꣡ति꣢ । जि꣣ह्व꣡या꣢ ॥११४९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तमीडिष्व यो अर्चिषा वना विश्वा परिष्वजत् । कृष्णा कृणोति जिह्वया ॥११४९॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । ईडिष्व । यः । अर्चिषा । वना । विश्वा । परिष्वजत् । परि । स्वजत् । कृष्णा । कृणोति । जिह्वया ॥११४९॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1149
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 3; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम मन्त्र में भौतिक अग्नि के वर्णन द्वारा परमात्मा की महिमा प्रकट की गयी है।

    पदार्थ

    हे मनुष्य ! तू (तम्) उस अग्नि के (ईडिष्व) गुणों का वर्णन कर, (यः) जो (अर्चिषा) दीप्ति से (विश्वा वना) सब वनों का (परिष्वजत्) आलिङ्गन करता है और (जिह्वया) ज्वाला से उन वनों को (कृष्णा) काले (करोति) करता है ॥१॥

    भावार्थ

    जो यह भौतिक अग्नि विशाल वनों को जलाता हुआ उन्हें कृष्ण वर्णवाला तथा घास, वनस्पति आदि के अङ्कुरित होने योग्य करता है, वह सब महिमा परमेश्वर की ही है ॥१॥

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    पदार्थ

    (तम्-ईडिष्व) हे उपासक जन! तू उस प्रकाशस्वरूप परमात्मा की स्तुति कर (यः) जो (अर्चिषा) अपनी प्रकाशशक्ति से*74 (विश्वा वना परिष्वजत्) सारे रश्मिमान्*75 ज्योतिष्मान् सूर्य आदि को [परितः] प्राप्त होता है—उन्हें ज्योति देता है—प्रकाशित करता है (जिह्वया कृष्णा कृणोति) पुनः अपने अन्दर ग्रहण शक्ति से*76 अन्धकार बना देता है*77 प्रलय में*78, एवं जगद्रचयिता प्रलयकर्ता परमात्मा है उपास्य है॥१॥

    टिप्पणी

    [*74. “अर्चिः-ज्वलतो नाम” [निघं॰ १.१७]।] [*75. “वनं रश्मिनाम” [निघं॰ १.५] तद्वान्-मतुब्लोपश्छान्दसः।] [*76. “जिह्वा जोहुवा” [निरु॰ ५.२७] “अत्ता चराचरग्रहणात्” [वेदान्त॰]।] [*77. “तमो वै कृष्णम्” [मै॰ २.१.६]।] [*78. “तम आसीत् तमसा गूढमग्रे” [ऋ॰ १०.१२९.३]।]

    विशेष

    ऋषिः—भरद्वाजः (अमृत अन्नभोग को धारण करने वाला उपासक)॥ देवता—इन्द्राग्नी (ऐश्वर्यवान् एवं ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>

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    विषय

    कर्मों का कर्षण [क्षय ]

    पदार्थ

    (तम्) = उस अग्नि नामक प्रभु का (ईडिष्व) = स्तवन करो (यः) = जो (अर्चिषा) = अपनी ज्ञान की ज्वालाओं से (विश्वा वना) = सम्पूर्ण ज्ञानरश्मियों का (परिष्वजत्) = आलिंगन करता है और अपने स्तोताओं के साथ भी ज्ञान-रश्मियों का सम्बन्ध करता है । यह स्तुत्य प्रभु (जिह्वया) = अपनी वेदवाणी के द्वारा (कृष्णा कृणोति) = हमारे कर्मों को क्षीण कर देता है। उपनिषद् में कहा है—‘क्षीयन्ते चास्य कर्माणि'=इस ज्ञानी, प्रभुभक्त के कर्म क्षीण हो जाते हैं । [जिह्वा वाङ्नाम – नि० १.११] भस्म हुए वे कर्मफल जननशक्ति शून्य हो जाते हैं और इस प्रकार ये ज्ञानी स्तोता नैष्कार्म्य सिद्धि को प्राप्त करके मुक्त हो जाता है । 

