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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1180
    ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    36

    इ꣡न्द्र꣢स्य सोम꣣ रा꣡ध꣢से पुना꣣नो꣡ हार्दि꣢꣯ चोदय । दे꣣वा꣢नां꣣ यो꣡नि꣢मा꣣स꣡द꣢म् ॥११८०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । सो꣣म । रा꣡ध꣢꣯से । पु꣣नानः꣢ । हा꣡र्दि꣢꣯ । चो꣣दय । देवा꣡ना꣢म् । यो꣡नि꣢꣯म् । आ꣣स꣡द꣢म् । आ꣣ । स꣡द꣢꣯म् ॥११८०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रस्य सोम राधसे पुनानो हार्दि चोदय । देवानां योनिमासदम् ॥११८०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रस्य । सोम । राधसे । पुनानः । हार्दि । चोदय । देवानाम् । योनिम् । आसदम् । आ । सदम् ॥११८०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1180
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में सोम परमात्मा को सम्बोधन है।

    पदार्थ

    हे (सोम) रसागार परमात्मन् ! (इन्द्रस्य) जीवात्मा की (राधसे) ऐश्वर्यप्राप्ति और सिद्धिप्राप्ति के लिए (पुनानः) पवित्रता देते हुए आप (देवानाम् योनिम्) दिव्य मुक्तजनों के घर अर्थात् मोक्षलोक को (आसदम्) प्राप्त कराने के लिए (हार्दि) सबके प्रति सौहार्द को (चोदय) हमारे अन्तर प्रेरित करो ॥३॥

    भावार्थ

    जनसाधारण से विद्वेष करनेवाले लोग मोक्ष पाने में समर्थ नहीं होते ॥३॥

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    पदार्थ

    (सोम) हे शान्तस्वरूप परमात्मन्! तू (राधसे) अपनी आराधना उपासना कराने के लिये (देवानाम्-आसदं इन्द्रस्य योनिं पुनानः हार्दि चोदय) देववृत्तियों—सद्वृत्तियों के समन्तरूप से बैठने योग्य मुझ आत्मा के स्थान हृदयगृह को पवित्र करता हुआ प्रेरित कर जिससे तेरी उपासना कर सकूँ, हृदय की गन्ध आदि वृत्ति नहीं इन्द्रियों की असुरवृत्तियाँ और देववृत्तियाँ पर्याय से आती रहती हैं॥३॥

    विशेष

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    विषय

    पवित्रता, प्रबल कामना, दिव्य गुणार्जन

    पदार्थ

    हे (सोम) = सोम! १. (इन्द्रस्य) = परमैश्वर्यशाली प्रभु की (राधसे) = सिद्धि के लिए - प्राप्ति के लिए २. (पुनान:) = हमारे जीवनों को पवित्र करता हुआ तू ३. (हार्दि) = प्रबल कामना को (चोदय) = प्रेरित कर । प्रबल इच्छा के बिना हम कभी प्रभु को प्राप्त कर सकेंगे, इस बात की सम्भावना नहीं है। प्रबल इच्छा होने पर हम अपने जीवनों को पवित्र बनाने के लिए प्रयत्नशील होंगे । प्रभु के स्वागत के लिए पवित्रीकरण आवश्यक है। अपवित्र हृदय में प्रभु का प्रकाश थोड़े ही होगा? यह प्रबल इच्छा व पवित्रीकरण सोम की रक्षा से ही सम्भव है । सुरक्षित सोम हमें पवित्र करते हैं और हममें प्रभुप्राप्ति की प्रबल कामना व उत्साह को पैदा करते हैं । इस प्रकार उत्साहयुक्त हो मैं आगे और आगे बढ़ता हूँ और (देवानाम्) = देवताओं के (योनिम्) = स्थान को (आसदम्) = प्राप्त करता हूँ । मेरा जीवन दिव्य बनता है, उत्तम गुणों का मैं लाभ करता हूँ ।

