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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1159
    ऋषिः - पर्वतनारदौ काण्वौ शिखण्डिन्यावप्सरसौ काश्यपौ वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम -
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    पु꣣ना꣡ता꣢ दक्ष꣣सा꣡ध꣢नं꣣ य꣢था꣣ श꣡र्धा꣢य वी꣣त꣡ये꣢ । य꣡था꣢ मि꣣त्रा꣢य꣣ व꣡रु꣢णाय꣣ श꣡न्त꣢मम् ॥११५९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पुना꣡त꣢ । द꣣क्षसा꣡ध꣢नम् । द꣣क्ष । सा꣡ध꣢꣯नम् । य꣡था꣢꣯ । श꣡र्धा꣢꣯य । वी꣣त꣡ये꣢ । य꣡था꣢꣯ । मि꣣त्रा꣡य꣢ । मि꣣ । त्रा꣡य꣢꣯ । व꣡रु꣢꣯णाय । श꣡न्त꣢꣯मम् ॥११५९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुनाता दक्षसाधनं यथा शर्धाय वीतये । यथा मित्राय वरुणाय शन्तमम् ॥११५९॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पुनात । दक्षसाधनम् । दक्ष । साधनम् । यथा । शर्धाय । वीतये । यथा । मित्राय । मि । त्राय । वरुणाय । शन्तमम् ॥११५९॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1159
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में फिर वही विषय है।

    पदार्थ

    हे साथियो ! तुम (दक्षसाधनम्) दक्षता के साधक सोम नामक जीवात्मा को (पुनात) पवित्र करो, (यथा) जिससे वह (शर्धाय) उत्साह के लिए और (वीतये) प्रगति के लिए हो अर्थात् उत्साहित होकर प्रगति कर सके और (यथा) जिससे (मित्राय) मित्र मन के लिए और (वरुणाय) दोषनिवारक प्राण के लिए (शन्तमम्) शान्तिकारक हो ॥३॥

    भावार्थ

    जीवात्मा के पवित्र हो जाने पर शरीरस्थ मन, बुद्धि, प्राण आदि सब पवित्र हो जाते हैं ॥३॥

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    पदार्थ

    (दक्षसाधनं पुनात) उस आत्मबल के साधन शान्तस्वरूप परमात्मा को अपने अन्दर प्राप्त करो—धारण करो (यथा शर्धाय) जैसे आत्मबल के लिये (वीतये) तृप्ति के लिये (यथा मित्राय-वरुणाय) जैसे प्राण के लिये अपान के लिये (शन्तमम्) अत्यन्त कल्याणकर हो सके॥३॥

    विशेष

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    विषय

    शक्ति व प्रकाश + स्नेह व श्रेष्ठता

    पदार्थ

    गत मन्त्र के प्रसङ्ग में ही कहते हैं कि (पुनात) = अपने जीवनों को प्रभु-गायन द्वारा पवित्र करो । (दक्षसाधनम्) = अपने को बलवान्, उन्नतिशील बनाओ । (शन्तमम्) = अपने को अत्यन्त शान्त बनाओ । अपने जीवनों को इस प्रकार पवित्र करो (यथा) = जिससे तुम (शर्धाय) = बल तथा (वीतये) = प्रकाश के लिए हो सको, अर्थात् बल व प्रकाश का आधार बन सको। (यथा) = जिससे तुम (मित्राय) = स्नेह की देवता के आराधन के लिए होओ और (वरुणाय) = अपने जीवनों को अति श्रेष्ठ बना पाओ । हम प्रभु-गायन से अपने जीवनों को पवित्र बनाएँगे तो हम उन्नति के मार्ग पर चलते हुए बल व प्रकाश तथा स्नेह व श्रेष्ठता से अपना पूरण करनेवाले 'पर्वत' बनेंगे और जीवन को शुद्ध बनानेवाले 'नारद' होंगे [नारं दायति] ।

