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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1174
ऋषिः - अत्रिर्भौमः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम -
30
य꣡त्ते꣢ दि꣣क्षु꣢ प्र꣣रा꣢ध्यं꣣ म꣢नो꣣ अ꣡स्ति꣢ श्रु꣣तं꣢ बृ꣣ह꣢त् । ते꣡न꣢ दृ꣣ढा꣡ चि꣢दद्रिव꣣ आ꣡ वाजं꣢꣯ दर्षि सा꣣त꣡ये꣢ ॥११७४॥
स्वर सहित पद पाठयत् । ते꣣ । दिक्षु꣢ । प्र꣣रा꣡ध्य꣢म् । प्र꣣ । रा꣡ध्य꣢꣯म् । म꣡नः꣢꣯ । अ꣡स्ति꣢꣯ । श्रु꣣त꣢म् । बृ꣣ह꣢त् । ते꣡न꣢꣯ । दृ꣣ढा꣢ । चि꣣त् । अद्रिवः । अ । द्रिवः । आ꣢ । वा꣡ज꣢꣯म् । द꣣र्षि । सात꣡ये꣢ ॥११७४॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्ते दिक्षु प्रराध्यं मनो अस्ति श्रुतं बृहत् । तेन दृढा चिदद्रिव आ वाजं दर्षि सातये ॥११७४॥
स्वर रहित पद पाठ
यत् । ते । दिक्षु । प्रराध्यम् । प्र । राध्यम् । मनः । अस्ति । श्रुतम् । बृहत् । तेन । दृढा । चित् । अद्रिवः । अ । द्रिवः । आ । वाजम् । दर्षि । सातये ॥११७४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1174
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में फिर वही विषय है।
पदार्थ
हे (इन्द्र) परमात्मन् वा आचार्य ! (यत् ते) जोआपका (प्र राध्यम्) प्रसन्न करने योग्य (बृहत् मनः) विशाल शक्तिवाला मन (दिक्षु) दिशाओं में (श्रुतम्) प्रसिद्ध (अस्ति) है, (तेन) उस मन से, हे (अद्रिवः) अविनष्ट बलवाले ! आप (दृढा चित्) कठिन और दुष्प्राप्य भी (वाजम्) धर्म, विद्या आदि के धन को (सातये) हमें प्राप्त कराने के लिए (आदर्षि) लाओ ॥३॥
भावार्थ
परमेश्वर और आचार्य सत्पात्र जनों को धर्ममार्ग की सुशिक्षा देकर, विद्या आदि का दान करके, पुरुषार्थ की प्रेरणा कर परमैश्वर्यवान् बनाते हैं ॥३॥ इस खण्ड में परमात्मा और आचार्य के गुण वर्णित होने से, उनका आह्वान होने से और उनसे प्रार्थना की जाने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति जाननी चाहिए ॥ अष्टम अध्याय में षष्ठ खण्ड समाप्त ॥ अष्टम अध्याय समाप्त ॥ चतुर्थ प्रपाठक में द्वितीय अर्ध समाप्त ॥
पदार्थ
(अद्रिवः) हे आनन्दधनवाले परमात्मन्! (दिक्षु) सब दिशाओं में, वस्तु वस्तु में (ते) तेरा (यत् प्रराध्यं श्रुतं बृहत् मनः-अस्ति) जो प्रशंसनीय प्रसिद्ध या सुनने योग्य बड़ा मनन करने योग्य स्वरूप है (तेन) उस अपने स्वरूपदर्शन से (दृढाचित्-वाजम्-आदर्षि) स्थिर अन्नभोग को भी हमारी ओर बखेर देता है—प्रदान करता है (सातये) हमारे लाभ के लिये, अतः तू स्तुतियोग्य है॥३॥
विशेष
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विषय
प्रभु का मननीय ज्ञान
पदार्थ
हे (अद्रिवः) = सर्व अनिष्टों का विदारण करनेवाले प्रभो ! (यत्) = जो (ते) = आपका (दिक्षु) = सब दिशाओं
