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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1184
    ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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    म꣣घो꣢न꣣ आ꣡ प꣢वस्व नो ज꣣हि꣢꣫ विश्वा꣣ अ꣢प꣣ द्वि꣡षः꣢ । इ꣢न्दो꣣ स꣡खा꣢य꣣मा꣡ वि꣡श ॥११८४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मघो꣡नः꣢ । आ । प꣣वस्व । नः । जहि꣢ । वि꣡श्वाः꣢꣯ । अ꣡प꣢꣯ । द्वि꣡षः꣢꣯ । इ꣡न्दो꣢꣯ । स꣡खा꣢꣯यम् । स । खा꣣यम् । आ꣢ । वि꣣श ॥११८४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मघोन आ पवस्व नो जहि विश्वा अप द्विषः । इन्दो सखायमा विश ॥११८४॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मघोनः । आ । पवस्व । नः । जहि । विश्वाः । अप । द्विषः । इन्दो । सखायम् । स । खायम् । आ । विश ॥११८४॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1184
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 7
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अब परमात्मा को सम्बोधन करते हैं।

    पदार्थ

    हे (इन्दो) तेजस्वी वा आनन्दरस से भिगोनेवाले परमात्मन् ! आप (मघोनः) दानी (नः) हम लोगों के पास (आ पवस्व) आओ, (विश्वाः) सब (द्विषः) द्वेष-वृत्तियों को (अप जहि) मार भगाओ। (सखायम्) अपने सखा जीवात्मा में (आ विश) प्रविष्ट होवो ॥७॥

    भावार्थ

    तभी परमेश्वर की पूजा सफल है, जब उपासक सब द्वेषभावों को अपने अन्दर से निकालकर सबके साथ मित्र के समान व्यवहार करे ॥७॥

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    पदार्थ

    (इन्दो) हे आनन्दरसपूर्ण परमात्मन्! तू (नः-मघोनः) देने योग्य धन रूप७ स्तवन—स्तुतिवचनवाले हम उपासक आत्माओं को (आपवस्व) समन्तरूप से प्राप्त हो (विश्वाः-द्विषः-अपजहि) सारी द्वेष भावनाओं को नष्ट कर (सखायम्-आविश) मुझ मित्र उपासक आत्मा के अन्दर आविष्ट हो—समाजा॥७॥

    विशेष

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    विषय

    पवित्रता, द्वेष-शून्यता व प्रभु-प्रवेश

    पदार्थ

    १. (मघोनः) = महनीय ज्ञानैश्वर्यवाले [मघ- ऐश्वर्य] तथा उत्तम यज्ञोंवाले [मघ= मख] हे (इन्दो) = सोम अथवा परमैश्वर्यवाले प्रभो! (नः) = हमें (आपवस्व) = पवित्र कीजिए । २. इस पवित्रता के लिए ही (विश्वा द्विषः) = हममें प्रवेश करनेवाली द्वेष- भावनाओं को (अपजहि) = नष्ट कर दीजिए | हमारे मन के मैल का स्वरूप ये राग-द्वेष ही तो हैं । ३. इस प्रकार हमारे जीवनों को निर्मल बनाकर हे प्रभो! (सखायम्) = आपके मित्र हममें (आविश) = प्रवेश कीजिए । इस प्रकार जीवन में प्रभु प्राप्ति का क्रम यह है—१. सोम-रक्षा द्वारा ज्ञान व यज्ञमय जीवन बिताते हुए पवित्र बनना और २. द्वेषों से दूर होना ।

    भावार्थ

    पवित्रता, द्वेष-शून्यता व प्रभु-प्राप्ति - इस सीढ़ी का हम आक्रमण करें ।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे (इन्दो) आत्मन् ! (मघोनः) सम्पत्तियों से युक्त ज्ञानवान् (नः) हमारे प्रति तू (आपवस्व) प्रकट हो। और (विश्वाः) समस्त (द्विषः) दूसरे के प्रति प्रेम या द्वेष के भावों को (अप) दूर कर। (सखायम्) परन सखा परमात्मा में (आविश) प्रवेश कर, उसे प्राप्त कर।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ प्रतर्दनो दैवोदामिः। २-४ असितः काश्यपो देवलो वा। ५, ११ उचथ्यः। ६, ७ ममहीयुः। ८, १५ निध्रुविः कश्यपः। ९ वसिष्ठः। १० सुकक्षः। १२ कविंः। १३ देवातिथिः काण्वः। १४ भर्गः प्रागाथः। १६ अम्बरीषः। ऋजिश्वा च। १७ अग्नयो धिष्ण्या ऐश्वराः। १८ उशनाः काव्यः। १९ नृमेधः। २० जेता माधुच्छन्दसः॥ देवता—१-८, ११, १२, १५-१७ पवमानः सोमः। ९, १८ अग्निः। १०, १३, १४, १९, २० इन्द्रः॥ छन्दः—२-११, १५, १८ गायत्री। त्रिष्टुप्। १२ जगती। १३ बृहती। १४, १५, १८ प्रागाथं। १६, २० अनुष्टुप् १७ द्विपदा विराट्। १९ उष्णिक्॥ स्वरः—२-११, १५, १८ षड्जः। १ धैवतः। १२ निषादः। १३, १४ मध्यमः। १६,२० गान्धारः। १७ पञ्चमः। १९ ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मा सम्बोध्यते।

    पदार्थः

    हे (इन्दो) तेजस्विन् आनन्दरसेन क्लेदक परमात्मन् ! त्वम्(मघोनः) दानवतः। [मघं मंहतेर्दानकर्मणः। निरु० १।७।] (नः) अस्मान् (आ पवस्व) आयाहि, (विश्वाः) सर्वाः (द्विषः) द्वेषवृत्तीः (अपजहि) विनाशय। (सखायम्) स्वमित्रभूतं जीवात्मानम् (आविश) प्रविश ॥७॥

    भावार्थः

    तदैव परमेश्वरस्य पूजा सफला यदोपासकः सर्वान् द्वेषभावानपनीय विश्वैर्मित्रवद् व्यवहरेत् ॥७॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।८।७।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O soul, enrich us with knowledge. Drive away all feelings of enmity. Go unto God, thy Friend!

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    Meaning

    Lord of peace and bliss, come and purify the devotees, men of wealth, power and honour, and ward off all our negativities, oppositions, jealousies and enmities from us and bless us all to live together as friends. (Rg. 9-8-7)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्दो) હે આનંદરસપૂર્ણ પરમાત્મન્ ! તું (नः मघोनः) આપવા યોગ્ય ધનરૂપ સ્તવનસ્તુતિવચનવાળા અમને ઉપાસક આત્માઓને (आपवस्व) સમગ્રરૂપથી પ્રાપ્ત થા. (विश्वाः द्विषः अपजहि) સમસ્ત દ્વેષ ભાવનાઓને નષ્ટ કર. (सखायम् आविश) મારી-મિત્રરૂપ ઉપાસક આત્માની અંદર આવિષ્ટ થા-સમાઈ જા. (૭)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जेव्हा उपासक संपूर्ण द्वेषभाव आपल्यामधून काढून टाकतो व सर्वांबरोबर मित्राप्रमाणे व्यवहार करतो तेव्हाच परमेश्वराची पूजा सफल होते. ॥७॥

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