    भावार्थ

    हम प्रभु का स्तवन करें – प्रभु की ज्ञानरश्मियाँ हमारा आलिंगन करें और ज्ञान के द्वारा हमारे कर्म भस्मसात् हो जाएँ ।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे मनुष्य ! (तम् अग्निम्) उस सबके पापों के दहन करने हारे ज्ञानमय परमात्मा की (इडिष्व) उपासना कर (यः) जो (अर्चिषा) अपने तेज से (विश्वा) समस्त (वना) भोगने योग्य कर्मबंधनों को वनों में अग्नि के समान (परिष्वजत) जा लगता है और जैसे अग्नि वनों में लगकर उनको जलाकर काला कर देता है उसी प्रकार वह अपनी (जिह्वया) अग्नि की ज्वाला के समान भस्म करने वाली शक्ति से सबको (कृष्णा) छिन्न भिन्न, दग्ध (कृणोति) कर डालता है। जंगलों को जला देने वाली अग्नि से कर्मदाहक ज्ञानाग्नि की तुलना है।

    टिप्पणी

    ‘इन्द्रमग्नि च’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ वृषगणो वासिष्ठः। २ असितः काश्यपो देवलो वा। ११ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निः। ८ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ४ यजत आत्रेयः। ५ मधुच्छन्दो वैश्वामित्रः। ७ सिकता निवावरी। ८ पुरुहन्मा। ९ पर्वतानारदौ शिखण्डिन्यौ काश्यप्यावप्सरसौ। १० अग्नयो धिष्ण्याः। २२ वत्सः काण्वः। नृमेधः। १४ अत्रिः॥ देवता—१, २, ७, ९, १० पवमानः सोमः। ४ मित्रावरुणौ। ५, ८, १३, १४ इन्द्रः। ६ इन्द्राग्नी। १२ अग्निः॥ छन्द:—१, ३ त्रिष्टुप्। २, ४, ५, ६, ११, १२ गायत्री। ७ जगती। ८ प्रागाथः। ९ उष्णिक्। १० द्विपदा विराट्। १३ ककुप्, पुर उष्णिक्। १४ अनुष्टुप्। स्वरः—१-३ धैवतः। २, ४, ५, ६, १२ षड्ज:। ७ निषादः। १० मध्यमः। ११ ऋषभः। १४ गान्धारः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्रादौ भौतिकाग्निवर्णनमुखेन परमात्ममहिमानमाचष्टे।

    पदार्थः

    हे मनुष्य ! त्वम् (तम्) अग्निम् (ईडिष्व) गुणवर्णनेन स्तुहि, (यः) अग्निः (अर्चिषा) रोचिषा (विश्वा वना) विश्वानि वनानि (परिष्वजत्) परिष्वजति आलिङ्गति, अपि च (जिह्वया) ज्वालया, तानि वनानि (कृष्णा) कृष्णानि (करोति) सम्पादयति ॥१॥२

    भावार्थः

    योऽयं भौतिकाग्निर्विशालानि वनानि दहन् कृष्णवर्णानि शष्पवनस्पत्यादिप्ररोहयोग्यानि च करोति स सर्वोऽपि महिमा परमेश्वरस्यैव विद्यते ॥१॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ६।६।१०। २. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयं राजा कीदृशो भवेदिति विषये व्याख्यातः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O worshipper, supplicate that Agni (God) Who encompasses all enjoyable objects, and with His glow renders all free from sin !

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    Meaning

    O celebrant, love and adore that power of divinity which with its refulgence pervades all rays of the sun, moves all floods of water, and envelops all forests and makes them green with its radiations. (Rg. 6-60-10)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (तम् ईडिष्व) હે ઉપાસક જન ! તું તે પ્રકાશ સ્વરૂપ પરમાત્માની સ્તુતિ કર. (यः) જે (अर्चिषा) પોતાની પ્રકાશ શક્તિથી (विश्वा वना परिष्वजत्) સમસ્ત રશ્મિમાન-જ્યોતિષ્માન સૂર્ય આદિને (परितः) પ્રાપ્ત થાય છે.-તેને જ્યોતિ આપે છે-પ્રકાશિત કરે છે. (जिह्वया कृष्णा करोति) પુનઃ પોતાની અંદર ગ્રહણ શક્તિથી અંધકાર બનાવી દે છે-પ્રલય સમયમાં એવો જગત રચયિતા પ્રલયકર્તા પરમાત્મા છે, તે ઉપાસ્ય છે. (૧)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हा भौतिक अग्नी विशाल वनांना जाळतो व त्यांना कृष्ण वर्णयुक्त व गवत, वनस्पती इत्यादींना अंकुरित होण्यायोग्य बनवितो, ही सर्व महिमा परमेश्वराची आहे. ॥१॥

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