में, अर्थात् सर्वत्र व्याप्त प्(रराध्यम्) = प्रकृष्ट सफलता देनेवाला (मन:) = मननीय बृहत् वृद्धि का कारणभूत श्(रुतम्) = ज्ञान (अस्ति) = है; तेन उस ज्ञान के द्वारा (दृढाचित्) = अत्यन्त प्रबल भी (वाजम्) = [वज गतौ, roam about=भ्रान्ति] भ्रान्ति को - संसार में इतस्ततः भटकने की वृत्ति को (आदर्षि) = विदीर्ण कर दीजिए, जिससे (सातये) = हम आपका सम्भजन कर सकें । प्रभु-प्राप्ति तभी होती है जब मनुष्य संसार में इधर-उधर भटकना छोड़, एकाग्रवृत्ति होकर प्रभु का ध्यान करे । इधर-उधर भटकना तब समाप्त होगा जब वह अपने अज्ञान को समाप्त कर लेगा । इस अज्ञान का नाश तब होगा जब हम वेदज्ञान को अपनाएँगे । यह वेदज्ञान मननीय है, हमारी वृद्धि का कारण है, हमें सफल बनानेवाला है [प्रराध्यम्] । इस ज्ञान के प्रकाश से अज्ञानान्धकार के निवृत्त होने पर यह प्रभुभक्त 'भौम' भूमि का ईश्वर बनता है, इन भौतिक पदार्थों का दास नहीं रहता । ऐसा बनने पर ही यह 'अत्रि' होता है—इसके तीनों दु:ख दूर हो जाते हैं । यह आध्यात्मिक, आधिभौतिक व आधिदैविक शान्ति प्राप्त करता है।
भावार्थ
हम प्रभु के मननीय वेदज्ञान द्वारा अज्ञानजनित भ्रान्ति से ऊपर उठें और प्रभु को प्राप्त करनेवाले हों ।
विषय
missing
भावार्थ
हे (अद्रिवः) ज्ञानस्वरूप या प्रलय करने हारी शक्ति के मालिक ! (यत्) जो (ते) तेरा (दिक्षु) समस्त दिशाओं में (प्रराध्यं) उत्तम रूप से आराधन करने योग्य, (बृहत्) बड़ा विशाल, (श्रुतं) श्रवण करने योग्य (मनः) मनन करने योग्य बल और ज्ञान है (तेन) उस से ही (दृढाचित्) पुष्ट, उत्तम (वाजं) ज्ञान और बल को (सातये) सबको समान रूप से दान करने के लिये (आदर्षि) खण्ड खण्ड करके, अनुभव और विचारक्रम से देते हो।
टिप्पणी
‘यत्ते दित्सु’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ वृषगणो वासिष्ठः। २ असितः काश्यपो देवलो वा। ११ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निः। ८ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ४ यजत आत्रेयः। ५ मधुच्छन्दो वैश्वामित्रः। ७ सिकता निवावरी। ८ पुरुहन्मा। ९ पर्वतानारदौ शिखण्डिन्यौ काश्यप्यावप्सरसौ। १० अग्नयो धिष्ण्याः। २२ वत्सः काण्वः। नृमेधः। १४ अत्रिः॥ देवता—१, २, ७, ९, १० पवमानः सोमः। ४ मित्रावरुणौ। ५, ८, १३, १४ इन्द्रः। ६ इन्द्राग्नी। १२ अग्निः॥ छन्द:—१, ३ त्रिष्टुप्। २, ४, ५, ६, ११, १२ गायत्री। ७ जगती। ८ प्रागाथः। ९ उष्णिक्। १० द्विपदा विराट्। १३ ककुप्, पुर उष्णिक्। १४ अनुष्टुप्। स्वरः—१-३ धैवतः। २, ४, ५, ६, १२ षड्ज:। ७ निषादः। १० मध्यमः। ११ ऋषभः। १४ गान्धारः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनस्तमेव विषयमाह।
पदार्थः