    भावार्थ

    हमारा जीवन शक्ति, प्रकाश, स्नेह व श्रेष्ठता से पूर्ण हो ।

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    विषय

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    भावार्थ

    (दक्षसाधनं) शरीर के बल को सम्पादन करने वाले इस सोम अर्थात् शुक्र को इस प्रकार (पुनात) सम्पादन करो, प्राप्त करो कि (यथा) जिस प्रकार वह (शर्धाय) शरीर के बल की वृद्धि और (वीतये) कान्ति के निमित्त हो। और (यथा) जिस प्रकार (मित्राय) प्राण और (वरुणाय) अपान इन दोनों जीवनाधारों के लिये भी (शन्तमम्) अति अधिक सुख और कल्याणकारक हो।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ वृषगणो वासिष्ठः। २ असितः काश्यपो देवलो वा। ११ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निः। ८ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ४ यजत आत्रेयः। ५ मधुच्छन्दो वैश्वामित्रः। ७ सिकता निवावरी। ८ पुरुहन्मा। ९ पर्वतानारदौ शिखण्डिन्यौ काश्यप्यावप्सरसौ। १० अग्नयो धिष्ण्याः। २२ वत्सः काण्वः। नृमेधः। १४ अत्रिः॥ देवता—१, २, ७, ९, १० पवमानः सोमः। ४ मित्रावरुणौ। ५, ८, १३, १४ इन्द्रः। ६ इन्द्राग्नी। १२ अग्निः॥ छन्द:—१, ३ त्रिष्टुप्। २, ४, ५, ६, ११, १२ गायत्री। ७ जगती। ८ प्रागाथः। ९ उष्णिक्। १० द्विपदा विराट्। १३ ककुप्, पुर उष्णिक्। १४ अनुष्टुप्। स्वरः—१-३ धैवतः। २, ४, ५, ६, १२ षड्ज:। ७ निषादः। १० मध्यमः। ११ ऋषभः। १४ गान्धारः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनस्तमेव विषयमाह।

    पदार्थः

    हे सखायः ! यूयम् (दक्षसाधनम्२) दक्षतायाः साधयितारम् सोमं जीवात्मानम् (पुनात) पुनीत। [पूञ् पवने क्र्यादिः, लोटि तप्तनप्तनथनाश्च। अ० ७।१।४५ इत्यनेन तस्य तबादेशे पित्वाद् ईत्वाभावः।] (यथा) येन, सः (शर्धाय) उत्साहाय (वीतये) प्रगतये च स्यात्, (यथा) येन च (मित्राय) मनसे (वरुणाय) दोषनिवारकाय प्राणाय च (शन्तमम्) शान्तिकरं यथा तथा भवेत् ॥३॥

    भावार्थः

    जीवात्मनि पवित्रीभूते सति देहस्थानि मनोबुद्धिप्राणादीनि सर्वाण्यपि पवित्राणि जायन्ते ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।१०४।३, ‘शंत॑मः’ इति भेदः। २. दक्षसाधनं बलस्य साधनम्—इति सा०। शीघ्रकर्मकर्तारम्—इति वि०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Preserve men, the augmenter of physical strength, in such a way, that it may contribute to the growth of the body and our beauty, and make Prana and Apana, the sources of life, more propitious and benefit.

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    Meaning

    Realise and exalt Soma in the essential purity of its nature, power and presence as the very foundation of perfection and achievement in life, so that it may be the surest and most peaceful base of strength, power and fulfilment for the spirit of love and friendship as well as for freedom and judgement. (Rg. 9-104-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (दक्षसाधनं पुनात) તે આત્મબળના સાધન શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્માને પોતાની અંદર પ્રાપ્ત કરો-ધારણ કરો. (यथा शर्धाय) જેમ આત્મબળને માટે (वीतये) તૃપ્તિને માટે (यथा मित्राय वरुणाय) જેમ પ્રાણને માટે, અપાનને માટે (शन्तमम्) અત્યંત કલ્યાણકારક બની શકે. (૩)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जीवात्मा पवित्र झाल्यावर शरीररथ, मन, बुद्धी, प्राण इत्यादी सर्व पवित्र होतात. ॥३॥

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