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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1173
ऋषिः - अत्रिर्भौमः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम -
33
य꣡न्मन्य꣢꣯से꣣ व꣡रे꣢ण्य꣣मि꣡न्द्र꣢ द्यु꣣क्षं꣡ तदा भ꣢꣯र । वि꣣द्या꣢म꣣ त꣡स्य꣢ ते व꣣य꣡मकू꣢꣯पारस्य दा꣣व꣡नः꣢ ॥११७३॥
स्वर सहित पद पाठय꣢त् । म꣡न्य꣢꣯से । व꣡रे꣢꣯ण्यम् । इ꣡न्द्र꣢꣯ । द्यु꣣क्ष꣢म् । द्यु꣣ । क्ष꣢म् । तत् । आ । भ꣣र । विद्या꣡म꣢ । त꣡स्य꣢꣯ । ते꣣ । वय꣢म् । अ꣡कू꣢꣯पारस्य । दावनः ॥११७३॥
स्वर रहित मन्त्र
यन्मन्यसे वरेण्यमिन्द्र द्युक्षं तदा भर । विद्याम तस्य ते वयमकूपारस्य दावनः ॥११७३॥
स्वर रहित पद पाठ
यत् । मन्यसे । वरेण्यम् । इन्द्र । द्युक्षम् । द्यु । क्षम् । तत् । आ । भर । विद्याम । तस्य । ते । वयम् । अकूपारस्य । दावनः ॥११७३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1173
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में फिर परमेश्वर और आचार्य का विषय है।
पदार्थ
हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवान् जगदीश्वर वा आचार्य ! (यत्) जिसे, आप (वरेण्यम्) ग्रहण करने योग्य (मन्यसे) मानते हो, (तत्) उस (द्युक्षम्) धर्म और विद्या के प्रकाश के निवासक अपने दान को (आ भर) हमें प्राप्त कराओ। (ते) आपके (अकूपारस्य) जिसका भरना या संग्रह करना बुरा नहीं है, ऐसे (तस्य) उस (दावनः) दान को (वयम्) हम (विद्याम) पा लेवें ॥२॥
भावार्थ
परमेश्वर और आचार्य का जो सद्गुण, विद्या, धर्म, सदाचार आदि का दान है, उसे पाकर हम अपने आपको उन्नत करें ॥२॥
पदार्थ
(इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! (यत्-वरेण्यं द्युक्षं मन्यसे) जिसे वरण करने योग्य दीप्ति के निवास—दीप्तिवाला धन है (तत्-आभर) उसे आभरित कर (ते) तेरे (तस्य-अकूपार स्व दावनः-विद्याम) उस अपार धनदाता के दान को हम प्राप्त करें॥२॥
विशेष
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विषय
वरेण्य दिव्य दान
पदार्थ
हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशाली प्रभो! आप (यत्) = जो भी (द्युक्षम्) = दिव्य ज्ञान की अविरोधी (वरेण्यम्) = वरणीय—चाहने योग्य वस्तु (मन्यसे) = समझते हैं (तत्) = उस दिव्य वरणीय वस्तु को (आभर) = हमें प्राप्त कराइए । वस्तुतः मनुष्य के लिए यह निश्चय करना कठिन हो जाता है कि उसे किस वस्तु की प्रार्थना करनी चाहिए और किसकी नहीं, अत: प्रार्थना का यही स्वरूप सर्वोत्तम है कि हे प्रभो ! हमें वही दिव्य, वरणीय वस्तु प्राप्त कराइए जो आपकी दृष्टि में हमारे लिए हितकर है ।
(वयम्) = कर्मतन्तु का विस्तार करनेवाले, अर्थात् पुरुषार्थ में तत्पर हम (ते) = आपके (तस्य) = उस (अकूपारस्य) = [अकुत्सित परणस्य] अनिन्दित पालन व पोषण करनेवाले (दावन:) = दान के (विद्याम) = प्राप्त करनेवाले हों [विद् लाभे] । बिना पुरुषार्थ के प्रार्थना (निष्प्रयोजन) = है, अत: हम पुरुषार्थी हों और आपकी कृपा प्राप्त करने के अधिकारी हों। आपके दान अनन्त हैं, आपके दान दिव्य हैं, वस्तुतः वे ही हमारे लिए वरणीय हैं।
भावार्थ
हे प्रभो! हम आपके दिव्य, वरेण्य दान को प्राप्त करने के पात्र हों।
विषय
missing
भावार्थ