हे इन्द्र परमात्मन् आचार्य वा ! (यत् ते) यत् तव (प्रराध्यम्) प्रसादयितुमर्हम् (बृहत् मनः) विपुलशक्तिं मानसम् (दिक्षु) दिशासु (श्रुतम्) प्रसिद्धम् (अस्ति) विद्यते, (तेन) मनसा, हे (अद्रिवः) अविदीर्णबल ! त्वम् (दृढा चित्) कठिनमपि दुष्प्राप्यमपि। [सुपां सुलुक्० अ० ७।१।३९ इति द्वितीयैकवचनस्य आकारादेशः।] (वाजम्) धर्मविद्यादिधनम् (सातये) अस्मासु प्राप्तये (आदर्षि) आनय। [दॄ विदारणे, क्र्यादिः, छान्दसो विकरणस्य लुक्] ॥३॥२
भावार्थः
परमेश्वर आचार्यश्च सत्पात्रेभ्यो जनेभ्यो धर्ममार्गं सुशिक्ष्य विद्यादिदानं कृत्वा पुरुषार्थं प्रेरयित्वा तान् परमैश्वर्यवतः कुरुतः ॥३॥ अस्मिन् खण्डे परमात्मन आचार्यस्य च गुणवर्णनात् तदाह्वानात् ततः प्रार्थनाच्चैतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिर्वेदितव्या ॥ इति बरेलीमण्डलान्तर्गतफरीदपुरवास्तव्यश्रीमद्गोपाल-रामभगवतीदेवी तनयेन हरिद्वारीयगुरुकुलकाङ्गड़ीविश्वविद्यालयेऽधीतविद्येन विद्यामार्तण्डेन आचार्यरामनाथवेदालङ्कारेण महर्षिदयानन्द सरस्वतीस्वामिकृतवेदभाष्यशैलीमनुसृत्य विरचिते संस्कृतार्यभाषाभ्यां समन्विते सुप्रमाणयुक्ते सामवेदभाष्ये उत्तरार्चिके चतुर्थः प्रपाठकः समाप्तिमगात् ॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ५।३९।३, ‘दिक्षु’ इत्यत्र ‘दि॒त्सु’। २. दयानन्दर्षिणा ऋग्भाष्ये मन्त्रोऽयं विद्वत्परो व्याख्यातः।
इंग्लिश (2)
Meaning
O Omniscient God, Thy adorable, vast, acceptable knowledge is spread in all regions. With this Thou bestowest on us. Thy perfect knowledge, to be imparted alike to mankind!
Meaning
Adriva, wielder of thunder arms and ruler of clouds and mountains, with that mind and courage of yours which is great, renowned and magnanimous leading to sure success, break down the strongholds of darkness and scatter the forces of negativity to reveal the light of rectitude for success and victory. (Rg. 5-39-3)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (अद्रिवः) હે આનંદધનવાળા પરમાત્મન્ ! (दिक्षु) સર્વ દિશાઓમાં, પ્રત્યેક વસ્તુઓમાં (ते) તારું (यत् प्रराध्यं श्रुतं बृहत् मनः अस्ति) જે પ્રશંસનીય પ્રસિદ્ધ અથવા શ્રવણ કરવા યોગ્ય, મહાન મનન કરવા યોગ્ય સ્વરૂપ છે, (तेन) તે પોતાનાં સ્વરૂપ દર્શનથી (दृढाचित् वाजम् आदर्षि) સ્થિર અન્નભોગને પણ અમારી અંદર વિખેરી દે છે-પ્રદાન કરે છે. (सातये) અમારા લાભને માટે, જેથી તું સ્તુતિ યોગ્ય છે. (૩)
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वर व आचार्य सत्पात्र लोकांना धर्ममार्गाचे सुशिक्षण देऊन विद्या इत्यादीचे दान करतात. पुरुषार्थाची प्रेरणा करून परम ऐश्वर्यवान बनवितात. ॥३॥
टिप्पणी
या खंडात परमात्मा व आचार्याचे गुण वर्णित केल्यामुळे, त्यांचे आव्हान असल्यामुळे व त्याची प्रार्थना केल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती जाणली पाहिजे
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