    भावार्थ

    रभु-प्राप्ति के लिए १. पवित्रता २. प्रबल कामना व उत्साह तथा ३. दिव्य गुणों का अर्जन आवश्यक है ।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे (सोम) साधक ! (राधसे) इन्द्रस्वरूप परमात्मा की आराधना के लिये (हार्दि) हृदय में विराजमान (देवानां) देवगण, इन्द्रियों तथा पञ्चभूतों के (आसदं) प्रतिष्ठास्थान और (योनिं) मूलकारण चिति शक्ति को (चोदय) प्रेरित कर।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ प्रतर्दनो दैवोदामिः। २-४ असितः काश्यपो देवलो वा। ५, ११ उचथ्यः। ६, ७ ममहीयुः। ८, १५ निध्रुविः कश्यपः। ९ वसिष्ठः। १० सुकक्षः। १२ कविंः। १३ देवातिथिः काण्वः। १४ भर्गः प्रागाथः। १६ अम्बरीषः। ऋजिश्वा च। १७ अग्नयो धिष्ण्या ऐश्वराः। १८ उशनाः काव्यः। १९ नृमेधः। २० जेता माधुच्छन्दसः॥ देवता—१-८, ११, १२, १५-१७ पवमानः सोमः। ९, १८ अग्निः। १०, १३, १४, १९, २० इन्द्रः॥ छन्दः—२-११, १५, १८ गायत्री। त्रिष्टुप्। १२ जगती। १३ बृहती। १४, १५, १८ प्रागाथं। १६, २० अनुष्टुप् १७ द्विपदा विराट्। १९ उष्णिक्॥ स्वरः—२-११, १५, १८ षड्जः। १ धैवतः। १२ निषादः। १३, १४ मध्यमः। १६,२० गान्धारः। १७ पञ्चमः। १९ ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सोमः परमात्मा सम्बोध्यते।

    पदार्थः

    हे (सोम) रसागार परमात्मन् ! (इन्द्रस्य) जीवात्मनः (राधसे) ऐश्वर्यप्राप्तये सिद्धिप्राप्तये वा (पुनानः) पवित्रतां प्रयच्छन् त्वम् (देवानाम्) दिव्यानां मुक्तजनानाम् (योनिम्) गृहं, मोक्षलोकमित्यर्थः (आसदम्) आसादयितुम् [अत्र आङ्पूर्वाद् णिज्गर्भात् षद्लृ धातोः तुमर्थे बाहुलकाच्छान्दसो णमुल् प्रत्ययः।] (हार्दि२) सर्वान् प्रति सौहार्दम्। [अत्र द्वितीयैकवचनस्य लुक्।] (चोदय) अस्मासु प्रेरय ॥३॥

    भावार्थः

    लोकविद्वेषिणो जना मोक्षं प्राप्तुं न क्षमन्ते ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।८।३, ‘ऋ॒तस्य॒ योनि॑मा॒सद॑म्’ इति तृतीयः पादः। २. हार्दि हृदये—इति वि०। हृदयसम्बन्धिस्थानम्—इति सा०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O pure Yogi, for the contemplation of God, develop in your heart, the power of reflection, the main seat and origan of all the organs of senses !

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    Meaning

    O Soma, peace and power of the divine spirit, purifying and sanctifying the life of humanity, inspire and energise the heart and passion of Indra, the human soul settled at the seed centre of the truth of existence, for winning the ultimate success and victory of life. (Rg. 9-8-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (सोम) હે શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું (राधसे) પોતાની આરાધના, ઉપાસના કરાવવા માટે, (देवानाम् आसदं इन्द्रस्य योनिं पुनानः हार्दि चोदय) દેવવૃત્તિઓ-સદ્ વૃત્તિઓને સમગ્રરૂપથી બેસવા યોગ્ય મારા આત્માનું સ્થાન હૃદયગૃહને પવિત્ર કરતાં પ્રેરિત કર. જેથી હું તારી ઉપાસના કરી શકું, હૃદયની ગંધ આદિ વૃત્તિ નહીં, ઇન્દ્રિયોની અસુરવૃત્તિઓ અને દેવવૃત્તિઓ પર્યાયથી આવતી રહે છે. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सर्वसामान्याचा द्वेष करणारे लोक मोक्ष प्राप्त करण्यास समर्थ नसतात. ॥३॥

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