हे इन्द्र परमात्मन् ! (यत्) जो (द्युक्षम्) अन्न, धन और यश आप (वरेण्यं) वरण करने योग्य श्रेष्ठ (मन्यसे) जानते हैं (तद्) वही (आभर) हमें प्राप्त करावें। (तस्य) उस अचिन्त्य महिमा वाले (अकूपारस्य) अति सुन्दर, अनिन्दनीय, असीम परम आनन्द के सागरस्वरूप, सबको उत्तमरूप से पालन करने हारे (ते) तुझ (दावनः) दानशील के दान को हम (विद्याम) प्राप्त करें।
टिप्पणी
‘दावने’।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ वृषगणो वासिष्ठः। २ असितः काश्यपो देवलो वा। ११ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निः। ८ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ४ यजत आत्रेयः। ५ मधुच्छन्दो वैश्वामित्रः। ७ सिकता निवावरी। ८ पुरुहन्मा। ९ पर्वतानारदौ शिखण्डिन्यौ काश्यप्यावप्सरसौ। १० अग्नयो धिष्ण्याः। २२ वत्सः काण्वः। नृमेधः। १४ अत्रिः॥ देवता—१, २, ७, ९, १० पवमानः सोमः। ४ मित्रावरुणौ। ५, ८, १३, १४ इन्द्रः। ६ इन्द्राग्नी। १२ अग्निः॥ छन्द:—१, ३ त्रिष्टुप्। २, ४, ५, ६, ११, १२ गायत्री। ७ जगती। ८ प्रागाथः। ९ उष्णिक्। १० द्विपदा विराट्। १३ ककुप्, पुर उष्णिक्। १४ अनुष्टुप्। स्वरः—१-३ धैवतः। २, ४, ५, ६, १२ षड्ज:। ७ निषादः। १० मध्यमः। ११ ऋषभः। १४ गान्धारः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनः परमेश्वराचार्ययोर्विषयमाह।
पदार्थः
हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् जगदीश्वर आचार्य वा ! (यत्) यत् त्वम् (वरेण्यम्) वरितुं ग्रहीतुमर्हम् (मन्यसे) जानासि (तत् द्युक्षम्) धर्मविद्याप्रकाशनिवासकं स्वकीयं दानम्। [द्यां प्रकाशं क्षाययति निवासयति यत् तादृशम्।] (आ भर) अस्मान् प्रापय। (ते) तव (अकूपारस्य) अकुत्सितः पारः पूरणं संग्रहः यस्य तादृशस्य (तस्य दावनः) दानस्य।[द्वितीयार्थे षष्ठी।] (वयम्) त्वदुपासकाः (विद्याम)लभेमहि। [‘विद्याम तस्य ते वयमकुपरणस्य दानस्य’इति निरुक्तम्। ४।१८] ॥२॥२
भावार्थः
परमेश्वरस्याचार्यस्य च यत् सद्गुणविद्याधर्मसदाचारादिदानमस्ति तत् प्राप्य वयं स्वात्मानमुन्नयेम ॥२॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ५।३९।२, ‘दा॒वने॑’ इति पाठः। २. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं विद्वत्पक्षे व्याख्यातवान्।
इंग्लिश (2)
Meaning
O God, give us the wealth and food, which Thou deemest as precious. May to receive the charity of Thine, a boundless Giver of gifts!
Meaning
Indra, whatever you think is worthy of choice, bear and bring that brilliant gift of heavenly quality. Let us receive that and let us know that as a blessing of your unbounded generosity worthy to be received and justified with gratitude. (Rg. 5-39-2)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (इन्द्र) હે ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! (यत् वरेण्यं द्युक्षं मन्यसे) જેનું વરણ કરવા યોગ્ય દીપ્તનું નિવાસ-પ્રકાશમાન ધન છે (तत् आभर) તેને આભરિત કર-ભરી દે (ते) તારા (तस्य अकूपार स्व दावनः विद्याम) તે અપાર ધનદાતાનાં દાનને અમે પ્રાપ્ત કરીએ. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वर व आचार्य यांचे जे सद्गुण, विद्या, धर्म, सदाचार इत्यादीचे दान आहे, ते प्राप्त करून आम्ही स्वत:ला उन्नत करावे. ॥२॥
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